
Resignation of Jagdeep Dhankhar
Resignation of Jagdeep Dhankhar
Resignation of Jagdeep Dhankhar: देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे ने पूरे राजनीतिक गलियारों में बड़ा तूफ़ान खड़ा कर दिया है। बीते सोमवार को संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ और मंगलवार को उपराष्ट्रपति के इस्तीफे की खबर सामने आई जिसने हर किसी को हैरान कर दिया। हालांकि उन्होंने अपने पत्र में संविधान के अनुच्छेद 67(a) का हवाला देकर ‘स्वास्थ्य’ को बड़ा कारण बताया, लेकिन सच कुछ और ही है… ये मामला जितना साधारण दिखा रहा है असल ये उससे कहीं ज्यादा गंभीर और राजनीतिक है। आइए इस लेख में इस पूरे घटनाक्रम के पीछे की बड़ी कहानी समझते हैं, विस्तार से….
इतिहास में तीसरी बार कार्यकाल से पहले इस्तीफा

आजतक के इतिहास में धनखड़ ऐसे तीसरे उपराष्ट्रपति बने जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले इस्तीफा दिया है। इससे पहले दिए गए इस्तीफे पर नज़र डालें तो… इससे पहले साल 1969 में वीवी गिरी और फिर आर. वेंकटरमण ने भी राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने के लिए इस्तीफा दिया था। लेकिन जगदीप धनखड़ का मामला इन दोनों से बहुत अलग है, जो अभी तक खुलकर सामने नहीं आया है। उन्होंने न तो राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन किया और न ही उनका कोई आधिकारिक अगला लक्ष्य घोषित किया गया है, फिर क्या वजह हो सकती है…?
संकेत पहले से मिल रहे थे
20 जुलाई को धनखड़ की पत्नी का जन्मदिन था और इसी दिन उन्होंने पहली बार राज्यसभा व राज्यसभा टीवी के सभी स्टाफ को भोज पर आमंत्रित किया। यह एक साधारण कार्यक्रम था, क्योंकि ये यह आयोजन सरकारी खर्चे पर हुआ था। इससे संदेह किया जा सकता है कि उनके मन में पहले से कुछ चल रहा था। अचानक भोज का कार्यक्रम रखना और सभी स्टाफ को आमंत्रित करना… वो भी सरकारी पैसों पर? कुछ अजीब तो था…
मानसून सत्र के पहले दिन की हलचल

21 जुलाई यानी सोमवार को संसद के मानसून सत्र की शुरुआत हुई। लोकसभा और राज्यसभा दोनों में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लेकर विपक्ष चर्चा की मांग कर रहा था। लोकसभा में अध्यक्ष ने राहुल गांधी को बोलने नहीं दिया, जबकि राज्यसभा में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को नियमों पर बोलने की अनुमति दी गई। लेकिन उन्होंने पूरा भाषण दे डाला और सभापति धनखड़ ने उन्हें रोकने का प्रयास तक नहीं किया। यह सत्ता पक्ष के लिए काफी हैरान करने वाली बात थी और भाजपा के जेपी नड्डा को बीच में हस्तक्षेप करना पड़ गया। ऐसा पहली बार लगा कि सभापति और सत्तारूढ़ दल के बीच कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
महाभियोग प्रस्ताव और बढ़ती आशंकाएं
इसके बाद जो सबसे बड़ा मामला सामने आया वो है – महाभियोग। कुल 63 राज्यसभा सांसदों ने जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग नोटिस दिया। इस प्रक्रिया की शुरुआत राज्यसभा सभापति ने किया। चूंकि यह प्रस्ताव पहले भी लोकसभा में दिया गया था, इसलिए परंपरा के मुताबिक वहीं विचार किया जाना था। फिर भी धनखड़ ने राज्यसभा सचिवालय को लोकसभा से पुष्टि करने को कहा।
बाद में सत्ता पक्ष के 50 सांसदों ने भी उसी न्यायाधीश के खिलाफ नोटिस दिया। लेकिन सरकार को शक था कि धनखड़ इसके माध्यम से महाभियोग कमेटी का गठन करना चाहते हैं। इस कमेटी के सदस्यों के चुनाव में भी सभापति की अहम भूमिका होती है और इससे सरकार को एक असहज स्थिति में लाया जा सकता था।
जस्टिस शेखर यादव का मामला
सरकार की चिंता का एक और बड़ा कारण था – जस्टिस शेखर यादव, जिन्होंने हाल ही में सनातन धर्म के पक्ष में एक निजी कार्यक्रम में बयान दिया था। विपक्ष इसपर इंपीचमेंट लाना चाहता था, जबकि सरकार इसे ‘निजी अभिव्यक्ति’ मान रही थी और सुप्रीम कोर्ट से स्पष्टीकरण की मांग कर रही थी।

सरकार को पहले से आशंका थी कि धनखड़ इस प्रस्ताव को मंजूरी दे सकते हैं। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि जयराम रमेश ने ट्वीट कर बताया कि मंगलवार दोपहर 1 बजे धनखड़ ने बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक आयोजित की थी, जिसमें ‘सुप्रीम कोर्ट से जुड़ा फैसला’ लिया जाना था। हालांकि कोई पुष्टि नहीं हुई कि फैसला क्या था, लेकिन यह सरकार के लिए खतरे की घंटी बज गयी।
राजस्थान दौरा और प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा

एक और संकेत सरकार के लिए हैरत में डालने वाला था – सोमवार को उपराष्ट्रपति कार्यालय से प्रेस विज्ञप्ति जारी हुई कि धनखड़ 23 जुलाई को राजस्थान के दौरे पर जाएंगे। उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंग्लैंड और मालदीव की राजकीय यात्रा के लिए रवाना होने की तैयारी कर रहे थे। यह कोई संयोग नहीं था। बल्कि सरकार को संदेह हुआ कि कहीं उपराष्ट्रपति उस दिन कोई बड़ा एलान न कर दें, जिससे संवैधानिक संकट पैदा हो जाए।
अचानक इस्तीफा और सरकार की तैयारी
ऐसी स्थिति में सरकार के पास विकल्प बेहद सीमित थे। धनखड़ का व्यवहार पिछले कुछ वक़्त से बेहद असामान्य था। कुछ वक़्त पहले वह नैनीताल विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में बेहोश होकर गिर पड़े थे, और एम्स में भी भर्ती हुए थे, लेकिन तब उन्होंने कार्यभार नहीं छोड़ा। अब अचानक स्वास्थ्य कारण बताकर इस्तीफा देना तर्कसंगत नहीं लगा।

राजनीतिक विश्लेषकों का ये मानना है कि यह कदम दरअसल सरकार के सामने संवैधानिक संकट पैदा करने की तैयारी का अहम भाग हो सकता था, जिसे समय रहते नियंत्रित कर लिया गया।
अब आगे क्या?
अब सवाल यह है कि आगे क्या होगा? संविधान में उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है। लेकिन जब तक नया उपराष्ट्रपति का चुनाव नहीं किया जाता, तब तक राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश सभापति की भूमिका निभाएंगे। हालांकि वे उपराष्ट्रपति के संवैधानिक कार्य नहीं कर सकते। चूंकि संसद में NDA का पूर्ण बहुमत है, इसलिए नए उपराष्ट्रपति के चुनाव में सरकार को कोई समस्या नहीं होगी।
सभी बातों का निचोड़ निकला हो या न हो…. लेकिन ये समझ आ गया है कि धनखड़ का इस्तीफा मात्र एक ‘स्वास्थ्य कारण’ तो नहीं था, बल्कि इससे सरकार ने एक संभावित संवैधानिक संकट टाल दिया। विपक्ष को भले ही यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा मिल गया हो, लेकिन सरकार अब अगले उपराष्ट्रपति के चुनाव की तैयारी में तेजी से जुट चुकी है। इस घटनाक्रम ने एक बार फिर भारतीय राजनीति में ‘अंदर की कहानी’ और शक्ति संघर्ष को उजागर कर दिया है।