भारत में तेज़ी से बढ़ता उपभोग और उससे पैदा होने वाले कचरे का निस्तारण नगरीय निकायों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में उत्पादित कचरे की मात्रा को कम करने, पुनर्चक्रण और दोबारा इस्तेमाल में लाने के लिए कई उपायों पर काम किया जा रहा है। वेस्ट टू एनर्जी मॉडल भी इसी का एक उदाहरण है। कचरे को जलाकर बिजली बनाने का यह माध्यम नगरीय निकायों के लिए कचरे के पहाड़ों को खत्म करने का सबसे पसंदीदा विकल्प बन रहा है तो वहीं इसे संचालित करने वाली कंपनियों के लिए गाढ़ी कमाई का ज़रिया।
मध्यप्रदेश में भी वेस्ट टू एनर्जी प्रोसेसिंग यूनिट्स लगाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। राज्य में जबलपुर के बाद दूसरा वेस्ट टू एनर्जी प्लांट रीवा शहर में फरवरी 2024 में स्थापित किया गया। इसके अलावा 6 नगरीय निकायों में इन प्लांट्स को स्थापित करने के लिए डीपीआर (डीटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) तैयार करने के निर्देश राज्य प्रशासन ने संबंधित नगर निकायों को दिए हैं।
जबलपुर में स्थापित राज्य का पहला वेस्ट टू एनर्जी प्लांट विवादों से घिरा हुआ है। इस प्लांट पर नियमों का पालन नही करने पर लाखों रुपए का जुर्माना लगाया जा चुका है। साथ ही पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों का मानना है कि कचरे की समस्या के लिए वेस्ट टू एनर्जी प्लांट उपयुक्त समाधान नहीं हैं, इसके अपने पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम हैं।
भारत ठोस अपशिष्ट ( एमएसडब्ल्यू) उत्पन्न करने के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 देशों में शामिल है। जर्नल ऑफ अर्बन मैनेजमेंट में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत सालाना कुल 62 मीट्रिक टन कचरे का उत्पादन करता है। भारतीय केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने भारत में 2030 तक सालाना कचरा उत्पादन बढ़कर 165 मीट्रिक टन होने का अनुमान लगाया है।
वहीं मध्य प्रदेश में भी हर साल 1.5 करोड़ टन कचरा निकल रहा है, जिसमें से सिर्फ 60 से 70 प्रतिशत कचरे का निपटान किया जा रहा है। प्रदेश में कुल 413 अर्बन लाेकल बॉडीज (ULB) से 6671.5 टन कचरा प्रतिदिन (TDP) उत्पादित हो रहा है, इसमें से 6608.79 (TDP) कचरा प्रोसेस किया जा रहा है, इस कचरे में से 30 से 40 फीसदी ऐसा कचरा शामिल है, जिसे रीसायकल या प्रोसेस कर खाद नहीं बनाई जा सकती है। (यहां प्रोसेस का मतलब रीसायकल कर उत्पाद बनाने से नहीं बल्कि केवल स्टोरेज, कलेक्शन और ट्रांस्पोर्टेशन से है।) इस तरह के कचरे से निजात पाने के लिए वेस्ट टू एनर्जी विकल्प को तरजीह दी जा रही है।
कचरे से ऊर्जा
नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय की वेबसाइट पर बताया गया है कि भारत में शहरी और औद्योगिक जैविक कचरे से कुल अनुमानित ऊर्जा उत्पादन क्षमता करीब 5,690 मेगावॉट है।
भारत में 382.7 मेगावॉट की संयुक्त क्षमता के प्लांट प्रस्तावित हैं, जबकि 10 राज्यों में 12 चालू और आठ गैर-संचालित वेस्ट टू एनर्जी प्लांट स्थित हैं।
वहीं सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की टू बर्न ऑर नाॅट टू बर्न रिपोर्ट में बताया कि देश भर में 69.2 मेगावॉट क्षमता वाले प्लांट चालू है, 84.3 मेगावॉट क्षमता के प्लांट निर्माणाधीन हैं और 66.35 मेगावॉट क्षमता वाले प्लांट काम नहीं कर रहे हैं।
दिल्ली स्थित आई-फॉरेस्ट के संथापक और सीईओ चंद्र भूषण कहते हैं
“देशभर में निकलने वाले कचरे और उस कचरे को मैनेज करने की कैपेसिटी में काफी अंतर देखने को मिलता है। यही वजह है कि हम कचरे के ढेर में दबते जा रहे हैं।”
वे आगे कहते हैं कि समय रहते हमने कचरा प्रबंधन क्षमता में तेजी से इजाफा नहीं किया तो इसके गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। क्योंकि हमारे द्वारा उत्पादित कचरे की मात्रा, गुणवत्ता और नगरपालिका की उस कचरे को प्रोसेस या प्रबंधित करने की क्षमता के बीच काफी बड़ा अंतर है।
मध्य प्रदेश की स्थिति
मध्य प्रदेश में वेस्ट टू एनर्जी प्रोसेसिंग यूनिट्स की बात करें तो राज्य में अभी जबलपुर में प्रतिदिन 11 मेगावॉट और रीवा में 6 मेगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता के वेस्ट टू एनर्जी प्लांट का संचलान पीपीपी मॉडल पर किया जा रहा है। जबकि राज्य के 6 शहर ( भाेपाल, इंदौर, उज्जैन, ग्वालियर, रतलाम और सागर) में प्रतिदिन 6 से 12 मेगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने के लिए डीपीआर तैयार किए जा रहे हैं।
असफलता की कहानी पुरानी
इंडिपेंडेंट वेस्ट मैनेजमेंट एंड सर्कुलर इकॉनामी एक्सपर्ट स्वाति सिंह संब्याल कहती हैं “किसी भी वेस्ट टू एनर्जी प्लांट में बिजली उत्पादन के टारगेट को तब ही हासिल किया जा सकता है, जब उस प्लांट को मिलने वाले वेस्ट फीडस्टॉक की क्वालिटी अच्छी होगी। वेस्ट की क्वालिटी तीन कारकों पर निर्भर है
-
कम्पोजीशन (बायोडिग्रेडेबल और नॉन-बायोडिग्रेडेबल)
-
कैलोरिफिक वैल्यू या कैलोरी मान ( कितनी ऊर्जा प्राप्त होगी)
-
मॉइस्चर यानी नमी की मात्रा ( ठोस अपशिष्ट में पानी की मात्रा)
प्लांट में जलाये जाने वाले कचरे में वो कचरा शामिल होता है, जिसे रीसायकल, प्रोसेस्ड या पुन: उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। वहीं कम नमी और उच्च कैलोरी मान वाला कचरा ही इंसीनेरटर के लिए आर्दश होता है, लेकिन हमारे यहां के कचरे में नमी और कैलोरी मान में कमी देखने को मिलती है, इसकी वजह से यह माॅडल हमारे लिए उपयुक्त नहीं हैं।
इधर, भारत के ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (एसडब्ल्यूएम) नियम 2016 में भी कहा गया है कि 1500 किलो कैलोरी/किग्रा या उससे अधिक कैलोरी मान वाले गैर-पुन:चक्रणीय अपशिष्ट का उपयोग ही वेस्ट टू एनर्जी संयंत्र में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए किया जाना चाहिए।
संब्याल, कई रिपोर्ट का हवाले देते हुए कहती है कि भारत में कचरे का कैलोरी मान हर शहर में अलग-अलग होता है, औसत मान 1411 किलो कैलोरी/किग्रा से लेकर 2150 किलो कैलोरी/किग्रा तक होता है, जिसमें नमी की मात्रा अधिक होती है। उदाहरण के तौर पर गुवाहाटी (असम) में यह 1833 किलो कैलोरी/किग्रा है, जबकि आंध प्रदेश में यह 1080 किलो कैलोरी/किग्रा जितना कम हो सकता है।
विवादों में वेस्ट टू एनर्जी प्लांट
हालांकि, वेस्ट टू एनर्जी मॉडल अपने शुरूआती दिनों से ही विवादों में घिरा हुआ है, देश का पहला वेस्ट टू एनर्जी प्लांट दिल्ली के तिमारपुरा में साल 1987 में डेनमार्क की एक कंपनी द्वारा पीपीपी माॅडल पर स्थापित किया गया। 20 करोड़ की लागत से निर्मित इस प्लांट में नगर निगम के प्रतिदिन 300 टन ठोस कचरे को जलाकर प्रतिदिन 3.75 मेगावॉट बिजली पैदा करनी थी, लेकिन यह संयंत्र केवल तीन सप्ताह में ही बंद हो गया। इसके बाद से ही भारत में कचरे से बिजली बनाने वाले मॉडल की असफलता जारी है।
वहीं मध्य प्रदेश की पहली वेस्ट टू एनर्जी प्रोसेसिंग यूनिट जबलपुर के कठौंदा में साल 2014 में 178 करोड़ रू. की लागत से स्थापित की गई। इस प्लांट का संचालन पीपीपी मॉडल के आधार पर ऐस्सेल इंफ्रा कंपनी द्वारा किया जा रहा है। यह प्लांट साल 2016 की शुरूआत से ही विवादों से घिरा हुआ है। घाटा होने पर दूसरी कंपनी को बेचने की कोशिश और बैंक की किश्तें नहीं चुकाने पर कुछ समय तक बैंक द्वारा प्लांट का संचालन किया गया। नियमों की अनदेखी के कारण प्लांट पर मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दिसंबर 2023 में 1120 लाख रू. का जुर्माना लगाया। इतना ही नहीं प्लांट में नियमों का पालन नहीं करने के मामले में एनजीटी में केस भी चल रहा है।
प्लांट के इंचार्ज नरेंद्र सिहारे कहते हैं कि
“बिजली बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में कचरा नहीं मिलने की वजह से महाराष्ट्र, गुजरात के शहरों से कचरा लाने का अनुबंध किया गया है, मिश्रित कचरा होने की वजह से कचरे में नमी अधिक होती है, जोकि ऊर्जा उत्पादन की क्षमता को प्रभावित करती है।”
पर्यावरण कार्यकर्ता सुभाष सी. पांडे्य कहते हैं कि
“वेस्ट टू एनर्जी प्लांट्स में भेजा जाने वाला अधिकतर कचरा पृथक (अलग-अलग) नहीं किया जाता है और उसमें ऐसे निष्क्रिय तत्व मिले हुए होते है, जोकि इन संयंत्रों के लिए उपयुक्त नहीं हैं।”
वे आगे कहते हैं कि ऐसे मिश्रित कचरे को जलाने के लिए अतिरिक्त ईंधन की आवश्यकता होती है, जिससे संयंत्र अव्यवहारिक हो जाता है। यहीं कारण हैं कि कई शहरों में कचरे से ऊर्जा बनाने वाले प्लांट्स या तो ठीक से काम नहीं कर रहे हैं या फिर बंद हो गए हैं।
स्वास्थ्य और पर्यावरण पर असर
मिश्रित कचरे को जलाने से कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और सल्फर डाईऑक्साइड जैसे जहरीले कण निकलते हैं, क्योंकि वे ठीक से जल नहीं पाते हैं। ये कण श्वसन संबंधी बीमारियों का कारण बन सकते हैं और वेस्ट टू एनर्जी संयंत्रों के पास रहने वाले लोगों में अस्थमा जैसी फेफड़ों की बीमारियों का कारण भी बन जाते हैं।
वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक ठोस अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली में सुधार करके 22 तरह की बीमारियों को नियंत्रित और उससे बचा जा सकता है। दुर्भाग्य से भारत में इस दिशा में ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
पर्यावरण कार्यकर्ता सुभाष सी. पाडे्य कहते हैं
“अकुशल जलने का एक और परिणाम बची हुई राख (फ्लाई ऐश) है। यह कुल फीड का 30 से 40 प्रतिशत तक हो सकती है, जोकि फिर खुली डंप साइटों में डाल दी जाती है। ऐसा करने से भूजल और मिट्टी भी जहरीले रसायनों से दूषित हो जाते हैं।”
वे आगे कहते हैं कि “यह उन कचरा बीनने वालों के लिए भी खतरनाक है, जो इन लैंडफिल पर काम करते हैं।” वे सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भस्मक ( इंसीनरेटर) के प्रत्यक्ष प्रभाव पर व्यापक अध्ययन करने की वकालत करते हैं।
वे अफसोस जताते हुए कहते हैं कि “यह दुर्भाग्य की बात है कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर इंसीनरेटर के प्रत्यक्ष प्रभाव पर कोई व्यापक अध्ययन नहीं किया गया।”
नए संयंत्र खोलने से लाभ किसे?
वेस्ट टू एनर्जी प्रोसेसिंग प्लांट्स के लिए राज्य के साथ देशभर में उपयुक्त अपशिष्ट मौजूद नहीं हैं, तो फिर देश भर में तेजी से कचरे से बिजली बनाने वाले संयंत्र क्यों स्थापित किए जा रहे हैं? इस
सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की गई तो चार बातें निकलकर सामने आई हैं, जिसमें प्रोफिट (लाभ), परिचालन के लिए मिलने वाली सब्सिडी और वित्तीय प्रोत्साहन, एग्रीमेंट में कमियां और कमजोर मूल्यांकन व मापदंड शामिल हैं।
स्वाति, कहती हैं कि
“नगर पालिकाओं से एग्रीमेंट करके ही वेस्ट टू एनर्जी प्लांट के संचालक अपनी अपशिष्ट प्रबंधन सेवाएं देते हैं, इसके बदले में उन्हें एक बड़ी टिपिंग फीस ( कचरे के वजन पर मिलने वाला शुल्क) मिलती हैं। जितना अधिक कचरा मिलेगा, उतनी ही अधिक कमाई होगी।”
हालांकि एसडब्ल्यूएम नियम-2016 में कचरे को अलग करना अनिवार्य कर दिया गया है, इसके बाद भी संग्रह के दौरान मिश्रित कचरे को मिलाया जाता है, क्याेंकि नगर निकायों से प्राप्त होने वाली टिपिंग फीस इन पीपीपी मॉडल पर संचालित संयंत्रों के लिए राजस्व का प्रमुख स्रोत है।
उदाहरण के लिए, इंदौर में टिपिंग शुल्क 1080 रूपये प्रति टन है, रीवा में 1740 रू. प्रति टन टिपिंग शुल्क निर्धारित है, जबकि दिल्ली में यह 2000 से 2700 रूपये है।
उनकी बात पर सहमति जताते हुए सुभाष सी. पांडे्य कहते हैं कि “मान लें कि एक शहर प्रतिदिन तीन निजी कंपनियों को करीब 6000 टन कचरा दे रहा है तो 2000 रू. प्रति टन प्रतिदिन के हिसाब से करीब 1.2 करोड़ रू. की कमाई कंपनियां कर रही हैं। शायद यही वजह है कि वेस्ट टू एनर्जी प्लांट्स को बढ़ावा दिया जा रहा है।”
हालांकि नियमों के तहत वेस्ट टू एनर्जी प्लांट्स यदि निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति समय पर नहीं करते है तो जुर्माने की कार्रवाई की जाती है, यानी मासिक टिपिंग शुल्क की एक निश्चित राशि का भुगतान नहीं किया जाता है, जबकि यह जुर्माना कंपनियों की होने वाले कमाई का एक बहुत छोटा अंश मात्र है।
भारत सरकार द्वारा वेस्ट टू एनर्जी प्राेसेसिंग यूनिट स्थापित करने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी ने भी इसे निजी कंपनियों और निवेशकों के लिए आर्थिक रूप से आकर्षक व्यवसाय बना दिया है।
यही बात टू बर्न ऑर नॉट टू बर्न रिपोर्ट में भी सामने आई है, रिपोर्ट कहती है कि शहरी स्थानीय निकायों को प्रोसेसिंग यूनिट तक मुफ्त कचरा पहुंचने और मामूली दरों पर (30 साल या उसे अधिक समय तक) प्लांट के लिए भूमि पट्टे के तौर पर उपलब्ध कराने, व्यवहार्यता रिपोर्ट तैयार करने, प्रचार-प्रसार, समन्वय और निगरानी तक के लिए वित्तीय प्रोत्साहन दिया जाता है, जोकि निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) नियमों के अनुसार, ऐसे वेस्ट बेस्ड थर्मल पॉवर प्लांट्स जिनकी 20 मेगावॉट से अधिक क्षमता है, उसका मूल्यांकन केंद्र स्तर पर किया जाना अनिवार्य है, जबकि 15 से 20 मेगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों को राज्य स्तर पर मंजूरी दी जा सकती है।
पांडे्य, कहते हैं कि “समस्या यह है कि 15 मेगावॉट से कम क्षमता वाले संयंत्रों को पर्यावरण मंजूरी से छूट दी गई है। इस नियम का फायदा उठाकर ही शहरों में अक्सर इस सीमा से कम क्षमता वाले संयंत्र स्थापित हो रहे हैं।”
हालांकि नियमों के तहत सभी वेस्ट टू एनर्जी यूनिट्स कंटीन्यूअस एमिशन मॉनिटरिंग सिस्टम (उत्सर्जन) से लैस हैं, जोकि प्रदूषकों के उत्सर्जन को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने के लिए ट्रैक करते हैं ।
पांडे्य, सवाल करते हुए कहते हैं कि इस डेटा तक पहुंच प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या प्लांट मैनेजरों तक ही सीमित होती है, यह आम जनता के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं, भले ही यह डाटा हम सभी को प्रभावित करता है। जो डेटा उपलब्ध कराया जाता है वह अक्सर पुराना होता है।
स्वाति कहती हैं कि
“मैंने कई संयंत्रों का व्यक्तिगत दौरा किया है और इस दौरान संयंत्रों में निगरानी सिस्टम ठीक से काम नहीं करते मिले हैं।”
क्या करने की जरूरत
इन सभी तथ्यों के बाद भी कचरा प्रबंधन समस्याओं के समाधान के रूप में कचरे से ऊर्जा बनने वाले संयंत्रों के प्रति प्रशासनिक अधिकारी समर्पित क्यों नजर आते हैं? इसके जवाब में पर्यावरण कार्यकर्ता और विशेषज्ञों एकजुटता के साथ कहते हैं कि
“कचरे से निपटने का सबसे आसान तरीका कचरे को जलाकर बिजली बनाना है, जबकि अन्य समाधानों के लिए कड़ी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है, जिसमें लोगों को स्रोत पर कचरे को अलग करने के लिए राजी करना, समुदाय को साथ लेना, कचरा प्रबंधन का विकेंद्रीकरण ( डिसेंट्रलाइजेशन) करना शामिल है।”
स्वाति सिंह कहती हैं
“हमें रीसायकल और यूज एंड थ्रो की पॉलिसी से निकल सर्कुलर माॅडल पर काम करना होगा। यह बहुत पुराना मॉडल है, जिसे कूड़ा-कचरा बीनने वालों और कबाड़ियों (सेकंड हैंड सामान के विक्रेता) द्वारा अपनाया जाता है।”
वे आगे कहती हैं कि “ऐसा नहीं हैं कि इस पर काम नहीं किया जा रहा है, इस पुराने सुर्कलर मॉडल के आधार पर ही मैटेरियल रिकवरी फैसेलिटी सेंटर (MRF) स्थापित किए जा रहे है, लेकिन वेस्ट टू एनर्जी माॅडल को अचूक उपाय बनाने की होड़ से यह पुराना माॅडल खंडित होता जा रहा है।”
पांडे्य भी उनकी बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि हमें कचरे की संरचना को समझने की जरूरत है, क्योंकि कुल कचरे में से सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत ही जलाने योग्य है। इस तरह के कचरे को सीमेंट संयंत्रो में प्रोसेस करने के लिए दिया जा सकता है।
वे आगे कहते हैं कि “हालांकि सीमेंट संयंत्रों में इस तरह का कचरा कई नगरीय निकायों द्वारा पहुंचाया जा रहा है, जोकि उनकी लागत को भी कम कर रहा है, जबकि इससे वेस्ट टू एनर्जी की तुलना में पर्यावरण पर भी कम प्रभाव पड़ता है।”
निष्कर्ष
भारत की आबादी जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे कचरा भी बढ़ता जा रहा है। इसीलिए कचरा प्रबंधन के प्रति हमारे नजरिये को फिर से परिभाषित ( डिफाइंड) करने की जरूरत है, ताकि कचरे के उत्पादन को कंट्रोल कर इससे पर्यावरण को पड़ने वाले प्रभावों को कम किया जा सके।
ऐसा करने के लिए नीतियों और नियमों के माध्यम से वेस्ट रिडक्शन एंड सस्टेनेबल मेथड्स (कचरे में कमी और टिकाऊ प्रसंस्करण विधियों) का समर्थन करने वाली प्रथाओं को प्रोत्साहित करना होगा। हमें कचरा प्रबंधन के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, लेकिन वेस्ट टू एनर्जी प्रोसेसिंग यूनिट्स जैसे महंगे त्वरित समाधान से बचने की जरूरत है, क्योंकि यह शहरों को साफ करने में मदद करने के बजाय ग्रीनवॉश को अधिक बढ़ावा दे रहे हैं। साथ ही पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
भारत में स्वतंत्र पर्यावरण पत्रकारिता को जारी रखने के लिए ग्राउंड रिपोर्ट का आर्थिक सहयोग करें।
पर्यावरण से जुड़ी खबरों के लिए आप ग्राउंड रिपोर्ट को फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और वॉट्सएप पर फॉलो कर सकते हैं। अगर आप हमारा साप्ताहिक न्यूज़लेटर अपने ईमेल पर पाना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें।
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी जटिल शब्दावली सरल भाषा में समझने के लिए पढ़िए हमारी क्लाईमेट ग्लॉसरी
यह भी पढ़ें
कूड़े की यात्रा: घरों के फर्श से लैंडफिल के अर्श तक
मध्य प्रदेश में पराली जलाने पर सख्ती नहीं, दम घोंटू धुंए से पटे गांव
मध्य प्रदेश को C&D वेस्ट से निजात पाने के लिए तय करना होगा लंबा सफर
MP में खाद की कमी के बाद भी किसान नहीं खरीद रहे IFFCO की नैनो यूरिया