अगर उमर अब्दुल्ला के बयान का मतलब नेशनल कॉन्फ्रेंस का आधिकारिक बयान है तो अभिषेक बनर्जी के बयान को भी तृणमूल कांग्रेस का आधिकारिक बयान मानना चाहिए। और हम आप मानें न मानें लेकिन जब ईवीएम के दुरुपयोग के सवाल पर उमर अब्दुल्ला के बाद अभिषेक बनर्जी भी मिलता जुलता बयान दे रहे हैं तो कम से कम कांग्रेस को तत्काल इसका नोटिस लेना चाहिए। यह सवाल कॉंग्रेस या राष्ट्रवादी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी द्वारा हरियाणा और फिर महाराष्ट्र के नतीजों के बाद वोटिंग मशीन के दुरुपयोग पर उठाए जाने वाले हंगामे के बाद ही विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन के नेतृत्व के सवाल पर एक दौर में सभी गैर कांग्रेसी साझीदारों द्वारा ममता बनर्जी को नेता बनाने की मांग के साथ सामने आया है।
इसमें कांग्रेस या सपा-राजद जैसे विपक्षी दलों द्वारा चुनाव हारने के बाद (और उसी मशीन से चुनाव जीतने के बाद चुप्पी साध लेने) वोटिंग मशीन पर सवाल उठाने का सवाल भी है लेकिन कहीं न कहीं कांग्रेस पर दबाव बनाने की मंशा भी शामिल है। जब से मौजूदा सरकार ने चुनाव आयुक्तों के चुनाव के पैनल से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को हटाकर केन्द्रीय गृहमंत्री को सदस्य और चयन समिति में सरकार के साफ बहुमत की व्यवस्था की है तब से कांग्रेस ही नहीं लगभग पूरा विपक्ष आयोग के फैसलों और चुनाव के नतीजों को लेकर शंका जाहिर करता रहा है लेकिन उसने कभी भी इसे आर-पार की लड़ाई का सवाल नहीं बनाया है। इसलिए उसकी मांगों का वजन हल्का होता गया है।
लेकिन कांग्रेस नेतृत्व पर इस सवाल को उठाने के साथ इंडिया गठबंधन के कामकाज को व्यवस्थित करने और नेता चुनने का दबाव अभी ज्यादा लग रहा है। और वह भी स्वाभाविक है क्योंकि चुनावों के चक्कर में वह इस विपक्षी गठबंधन के कामकाज को व्यवस्थित करना भूल गई थी। एक तो कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे ‘इंडिया; के संयोजक हैं और उन्होंने लंबे समय से कोई बैठक नहीं बुलाई है। दूसरे इस बीच इस विपक्षी गठबंधन के बीच खटर-पटर की खबरें भी आती रही हैं। और अब तो यह पक्का लग रहा है कि दिल्ली विधान सभा चुनाव में आप और कांग्रेस अलग-अलग ही लड़ेंगी।
कहां तो अब तक एक साझा नीति वक्तव्य और कार्यक्रम तय हो जाना चाहिए था और कहां अभी हर चीज बिखरी ही दिखती है। बल्कि जो चीजें लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद व्यवस्थित लग रही थीं उनमें भी गड़बड़ नजर आने लगी है। कांग्रेस और सपा के, कांग्रेस और राजद के, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के तथा कांग्रेस और द्रमुक के रिश्तों में निश्चित रूप से गिरावट आई है। आप की चर्चा पहले की ही जा चुकी है और अब बगावती ममता बनर्जी के तेवर और कठोर हुए हैं।
इन सबका रिश्ता हरियाणा और महाराष्ट्र ही नहीं, जम्मू-कश्मीर विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन से है। और आगे दिल्ली या बिहार विधानसभा चुनाव में भी उसके कोई बहुत अच्छा करने की उम्मीद नहीं है। पर कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन से भी ज्यादा खराब प्रदर्शन इंडिया गठबंधन के नेतृत्व के मामले में हुआ है। कांग्रेस और खास तौर पर राहुल गांधी ने सवालों पर ज्यादा उदारता दिखाई है लेकिन व्यवस्थित फैसले कराने में उनकी भी रुचि नहीं लगती। जिस गठबंधन को नीतीश कुमार ने सबकी इच्छा के अनुसार चुटकी बजाते खड़ा कर दिया था वह खुद नीतीश को साथ न रख पाया। और आज यह हालत है कि खुद कांग्रेस गरीब की जोरू वाली स्थिति में है जिसे हर कोई उपदेश पीला रहा है।
कभी कोई शिव सैनिक कांग्रेस से खानदानी दुश्मनी की याद दिलाता है तो कभी अबू आजमी भी चार फटकार लगा देते हैं। ममता तो बहुत बड़ी हैं पर इंडिया गठबंधन के नए नेता लोग भी कांग्रेस को सीख देने में पीछे नहीं रहते।
कांग्रेस के सबसे भरोसेमंद साथी लालू यादव भी ममता को नेता बनाने की वकालत कर चुके हैं। बल्कि इस सवाल पर अकेले तेजस्वी यादव ने संतुलित बयान दिया कि ममता को नेता मानने में उज्र नहीं है लेकिन फैसला तो सबकी सहमति से ही होगा।
कांग्रेस पर भाजपा की तरफ से लगातार हमले जारी हैं तो इसलिए नहीं कि लोकसभा के अच्छे प्रदर्शन के बाद कांग्रेस कुछ कमजोर पड़ी है और जीत से भाजपा की हताशा खत्म हुई है। भाजपा की रणनीति इंडिया गठबंधन के साझीदारों की तरह कांग्रेस पर ज्यादा दबाव बनाकर कुछ सौदेबाजी कर लेने की भी नहीं है। उसे कांग्रेस और राहुल के रूप में ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता है। क्षेत्रीय पार्टियां भले उसे चुनाव में ज्यादा गंभीर चुनौती दें लेकिन पूरी राजनीति में आज उसे सिर्फ कांग्रेस और राहुल गांधी या गांधी नेहरू परिवार से ही चुनौती मिलती है। इसलिए वह तो अपना हमला तेज करेगी ही। और मात्र संयोग नहीं है कि मीडिया और अनेक संस्थाओं से उसे समर्थन मिलता है जबकि कांग्रेस इन सबको भी दुश्मन बनाए हुई है। कांग्रेस भी किन मुद्दों को सामने करके भाजपा को बैकफूट पर धकेले यह उसकी आंतरिक चर्चा और बाहर की चर्चा का विषय हो सकता है। लेकिन हर तरफ़ से कांग्रेस और खास तौर से राहुल को उपदेश पिलाया जा रहा है।
इस सबमें हर्ज नहीं है। लेकिन कुछ बड़े सवाल हैं कि राहुल और कांग्रेस कुछ सीखते क्यों नहीं वे पार्टी संगठन और इंडिया गठबंधन के सांगठनिक स्वरूप पर ध्यान क्यों नहीं देते उनके बोलने का विषय कौन तय करता है, उनके राजनैतिक कार्यक्रम कौन बनाता है वे क्यों बार-बार संघ परिवार द्वारा बिछाए सावरकर वाले जाल में फँसते हैं जबकि यह सब सेटल मैटर है वे क्यों चुनावी पराजय के बाद भी जाति का राग आलाप रहे हैं जबकि दलित-पिछड़ा-महिला विरोधी होकर भी भाजपा और संघ इन समूहों में अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं आर्थिक नीतियों के सवाल को राहुल क्यों अडानी तक सीमित कर रहे हैं। क्या यह सिलसिला मनमोहन राज में शुरू नहीं हुआ था और पिछड़ों के मामले में कांग्रेस का रिकार्ड क्या है
सिर्फ रिकार्ड ही रोक सके ऐसा भी नहीं है लेकिन सिर्फ जुबानी जमाखर्च से पिछड़ा-दलित-आदिवासी आपके पीछे गोलबंद हो जाएँ, यह भी संभव नहीं है। और सबसे बढ़कर यह है कि राहुल छोटी-छोटी सफलताओं से इतना इतराते क्यों हैं (हालांकि बड़ी से बड़ी पराजय की परवाह न करके आगे बढ़ाना उनका गुण है)। संसद में एक अच्छा भाषण देकर अपने दोस्तों को आँख मारना या अमेरिका यात्रा में भारत में एजेंडा सेटिंग का दावा करना ऐसे ही मामले हैं। जाहिर है उनके करीब जमा बैठा दल उनसे काफी कुछ ऐसा करा रहा है जो उनको नहीं करना चाहिए। ऐसे में उनको भाजपा/संघ परिवार के साथ लड़ने, इंडिया गठबंधन के दबावों को साधने और पार्टी संगठन में अपने आसपास घेरेबंदी करने वाले जमात से एक साथ लड़ाई करनी होगी।