गुजरात से कांग्रेस के कायाकल्प का दुस्साहसिक बिगुल बज गया है । यह दुस्साहस इसलिए स्वागत योग्य है क्योंकि यह राज्य लम्बे समय से संघ परिवार की हिंदुत्व -प्रयोगशाला बना हुआ है. इसी प्रयोगशाला के रसायन से तैयार नरेंद्र दामोदरदास मोदी और अमित शाह की भाजपा ने दिल्ली -सिंहासन को जीता है. मोदी+शाह मांद में 140 साल पुरानी कांग्रेस ने अपने कायाकल्प का संकल्प और भाजपा को सत्ता- बेदख़ल करने का बीड़ा उठाया है. निश्चित ही यह क़दम काफी जोखिमभरा है. लेकिन, कांग्रेस का स्वतंत्रता प्राप्ति का अभियान भी इसी राज्य से शुरू होता है.
1925 में इसी राज्य में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था , जिसके अध्यक्ष बने थे मोहनदास करमचंद गांधी। गांधी जी के बहु आयामी विराट नेतृत्व में चला यह अभियान 15 अगस्त, 1947 को परवान चढ़ा और स्वतंत्रता प्राप्त की. इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस के कायाकल्प अभियान को ऐतिहासिक ही कहा जायेगा।
पिछले एक दशक से जारी राजनैतिक नैतिकता और लोकतान्त्रिक संस्थाओं के पतन -काल में इस अभियान को ‘पुनर्जागरण अभियान’ कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस के उभरते सितारे राहुल गांधी ने सत्ता -प्राप्ति की जगह विचारधारा – जंग का बिगुल बजाय है. वे भारत जोड़ो यात्रा से लेकर गुजरात तक उनका एक ही मंत्र रहा है : विचारधाराओं का संघर्ष; भारत की सनातनी हिन्दू संस्कृति ‘समावेशी’ रही है, जिसे संघ परिवार ने ‘विभाजनकारी-विघटनकारी’ की शक्ल दे दी है.
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ‘ मैं हिन्दू हूं, बहुसंख्यक हिन्दू हैं’, लेकिन हिंदुत्व हमारा समावेशी हिन्दू धर्म नहीं है. यह कह कर राहुल गांधी ने संघ परिवार को कटघरे में खड़ा कर दिया और उसे निहत्था करने करने की दिशा में सुदृढ़ क़दम बढ़ाया. संक्षेप में, संघ के हिन्दू धर्म( उर्फ़ हिंदुत्व) के कवच को छीनने का प्रयास है. इससे पहले के कांग्रेस अधिवेशनों में इतने हमलावर स्वर नहीं रहे हैं. लेकिन, कांग्रेस के काया कल्प के लिए राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिका अर्जुन खड़गे को संगठन में ‘मेजर सर्जिकल स्ट्राइक’ करनी पड़ेगी.
नेहरू -काल में कामराज- प्लान लाया गया था और पुनर्गठन का सिलसिला चला था. राहुल गांधी ने कांग्रेस में छद्म या विभक्त वफ़ादारी वाले नेताओं की बात उछाली है. इन तत्वों की पहचान और निष्कासन का काम आसान नहीं है. कांग्रेस आलाकमान में विभक्त वफ़ादारी तत्वों को चिन्हित करने का दम होना चाहिए. कांग्रेस के ‘खुर्रांट नेता’ शिखर से लेकर ज़िला बुर्ज़ों तक बरसों से बैठे हुए हैं.कांग्रेस संगठन और सरकार में रहते हुए इन खुर्राटों ने धाप कर कमाने -खाने-पीने के बावज़ूद अब भी ये ‘जोंक’ बने रहना चाहते हैं। विभक्त वफ़ादारी के साथ दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं. ऐसा तत्वों से पिंड छुड़ाना कांग्रेस आलाकमान के लिए चुनौतीपूर्ण रहेगा. आलाकमान अपनी लाचारी को मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा सहित कई राज्यों में उजागर भी कर चुका है. इस दफा वह कितना साहस दिखा पाता है, इसे देखना शेष है.
इस पत्रकार ने कांग्रेस को 1967 से कवर किया है. इसका आत्मघाती विभाजन, शासक दल के रूप में पुनर्जन्म, जय -पराजय का लम्बा सिलसिला और लम्बे सत्ता वनवास को देखा है. 1967 में कांग्रेस ने डॉ. राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद का सामना किया और उत्तर नेहरू-काल में कई प्रदेशों से इसका सफाया भी हुआ, गैर- कांग्रेसी सरकारें सत्ता में आईं थी.
1967 में मध्य प्रदेश में द्वारिका प्रसाद मिश्र की सरकार का पतन हुआ था और गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार अस्तित्व में आई थी. इस पत्रकार ने जनसंघ की उभरती नेत्री विजयराजे सिंधिया का काल देखा और कांग्रेस की उत्तरोत्तर पतली हालत को भी देखा. आज़ादी के बाद 1968 -69 में कांग्रेस का बिखरना शुरू हुआ था ; एक धड़े (संगठन कांग्रेस ) का नेतृत्व तत्कालीन अध्यक्ष निजलिंगप्पा कर रहे थे, और दूसरे धड़े ( नई कांग्रेस या इंदिरा कांग्रेस ) का नेतृत्व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के पास था.
कांग्रेस के इतिहास में शायद यह पहला अवसर था जब प्रधानमंत्री ने अपने ही दल के राष्ट्रपति उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को ‘अंतरात्मा की आवाज़’ का नारा देकर हरवा दिया, और उनके स्थान पर निर्दलीय उम्मीदवार वी.वी. गिरी को राष्ट्रपति बनवा दिया था. उस समय भी कांग्रेस में मौज़ूद दक्षिण पंथ और मध्यम मार्गी वाम पंथ के बीच वैचारिक संघर्ष चला था. संघर्ष के परिणाम निकले: बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के विशेषाधिकारों की समाप्ति ( प्रिवी परसेज़ ) और कांग्रेस का शिखर से लेकर ब्लॉक स्तर तक विभाजन.
1969 के दिसंबर मास में संगठन या पुरानी कांग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ था, और नई कांग्रेस या विभाजित इंदिरा कांग्रेस का अधिवेशन मुम्बई में हुआ. इस पत्रकार ने मुंबई -अधिवेशन को कवर किया था. वहीं समाजवाद और मिश्रित अर्थव्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता को दोहरा गया था. तबकी कांग्रेस में प्रेसर ग्रुप के तौर पर ‘कांग्रेस फोरम फॉर सोशलिस्ट एक्शन’ काफी सक्रिय था. इस मंच पर कृष्णकांत, अर्जुन अरोड़ा, रघुनाथ रेड्डी, अमृत नाहटा, चंद्र जीत यादव, शशि भूषण जैसे नेता सक्रिय थे.
चंद्र शेखर, मोहन धारिया जैसे नेताओं का ‘युवा तुर्क’ का एक अलग मंच था. इन मंचों पर जम कर वैचारिक संवाद हुआ करते थे. प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मर्ज़ी के खिलाफ युवा तुर्क चंद्रशेखर ने केंद्रीय चुनाव समिति ( शिमला अधिवेशन ) का चुनाव जीता था. इंदिरा गांधी की अल्पमतीय सरकार को वामपंथियों और समाजवादी सांसदों का समर्थन प्राप्त था. संगठनकांग्रेस ( निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष आदि ) , जनसंघ जैसी दक्षिण पंथी पार्टियों की चुनौती के बावज़ूद इंदिरा -सरकार 1971 के मध्यावधि लोकसभाई चुनाव में उतरी और 350 + सीटों के साथ धमाकेदार सत्ता में वापसी की थी. घटनाओं के सन्दर्भ इसलिए दिए गए हैं क्योंकि राहुल गांधी हर मंच पर विचारधाराओं की लड़ाई का बिगुल बजाते चले आ रहे हैं.
कांग्रेस में विभाजन की आहटें जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के नारे के साथ भी शुरू हुई थीं; चंद्रशेखर, मोहनधारिया और अन्य नेता इंदिरा- विरोध में खड़े हो गए थे. इमरजेंसी के दौरान जेल भी गए. 1977 में जनता पार्टी के शासन के समय बाबू जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे नेताओं ने बगावत कर एक अलग पार्टी बनाई थी : दी कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी। दोनों नेता मोरारजी देसाई -सरकार में शामिल भी हुए थे. लेकिन, जनता पार्टी की सरकार का प्रयोग नाकाम रहा क्योंकि धुर विरोधी विचारधाराओं का बेमेल जमावड़ा था; एक तरफ बागी कांग्रेस, समाजवादी, मध्यम मार्गी, और दूसरी तरफ चरम दक्षिण पंथी ( अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख आदि ) थे.
विचारधाराओं के साथ साथ महत्वाकांक्षाओं ( जगजीवनराम बनाम चौधरी चरण सिंह ) की चरम जंग भी चली. नतीज़तन, मध्यावधि चुनाव हुए और इंदिरा गाँधी की फिर से धमाके दार ( 1980 ) सत्ता- वापसी हुई थी. बेमेल विचारधाराओं के सत्ता रसायन का प्रयोग बुरी तरह नाकाम रहा और इंदिरा गाँधी की मध्यम मार्गी विचारधारा की जीत हुई थी. लेकिन,इंदिरा गाँधी के इस दौर में 1969 – 77 की प्रतिबद्ध मध्यमार्गी वामपंथी धारा शिथिल व लुप्त होती चली गई.
राजीव गांधी -शासन में भी कांग्रेस में बगावत हो चुकी है. प्रणब मुखर्जी ने विद्रोह कर अलग से पार्टी बनाई थी, लेकिन जल्दी ही लुप्त हो गई. इसके पश्चात, नरसिंघ राव के दौर ( 1991 -96 ) में भी अर्जुन सिंह , नारायण दत्त तिवारी, नटवर सिंह आदि ने कांग्रेस आलाकामन से विद्रोह कर एक पार्टी बनाई थी : अखिल भारतीय इंदिरा कांग्रेस ( तिवारी ). लेकिन, यह विभाजन भी जल्दी ही फुस फुस हो गया. इसके बाद सीताराम केसरी को जबरन कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था. 2004 से ‘14 तक का ही ऐसा काल रहा है जब कांग्रेस को किसी बड़ी बगावत या विभाजन का सामना नहीं करना पड़ा. लेकिन, पिछले दस सालों में कांग्रेस के कई मझौले दिग्गज (हरियाणा, असम, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश , पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, गोवा आदि प्रदेशो में ) भाजपा की वाशिंग मशीन में धुल कर केसरिया पोशाकधारी बन चुके हैं।
शायद यह पहला अवसर जब कांग्रेस संसद में विपक्ष और तीन राज्यों में सत्ताधारी है. उसका मुक़ाबला संघ+ भाजपा की बहु आयामी विराट संवैधानिक व संविधानेतर शक्तियों के साथ है. सत्ता में रहने के लिए संघ परिवार और मोदी सरकार किसी भी हद तक जा सकते हैं, अपने किसी भी विरोधी को राष्ट्र विरोधी -राज्य विरोधी, अर्बन नक्सल, पाकिस्तान परस्त, आतंकवादी, हिन्दू विरोधी, मुस्लिम परस्त, काला धन शोधक सहित कुछ भी घोषित कर सकते हैं.
संघ के बहुभुजाई परिवार के निशाने पर सिर्फ गाँधी परिवार है. इसकी वज़ह है कि इस परिवार ने कांग्रेस को एकजुट बनाये रखा है. इस परिवार की अनुपस्थिति में कांग्रेस बिखर जाएगी या अपंग बन जाएगी.कुछ वर्ष पहले कांग्रेस मुक्त भारत का नारा उछला भी था. लेकिन, राहुल ने शतरंज के खेल को बिगाड़ दिया. राहुल को ‘पप्पू’ बनाये रखने की योजना भी नाकाम रही. मोदी -सरकार कई मोर्चों पर ‘एक्सपोज़’ हो चुकी है और सरकारी संस्थाओं ( चुनाव आयोग, केंद्रीय जाँच ब्यूरो, ईडी आदि ) का असली चरित्र भी उजागर हो चुका है ।
आला अदालत की फटकारें पड़ चुकी हैं. लेकिन, संघ परिवार अपने शताब्दी वर्ष में मोदी-सरकार को कमज़ोर होने देगा, सम्भव दिखाई नहीं देता है. इसलिए, कांग्रेस नेतृत्व ( खड़गे,सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी आदि ) की राह बेहद कंटीली है. इस वर्ष के अंत में बिहार का चुनाव है, अगले वर्ष पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों के चुनाव हैं. इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका कैसी रहेगी, यह सवाल भी पेचीदा है क्योंकि केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस और अन्य घटकों ( तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा ) के बीच सीधी टक्कर है.
कई कांग्रेस -संगठन लचर हालत में या राम भरोसे है. क्या आला कमान के पास कांग्रेस का आमूलचूल कायाकल्प करने के लिए इच्छा शक्ति और सामर्थ्य है याद रहे, वर्तमान आलाकमान के पास इंदिरा गांधी जैसा बहुआयामी रणनीतिज्ञ नहीं है. राहुल के पास ठोस विचार, ईमानदारी और साफ़ दृष्टि हैं , लेकिन वे अचूक रणनीति से लैस नहीं हैं. विरोधी की हर बुर्ज़ पर तैनात शकुनि है, लेकिन क्रीड़ा में राहुल की ‘ युधीष्ठिर शैली’ है. कांग्रेस को इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखना होगा.