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    Home » गरीबी में सिलिको ट्यूबरक्लोसिस से लड़ रहे गंज बासौदा के खदान मज़दूर
    ग्राउंड रिपोर्ट

    गरीबी में सिलिको ट्यूबरक्लोसिस से लड़ रहे गंज बासौदा के खदान मज़दूर

    Janta YojanaBy Janta YojanaJuly 28, 2024Updated:August 11, 2024No Comments10 Mins Read
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    विदिशा ज़िले के कुचोली गाँव में रहने वाले मानसिंह (55) बीते एक साल से बेरोज़गार बैठे हुए हैं. इससे पहले वह अपने गाँव के पास स्थित पत्थर की खदान में ड्रिलिंग का काम करते थे. मगर काम करते हुए साँस भर आने और लगातार खाँसी चलने के कारण बीते एक साल से उन्होंने काम करना पूरी तरह बंद कर दिया है. 

    मानसिंह 5 साल पहले टीबी के लिए पॉजिटिव पाए गए थे. इस दौरान उन्होंने भोपाल के एक निजी अस्पताल में अपना इलाज करवाया. 3 महीने में आराम मिलने के बाद उन्होंने दवा खाना बंद कर दिया. 

    “3 महीने में मेरे 8-10 हज़ार रूपए दवा करवाने में खर्च हो गए थे. मुझे आराम भी मिल गया था और पैसे भी ख़त्म हो गए थे इसलिए 3 महीने के बाद मैंने दवा खाना बंद कर दिया.”

    वह आगे बताते हैं कि 3 महीने के बाद उनकी खाँसी पहले की अपेक्षा कम ज़रूर हुई थी, पूरी तरह बंद नहीं हुई थी. मगर पैसों की कमी के चलते उन्होंने नियमित दवा लेना बंद कर दिया. नतीजतन उन्हें कुछ महीने बाद ही वापस टीबी हो गई. 

    कुचौली में मानसिंह अकेले टीबी के मरीज़ नहीं हैं. गाँव में एक पत्थर की बेंच पर बैठकर जब हम उनसे उनकी समस्या सुन रहे थे तब एक के बाद एक कई मरीज़ हमें आकर अपनी समस्या बताने लगते हैं. 

    इन मरीज़ों की उम्र, कद, और रंग भले ही अलग-अलग है मगर एक चीज़ जो एक जैसी है वह यह कि ये सभी पास स्थित पत्थर खदान में या तो काम कर रहे हैं या फिर पहले काम कर चुके हैं. असल में इन सभी के जीवन में पत्थर ही पत्थर हैं. 

    कुचोली गांव में लोगों के घरों की छत और दीवार खदान के इस पत्थर से ही बनी हैं, गर्मी में ये घर बहुत गर्म हो जाते हैं जिसकी वजह से इनमें रहना मुश्किल हो जाता है। लेकिन गांव में दलित बस्ती में ज्यादातर लोगों को पीएम आवास अभी तक नहीं मिला है। 

    इनके घरों की छत में कबेलू (खपरैल) की जगह पत्थर बिछे हुए हैं. घरों की दीवारों को ईंट से ज़्यादा पत्थरों से बनाया गया है. मगर इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि यह लोग काम करते हुए जिस हवा में सांस लेते हैं उसमें में पत्थर मौजूद है. 

    यहाँ एक मरीज़ ऐसा भी है जिसके पूरे परिवार को पत्थर की बीमारी लील गई. अपनी भी उसी गति का इंतज़ार कर रहा यह शख्स यह सब बताते हुए अपनी पथराई आँखों से हमारी चलती हुई कलम को देखता है. 

    यह तीसरी बार है जब मानसिंह को टीबी हुआ है. इसका कारण पूछने पर वो कहते हैं,

    “जब भी खदान में काम करने लगते तो फिर हो जाती है बीमारी.”

    दरअसल मानसिंह में सिलिको-ट्यूबरक्लोसिस (silico-TB) के लक्षण दिखाई देते हैं. यानि उन्हें सिलिकोसिस और टीबी दोनों बीमारियाँ मिले-जुले तरीके से हैं. यह बीमारी सिलिका डस्ट के कणों के शरीर के अन्दर जाने से होती है. 

    सिलिको ट्यूबरक्लोसिस

    वैज्ञानिक भाषा में समझें तो पैथोफिज़ियोलॉजी से पता चलता है कि सिलिका कण Th2 कोशिकाओं और M2 मैक्रोफेज को उत्तेजित करते हैं. जिससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली ख़राब होती है और टीबी बढ़ता है. जबकि Th1 कोशिकाओं और M1 मैक्रोफेज को बाधित करते हैं, जो रोग के खिलाफ लड़ते हैं.

    टीबी के लिए तैयार की गई राष्ट्रिय रणनीतिक योजना (NSP for TB 2017-25) के अनुसार 2025 तक देश से पूरी तरह टीबी उन्मूलित करने का लक्ष्य रखा गया है. जबकि इसके लिए वैश्विक लक्ष्य 2030 रखा गया है. 

    पत्थर की खदानों में काम करने वाले मजदूरों में सिलिकोसिस होने कि सम्भावना ज़्यादा होती है. उपरोक्त योजना से सम्बंधित दस्तावेज़ में भी बताया गया है कि सिलिकोसिस से पीड़ित व्यक्ति टीबी के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होता है.

    मानसिंह अपना घर दिखाते हुए, उन्हें अभी तक पीएम आवास का लाभ नहीं मिला है, वो अपने 7 सदस्य के परिवार के साथ इस कच्चे घर में रहते हैं। 

    यानि मानसिंह जैसे लोग सिलिकोसिस और टीबी दोनों बिमारी के ख़तरे के सबसे करीब हैं. एक अध्ययन के अनुसार साल 2025 तक भारत के 52 मिलियन कामगार सिलिका डस्ट के सीधे संपर्क में आने के ख़तरे के करीब होंगे. यह अनुमान भारत की 2025 तक टीबी को उन्मूलित करने के लक्ष्य को शंका में डाल देता है. 

    गरीबों को और अधिक गरीब बना रही है टीबी की बीमारी

    मानसिंह बताते हैं कि जब उन्हें पहली बार टीबी हुई तब वह दवा लेते हुए भी खदान में काम कर रहे थे. इससे उनकी खाँसी बढ़ जाती. मगर आर्थिक विपन्नता के आगे यह तकलीफ़ बौनी थी. वह अपनी मजबूरी बताते हुए कहते हैं,

    “काम पे न जाते तो पैसा कहाँ से आता? हफ्ता भर कमाते थे तब तो दवा ख़रीद पाते थे.”

    मानसिंह के पास 3 बीघा पट्टे की ज़मीन भी है. वह इसमें खेती करते हैं. मगर खेत में कोई पानी का साधन न होने के कारण वह केवल मानसून की फ़सल ही ले पाते हैं. वह कहते हैं कि इस खेत से साल भर परिवार का पेट नहीं पाला जा सकता.

    मानसिंह के 2 बेटे भी अब उन्हीं पत्थरों की खदान पे काम करते हैं. उन्हें डर है कि उनके बेटों को भी यह बिमारी पकड़ लेगी. मगर यह डर भी आर्थिक ज़रूरतों से बड़ा नहीं है इसलिए वह हताशा के साथ कहते हैं,

    “यहाँ कोई और धंधा ही नहीं है. वही पत्थर की खदान हैं. वहीं पे या तो ट्रैक्टर भरने का काम करो या फिर पत्थर तोड़ने की मज़दूरी करो. डर तो लगता है मगर मजबूरी है क्या करें?”

    मानसिंह की ढाल बना उनका परिवार

    मानसिंह की पत्नी ललिता बाई अपनी समस्या बताते हुए

    मानसिंह की इस मजबूरी को उनके अतीत के सहारे समझा जा सकता है. उनकी पत्नी ललिता बाई (48) पुराने दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि 4 साल पहले जब उन्होंने बिमारी के चलते काम करना कुछ दिनों के लिए बंद किया था तब घर चलाना बेहद कठिन हो गया था. 

    ललिता कहती हैं

    “जब हमें पता चला कि उन्हें टीबी है तो ऐसा लगा कि अब हमारा क्या होगा. नाते रिश्तेदारों ने हाल चाल पूछना तक बंद कर दिया था. हमारे साथ कोई नहीं खड़ा था. यहां खदान के अलावा कमाई का कोई ज़रिया नहीं है. बेटियों को मैं खदान कैसे भेज सकती थी. हमने बहुत कठिन हालात में भी इनका पूरा ध्यान रखा है.”

    ललिता बताती हैं कि उनका बड़ा बेटा इंदौर में मज़दूरी कर घर के खर्च में थोड़ी मदद करता है और थोड़ी बहुत आय खेती से हो जाती है. वो किराने की दुकान से दूध और ज़रुरत का राशन उधार लेकर आती हैं और फसल आने पर साल या 6 महीने में उधार चुकाती हैं.

    मान सिंह कहते हैं कि बीमारी के चलते उनके बच्चे पांचवी के बाद की पढ़ाई नहीं कर पाए, इतना पैसा नहीं था कि वे गांव से बाहर जाकर पढ़ सकते. गांव का स्कूल पांचवी तक था लेकिन वहां भी पढ़ाई न के बराबर हुए। उनकी बीमारी का असर उनके बच्चों के भविष्य पर पड़ा.

    सरकारी आँकड़ों में भारत की 18 प्रतिशत जनता बीमारियों के चलते आर्थिक संकट का सामना करती है. वहीं टीबी के मरीज़ की बात करें तो 7 से 32 प्रतिशत (पेज 16, TB Report 2023) दवा संवेदनशील टीबी (DS-TB) के मरीज़ इस आर्थिक संकट का सामना करते हैं. वहीं दवा रोधी टीबी (DR-TB) के 68 प्रतिशत मरीज़ आर्थिक संकट झेलते हैं. 

    विदिशा ज़िले की 37.4 प्रतिशत जनसंख्या ग़रीबी रेखा के नीचे निवास करती है. मगर ललिता बाई अपने पति के स्वास्थ्य के प्रति बेहद संजीदा हैं. यही कारण है कि उन्हें इन तमाम आँकड़ों का ख्याल कम है. वह आर्थिक विपन्नता के उस भीषण दौर को याद करते हुए कहती हैं,

    “फिर भी हमने उन्हें दाल-दलिया खिलाया है.”

    अंधविश्वास में गंवाए पैसे

    मान सिंह बताते हैं कि उन्हें टीबी की दवा खाने पर बार बार उल्टी होती थी, शरीर में गर्मी भी बढ़ जाती थी. बेटी की शादी में उन्हें बहुत ज्यादा घबराहट हुई तो लोगों ने पूजा करवाने को कहा. इस विशेष पूजा के लिए उन्होंने 5 हज़ार रुपए खर्च किये. बाबा ने उन्हें कहा कि अब वो दोबारा अपनी दवा खाएं, वो ठीक हो जाएंगे. 

    मान सिंह की पत्नी कहती हैं

     “पूजा के बाद उन्हें दवा सूट हो गई थी और आराम भी लग गया था.”

    टीबी का इलाज लंबा चलता है, ऐसे में मरीज़ बीच में ही धैर्य खोने लगते हैं और बाबा, तांत्रिक और अंधविश्वास की चपेट में आने लगते हैं. मरीज़ों को शुरुवात में दवाई खाने पर कई तरह के रीएक्शन होते हैं जैसे उल्टी होना, घबराहट होना ऐसे में उन्हें लगता है कि यह दवाई की वजह से हो रहा है और वे दवा खाना बंद कर देते हैं. अगर उन्हें चिकित्सक शुरु में ही सही सलाह दें तो इस तरह की गलतफहमी से बचा जा सकता है. 

    खदान में खपती ज़िंदगी

    गर्मियों में यहां जल स्रोत सूख जाते हैं और लोगों को 2-3 किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ता है। यहां हर घर नल से जल अभी केवल नारा ही है।

    कुचोली गांव में लोगों के पास अवैध खदान में काम करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प मौजूद नहीं है. खेत में भी पत्थर ही पत्थर हैं जिसकी वजह से कोई फसल अच्छे से नहीं होती। गर्मियों में यहां जल संकट गहरा जाता है. 

    प्रसून नामक स्वयंसेवी संस्था इस क्षेत्र में सन 1984 से कार्य कर रही है. इससे जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता प्रमोद पटेरिया के अनुसार यहां खदान में काम करने की वजह से लोग सिलिकोसिस से पीड़ित हैं लेकिन इन लोगों को टीबी का ही इलाज दिया जा रहा है. पटेरिया कहते हैं

    “सरकार ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि अगर उन्होंने इन मरीज़ों को सिलिकोसिस का मरीज़ बताया तो मुआवज़ा देना होगा और यहां चल रही अवैध खदानों का भेद सामने आ जाएगा.”

     

     

    2019 में दुनिया भर में सिलिकोसिस के 2.65 मिलियन केस दर्ज किए गए थे. अनुमान के अनुसार दुनिया के 227 मिलियन कामगार इस बिमारी की चपेट में आने के ख़तरे से जूझ रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका में हुए एक अन्य अध्ययन के अनुसार सिलिका युक्त धूल के संपर्क में आने के 8 साल के भीतर ही किसी भी कामगार को टीबी हो सकता है.

    मगर भारत में सिलिकोट्यूबरक्लोसिस के मरीज़ों से सम्बंधित कोई भी सरकारी आँकड़ा सार्वजनिक मंच पर उपलब्ध नहीं है. वहीं टीबी की बात करें तो विदिशा ज़िले और गंजबासौदा ब्लॉक में इसके केस घटते हुए दिखते हैं. सन 2021 में 2550 केस नोटीफाय हुए थे. जबकि इस साल जुलाई तक यहाँ 1553 केस नोटीफाय हुए हैं. वहीँ गंजबासौदा ब्लॉक के लिए यह आँकड़ा क्रमशः 602 और 251 है. 

    मानसिंह की पत्नी ललिता कहती हैं कि सरकार हमारी बस इतनी मदद करदे कि हमें एक पीएम आवास दे. बारिश में हमारे घर में पानी भर जाता है.

    कुचौली गांव में राशन के अलावा पीएम आवास और नल-जल जैसी योजनाएं भी नदारद दिखती है. निक्षय पोषण योजना और निक्षय मित्र जैसे टीबी उन्मूलन कार्यक्रम का लाभ भी कई मरीज़ों को अभी तक नहीं मिला है. ज़रुरत है कि यहां ये योजनाएं जल्द पहुंचाई जाएं क्योंकि यह बीमारी यहां के लोगों को और अधिक गरीबी की ओर धकेल रही है.

    यह आलेख रीच मीडिया फैलोशिप 2024 के तहत लिखा गया है.

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