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    Home » गांधी की हत्या के कलंक के साथ कैसे जी रहा है गोडसे-सावरकर परिवार?
    भारत

    गांधी की हत्या के कलंक के साथ कैसे जी रहा है गोडसे-सावरकर परिवार?

    Janta YojanaBy Janta YojanaMay 31, 2025No Comments24 Mins Read
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    इन दिनों राहुल गांधी के विरुद्ध दायर सात्यकी सावरकर के मुक़दमे से जुड़े विवाद के चलते गोडसे और सावरकर परिवारों पर नये सिरे से चर्चा हो रही है। इसमें गांधी जी के हत्यारे नथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे और गोपाल की बेटी हिमानी सावरकर को लेकर भी चर्चा हो रही है!

    अक्टूबर, 2004 में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने गोपाल गोडसे और हिमानी सावरकर से लंबी बातचीत की थी। वे दोनों इंटरव्यू हिंदी के एक प्रमुख अख़बार में छपे। वर्षों बाद 2022 में लेखक ने महाराष्ट्र की अपनी यात्रा डायरी से निकालकर उक्त दोनों साक्षात्कारों, गोडसे-सावरकर परिवार के सम्बन्धों और उस दौर के समाज व राजनीति में उनकी भूमिका पर विस्तार से संस्मरणात्मक यात्रा-वृत्तांत लिखा था, जो उनकी किताब ‘मेम का गाँव गोडसे की गली’(2022) में संकलित है। पेश है, उसी आलेख का महत्वपूर्ण हिस्साः

    सावरकर और गोडसे की तंग गलियों में

    एक पत्रकार को कई बार अपना कार्यक्रम दूसरों के हिसाब से तय करना होता है। कई बार वह बहुत प्रिय और रुचिकर लोगों के बीच होता है तो अनेक बार बेहद अप्रिय लोगों और स्थितियों से भी उसका सामना होता है। अब आज ही देखिये, पुणे में मुझे तीन लोगों से मिलना है। दो लोगों से सुबह का वक़्त तय है और तीसरे से लंच के बाद का। दो लोग रूचिकर हैं- एक श्रमिक नेता हैं और दूसरे सज्जन महाराष्ट्र की राजनीति को अच्छी तरह समझने वाले बुद्धिजीवी हैं। इन दोनों से बातचीत कर जल्दी ही मुझे एक बहुत ज़रूरी जगह पहुँचना है, जहाँ पहले से एक इंटरव्यू तय कर रखा है। आज की मेरी तीनों मुलाकातों में यह सबसे महत्त्वपूर्ण है, जबकि वह व्यक्ति जिसका मुझे इंटरव्यू करना है, वह बिल्कुल ही रूचिकर या प्रिय नहीं है। पर मेरे पत्रकार के लिए वह आज ‘वीआईपी’ है। हो सकता है, मेरी इस महाराष्ट्र-यात्रा का यह सबसे महत्त्वपूर्ण और यादगार इंटरव्यू बने। इस व्यक्ति का इंटरव्यू तय करने के लिए मैंने कई-कई बार फोन किये। कल मुझे सातारा और सांगली की तरफ़ निकलना है। इसलिए पुणे का सारा काम आज देर शाम तक ख़त्म कर लेना चाहता हूँ। आज की पहली और दूसरी मुलाकातों के बीच तकरीबन एक घंटे का वक़्त है। दोनों के घरों के बीच दूरियाँ भी ज़्यादा नहीं हैं। हम आसानी से दूसरे व्यक्ति के यहाँ पहुँच जायेंगे। 

    होटल से नाश्ते के बाद हम जल्दी ही निकल गये। पूर्व-निर्धारित दोनों मुलाकातें ठीक-ठाक रहीं। …थोड़ी देर बाद फिर हम पुणे के एक मशहूर इलाक़े की तरफ़ निकल पड़े, जहाँ बेहद ख़ास व्यक्ति से हमारी मुलाकात होनी है। हमें अपने गंतव्य तक पहुँचने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। इस इलाक़े का नाम है- शनिवार पेठ। बाजीराव-1 के पेशवाई-राज के दौरान पुणे के बड़ा शहर या सांस्कृतिक-राजनीतिक केंद्र बनने के पहले भी शनिवार पेठ एक क़स्बा या वार्ड के रूप में मौजूद था। बाजीराव ने सन् 1728 में अपने शासन का केंद्र पुणे को बनाया। उससे पहले यहाँ छह पेठ (वार्ड) थे- कसबा, शनिवार, रविवार, सोमवार, मंगलवार और बुधवार। बाजीराव ने शनिवारवडा नाम से अपना महल भी इसी इलाक़े में बनवाया। तबसे पेशवा-राज के बड़े अधिकारियों और दरबारियों ने भी उसी इलाक़े में अपने-अपने आलीशान घर बनवाये। तब से शनिवार पेठ पेशवाई राज के रईस और पारंपरिक क़िस्म के ब्राह्मणों का इलाक़ा माना जाता रहा है।

    शनिवार पेठ की एक गली में हम आगे बढ़ते गये और एक मकान के सामने जाकर रुके। मुझे बताया गया था कि इलाक़े में किसी से नाम पूछ लीजियेगा, वह बता देगा। गली का यह सबसे मशहूर मकान था। मकान का नाम था- सावरकर भवन! मकान की बाहरी दीवार पर विनायक दामोदर सावरकर और नाथूराम गोडसे, दोनों के नाम दर्ज थे। मकान में रहने वाली हिमानी सावरकर सिर्फ़ सावरकर खानदान की बहू ही नहीं हैं, वह नाथूराम जिसे यहाँ सभी नथू राम गोडसे कह रहे थे, की अपनी भतीजी हैं। नथूराम के छोटे भाई गोपाल गोडसे की बेटी। उन्होंने पूछने पर स्वयं ही कहा, ‘‘हाँ, आपकी सूचना सही है, मैं गोपाल गोडसे जी की बेटी हूँ।’’ गोपाल गोडसे सिर्फ़ नथूराम का भाई ही नहीं, महात्मा गांधी की नृशंस हत्या का एक गुनहगार भी है। आरोपी नहीं, दोषी यानी आधिकारिक तौर पर वह गुनहगार साबित हुआ था! कोर्ट ने हत्या में गोपाल गोडसे की भूमिका के मद्देनज़र उसे सजा दी थी- उम्रक़ैद। हिमानी ने बताया, ‘‘उसके काका नथूराम चार भाई थे। उसके पिता गोपाल गोडसे के अलावा दो और भाई थे- दत्तात्रोय गोडसे और गोबिन्द गोडसे।’’ 

    मैंने उनसे पूछा, ‘‘आप भारत के दो ऐसे परिवारों से सम्बद्ध हैं, जिनकी पृष्ठभूमि बेहद विवादास्पद है- एक तो गांधी जी के हत्यारे का परिवार और दूसरा हत्यारे को राजनैतिक-वैचारिक तौर पर दीक्षित करते रहने वाले और अंग्रेज़ी हुकूमत से माफी माँग कर जेल से बाहर आने वाले विवादास्पद व्यक्ति का परिवार है। स्वयं वी डी सावरकर भी गांधी हत्याकांड के एक आरोपी थे जो साक्ष्यों की कमी से छूटे। ऐसे परिवारों से सम्बद्ध होने के नाते आप कैसा महसूस करती हैं? राजनीति में आपको किसी तरह की ख़ास समस्या आती है या निजी तौर पर कोई कोई ख़ास अनुभूति होती है?’’

    इससे पहले, पुणे के अतीत और मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य, पेशवा-राज और चितपावन ब्राह्मणों के इतिहास आदि जैसे विषयों पर भी उनसे सवाल पूछे थे। इससे उनको अंदाज़ ज़रूर हो गया था कि यह पत्रकार भले ही हिन्दी वाला उत्तर भारतीय है पर महाराष्ट्र की राजनीति और इतिहास को थोड़ा-बहुत जानता है या कम से कम कुछ पढ़कर आया है। बीच में उन्होंने मुझसे पूछा भी, ‘‘आप महाराष्ट्र में भी काम करते हो या सिर्फ़ दिल्ली में?’’ मैंने बताया, ‘‘हम पत्रकारों को संस्थान समय-समय पर दिल्ली से बाहर भी भेजता रहता है। अभी यहाँ चुनाव की रिपोर्टिंग करने आया हूँ। लेकिन मेरी पोस्टिंग दिल्ली है।’’ 

    शनिवार पेठ और इस मोहल्ले की खासियत पर भी मैंने उनसे पूछा था। फिर उनकी पढ़ाई-लिखाई और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं पर पूछा। अब तक बहुत अच्छी तरह बातचीत चली थी। इसलिए शायद वह ऐसे ‘सीधे और अप्रिय’ सवाल की मुझसे अपेक्षा नहीं कर रही थीं। मेरे सवाल का तनिक सोचकर उन्होंने जवाब दिया, ‘‘मुझे गर्व है कि ऐसे परिवारों से जुड़ी हुई हूँ। इन परिवारों की देशभक्ति पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। आप अपनी ओर से और कुछ भी कह लें पर इन परिवारों के देश के प्रति समर्पण पर कोई सवाल नहीं कर सकते।’’ मैंने उनके जवाब से ही एक सवाल निकालते हुए पूछा, ‘‘लेकिन महात्मा गांधी या किसी भी व्यक्ति की हत्या का देशभक्ति से क्या रिश्ता हो सकता है हिमानी जी? ये तो सीधे-सीधे अपराध है। फिर देश के इतने बड़े नेता, जिसे राष्ट्रपिता कहा जाता है, उसकी हत्या क्या देश के विरूद्ध एक गंभीर षडयंत्र नहीं था? देश के ख़िलाफ़ इतने बड़े षडयंत्र को देशभक्ति कैसे कहा जा सकता है?’’ मेरे इस सवाल को सुनते ही हिमानी के पास बैठे एक व्यक्ति का चेहरा काफ़ी असहज और कठोर हो गया। शनिवार पेठ नामक गली के आख़िरी मकान के ड्राइंग रूम में मैं निपट अकेला बैठा था। गांधी जी की हत्या के षडयंत्र में सजा पा चुके गोपाल गोडसे की पुत्री से इंटरव्यू में इतना जोखिम तो लेना ही था!

    मैं स्वयं कभी गांधीवादी नहीं रहा। उनमें मुझे कभी अपना आदर्श या महानायक नहीं नज़र आया। पर इसमें क्या संदेह कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वह देश के सबसे प्रभावशाली नेता थे। उन जैसे बड़े नेता और शीर्ष स्वाधीनता सेनानी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ कहने वाली हिमानी जी को यूँ ही कैसे छोड़ता, उनसे सवाल तो करने ही थे! लेकिन सावरकर भवन के तमतमाये हुए माहौल को मुझे थोड़ा ठंडा भी करना था। अच्छी बात थी कि अपनी आदत के अनुसार हमारे ड्राइवर साहब गाड़ी बंद कर हिमानी सावरकर के मकान के बाहर ही मंडरा रहे थे। मुझे भरोसा था कि इंटरव्यू के दौरान मेरे साथ कुछ अप्रत्याशित होता है तो वह बाहर की दुनिया को ज़रूर सब कुछ बता देंगे! बीती रात भी देखा, मैं किसी कांग्रेसी नेता के यहाँ गया था तो वह सड़क किनारे गाड़ी लगाकर नेता जी के घर के सामने कुर्सी पर बैठे हुए चाय की चुस्की लगा रहे थे। शायद, यहाँ ‘चितपावन ब्राह्मण परिवार’ के सावरकर निवास में उन्हें चाय आॉफर नहीं हुई।

    अंदर हमारा इंटरव्यू-सत्र अपने सबसे नाजुक मोड़ पर था। मेरे सवाल के जवाब में हिमानी ने कहना शुरू किया, ‘‘नथूराम गोडसे ने जो कुछ किया, अपने दिमाग़ से किया। पैसा लेकर उन्होंने गांधी का वध नहीं किया!’’ मैंने बीच में हस्तक्षेप किया, ‘‘हिमानी जी, मैं ये नहीं समझ पा रहा हूँ कि आप गांधी जी की नृशंस हत्या को ‘वध’ क्यों कह रही हैं? वध एक ख़ास संदर्भ और धार्मिक-पौराणिक आख्यान से जुड़ा शब्द है, जिसमें मारने वाला कोई पवित्र व्यक्ति होता है और मारे जाने वाला कोई अपवित्र या अपराधी क़िस्म का व्यक्ति।’’ हिमानी जी थोड़ी उलझन में नज़र आईं। शायद, उन्होंने अब से पहले ‘वध’ शब्द पर किसी की ऐसी आपत्ति नहीं सुनी थी। मेरी इस आपत्ति पर कुछ बोलने की बजाय वह कहने लगीं, ‘‘उस घटना के समय मैं एक साल की थी। पर मैं आज उसे ‘क्राइम’ नहीं मानती। कका नथू राम जी ने पैसे लेकर यह सब नहीं किया। देश के लिए किया और देश से बड़ा कोई नहीं होता। उनका कृत्य सही था या ग़लत, यह इतिहास तय करेगा।’’ बीच में मैने पूछा, ‘‘लेकिन हमारे देश का न्याय-विधान तय कर चुका है, वह एक जघन्य अपराध था। उसका देश और समाज के हित या सरोकारों से कोई रिश्ता नहीं था। वह सिर्फ़ एक ‘क्राइम’ था, बहुत बड़ा क्राइम। इसलिए नथूराम सहित दो को सजा-ए-मौत हुई। आपके पिता गोपाल गोडसे सहित शेष दोषियों को उम्र क़ैद। इतिहास में यह दर्ज हो चुका है। भारत क्या, पूरी दुनिया ने उसे एक षडयंत्र और नृशंस अपराध के रूप में ही देखा। आप इसे कैसे नज़रंदाज कर सकती हैं?’’ हिमानी ने कहा, ‘‘वह कोर्ट ने तय किया, इतिहास ने नहीं। इतिहास तय करेगा, क्या सही था, क्या ग़लत। शायद पचास साल और लगें!’’ हिमानी का वह वाक्य वर्षों बाद आज मुझे डरा रहा है। अभी देखता हूँ तो मेरठ से अलवर और दिल्ली से भोपाल तक उग्र-हिन्दुत्ववादियों के खेमे गोडसे को महिमामंडित करने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं। हालात इतनी तेज़ी से बदशक्ल हो रहे हैं कि नथूराम गोडसे को देशभक्त बताने वाले कुछ तत्वों को आज निर्वाचित होकर भारतीय संसद में आने का मौक़ा तक मिल जा रहा है!

    मैं चाहता तो हिमानी सावरकर को परेशान करने वाला एक और बड़ा सवाल ‘बाबा सावरकर’ (वी डी सावरकर के बड़े भाई) के बारे में भी पूछ सकता था। लेकिन मुझे उस समय बाबा सावरकर से जुड़े उक्त प्रसंग के सारे तथ्य ठीक से याद नहीं आ रहे थे। कई साल पहले मैंने सुप्रसिद्ध लेखक और स्वाधीनता सेनानी यशपाल की पुस्तक ‘सिंहावलोकन’ में कहीं पढ़ा था कि वी डी सावरकर के बड़े भाई, जिन्हें स्वाधीनता सेनानियों के बीच ‘बाबा सावरकर’ कहा जाता था, ने यशपाल सहित कुछ क्रांतिकारियों को रिश्वत या फिरौती देकर उनसे मोहम्मद अली जिन्ना की हत्या कराना चाहा था। उन दिनों यशपाल हिन्दोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) से जुड़े हुए थे। बाबा सावरकर से युवा क्रांतिकारी यशपाल और भगवती चरण वोहरा की पहली मुलाकात दिल्ली स्थित ‘वीर अर्जुन’ अख़बार के दफ़्तर में हुई थी। यशपाल के मुताबिक दिल्ली की उसी मुलाकात में बाबा ने उन लोगों को किसी अन्य स्थान पर आकर मिलने को कहा। वह किसी ख़ास योजना पर बात करना चाहते थे। यशपाल के मुताबिक वह बाबा सावरकर के आमन्त्रण पर उनसे मिलने अकोला गये। उस मुलाकात में बाबा सावरकर ने जिन्ना को मार डालने के एवज में क्रांतिकारियों को 50 हज़ार रुपये दिलाने का वादा किया।

    इस मुलाकात का जिक्र यशपाल ने अपनी किताब, ‘सिंहावलोकन’ में बहुत विस्तार से किया है। एक जगह वह लिखते हैं, ‘‘मिस्टर जिन्ना के सम्बन्ध में बाबा का प्रस्ताव ऐसी मामूली बात नहीं थी कि एक बार मुस्कराकर या उस पर त्योरियाँ चढ़ाकर टाल दिया जाता। वह संपूर्ण राष्ट्र की राजनीति पर बहुत गहरा प्रभाव डालने वाली बात थी। उसका मतलब शायद सैकड़ों-हज़ारों हिन्दू-मुसलमानों का पारस्परिक कत्ल होता। मैं ट्रेन में रात भर इसी बात पर विचार करता रहा। राष्ट्रीय एकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। विशेष चिंता की बात यह थी कि हिन्दू-मुसलमान वैमनस्य बढ़ता ही जा रहा था। दिल्ली लौटकर मैंने भगवती भाई और आज़ाद को बाबा सावरकर से भेंट का परिणाम सुनाया। जिन्ना साहब के सम्बन्ध में बाबा का प्रस्ताव सुन कर आज़ाद झुंझला उठे और बोले, ‘‘ये लोग क्या हमें पेशेवर हत्यारा समझते हैं!’’

    यशपाल न तो मामूली व्यक्ति थे और न कोई अनजान लेखक। वह हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक के अलावा एक विख्यात स्वाधीनता सेनानी, क्रांतिकारी और भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद की सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन से सम्बद्ध थे। उन्हें सन् 1970 में पद्मभूषण और फिर सन् 1976 में उनके उपन्यास ‘मेरी तेरी उसकी बात’ पर देश के प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया था। इसलिए बाबा सावरकर के बारे में उनके इस संस्मरण को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इतने वर्षों बाद इन पंक्तियों को लिखते समय आज सोचता हूँ, यशपाल ने जिस घटना का जिक्र किया है, उसमें बाबा सावरकर द्वारा व्यक्त विचार कितने भयानक थे और उन्हें अमलीजामा पहनाये जाने पर देश की स्थिति कितनी भयावह हो सकती थी! सोचिये, महात्मा गांधी की नृशंस हत्या करने वाला नथूराम गोडसे बाबा सावरकर के छोटे भाई वी डी सावरकर का वैचारिक शिष्य और अत्यंत करीबी था! जिस वक़्त मैं पुणे में हिमानी जी से बात कर रहा था, संयोगवश बाबा सावरकर प्रसंग और ‘सिंहावलोकन’ में दर्ज यशपाल जी के विवरण ठीक से याद नहीं आ रहे थे। विस्मृत-तथ्यों के चलते ही मैंने बाबा सावरकर के इस भयानक प्रसंग से जुड़ा कोई सवाल हिमानी जी से नहीं पूछा। प्रसंग बदलते हुए मैंने चुनाव पर उनकी राय लेनी शुरू की। मैने पूछा, ‘‘आप हिन्दू महासभा से चुनाव लड़ रही हैं। लेकिन यहाँ देख रहा हूँ कि आप कई तरह की संस्थाओं से भी जुड़ी लगती हैं। आपके यहाँ कई संगठनों के बोर्ड और पर्चे आदि हैं। आप किन-किन संगठनों के साथ हैं? क्या आपका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी रिश्ता है?’’ हिमानी ने कहा, ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राजनैतिक संगठन नहीं है। हिन्दू महासभा एक राजनीतिक संगठन है। यह सन् 1914 में ही बन गई थी। आरएसएस उसके बाद बना।’’ हिमानी ने बताया कि वह और उनके पति अशोक सावरकर, दोनों लंबे समय से हिन्दू महासभा के सदस्य रहे हैं। हिमानी से बातचीत के दौरान उनके ड्राइंग रूम में मुझे चार ही चित्र दिखे- एक विनायक दामोदर सावरकर की तस्वीर टंगी थी। दूसरी गणेश जी की और तीसरी सचिन तेंदुलकर की थी। एक और तस्वीर थी, जो बड़े आकार के फ्रेम में थी। वह विनायक दामोदर सावरकर के तीन भाइयों की थी। हिमानी ने बताया, ‘‘सावरकर-साहित्य का कॉपीराइट अब भी मेरे पास है। हिन्दी में सावरकर जी की कुल 10 पुस्तकें छपी हैं।’’ प्रकाशक के तौर पर उन्होंने दिल्ली के एक ऐसे प्रतिष्ठान का नाम लिया, जो आमतौर पर दक्षिणपंथी विचारों या सत्ता से जुड़े लोगों की किताबें छापने के लिए जाना जाता है।

    हिमानी सावरकर जिस चुनाव-क्षेत्र से प्रत्याशी के तौर पर लड़ रही हैं, उसका नाम है- कसबापेठ। उनके लिए हिन्दू महासभा, अभिनव भारत और सनातन संस्था जैसे विवादास्पद कट्टर हिन्दुत्ववादी संगठनों के समर्थक दिन-रात प्रचार में लगे हुए हैं। जिन दिनों मैं हिमानी से मिला, बाहर के लोगों के लिए अभिनव भारत उतना परिचित नाम नहीं था, जितना आज है। सबसे पहले इस नाम से एक संगठन की स्थापना स्वयं वी डी सावरकर ने सन् 1904 में की थी। तब इसका लक्ष्य ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने का था। सदी बाद, सन् 2006 में उसी नाम से कुछ उग्र-हिन्दुत्ववादी तत्वों ने इस संस्था को पुनर्जीवित किया। इसमें समीर कुलकर्णी और श्रीकांत पुरोहित आदि की प्रमुख भूमिका बताई गई। 

    अब उसे भी सनातन संस्था की तरह एक उग्र-हिन्दुत्ववादी सोच का संगठन माना जाता है। इसका नाम भी दक्षिण और मध्य भारत के कई बमकांडों में लिया गया। इसके कई सदस्यों को महाराष्ट्र एटीएस ने गिरफ्तार भी किया।

    महाराष्ट्र सरकार ने सन् 2013 में इसे प्रतिबंधित संगठन घोषित करने की केंद्र को सिफारिश भेजी थी। पर केंद्र ने उसे मंजूर नहीं किया। महाराष्ट्र सरकार ने अपनी सिफारिश के समर्थन में सन् 2008 और 2009 के बमकांडों में संस्था की कथित संलिप्तता का ब्योरा दिया था।

    बताया जाता है कि कर्नाटक एसआईटी ने उग्र हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े अभियुक्तों की अपनी पड़ताल में दोनों के सम्बन्धों के साक्ष्य पाये थे।

    सनातन संस्था के कई कार्यकर्ता विभिन्न हत्याकांडों या बम कांडों में गिरफ्तार हैं। सन् 2014 में हुए सत्ता-परिवर्तन से ऐसे अभियुक्तों को जल्दी ही ‘राहत पाने’ की उम्मीद बढ़ी है।

    माहौल बदलने के लिए हिमानी सावरकर से मैंने उनकी चुनावी तैयारी पर बात करना शुरू कर दिया था। बातचीत ख़त्म होने पर मैंने उनसे उनके पिता गोपाल गोडसे का अता-पता और फोन नंबर आदि लिया। मैंने कहा कि किसी दिन मौक़ा लगा तो उनसे ज़रूर मिलूँगा। पर मुझे तो उनसे आज ही और अभी मिलना था। मैंने जानबूझकर हिमानी को यह बात नहीं बताई।

    इंटरव्यू के बाद सावरकर-भवन से बाहर निकला और सीधे गाड़ी में बैठ गया। अपने ड्राइवर साहब से मैंने कहा, ‘‘सीधे कुम्टेकर रोड चलिये।’’ हमें फडतरे चौक पर स्वीटहोम होटल के आस-पास कहीं पहुँचना है। उन्होंने पूछा, ‘‘अब किसका इंटरव्यू करेंगे?’’ मैंने कहा, ‘‘अभी जिन से मिलकर आ रहा हूँ, उनके पिताश्री से।’’ उन्होंने फिर पूछा, ‘‘वो कौन साहब हैं? क्या उनसे समय मिल चुका है?’’ मैंने कहा, ‘‘वो नथूराम गोडसे का भाई गोपाल गोडसे है। अभी जिस महिला से मिला था, वह इसकी बेटी है। मिलने का समय लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसके पास समय ही समय होगा। कौन आता होगा, उससे मिलने, सिवाय कुछ हिन्दू महासभाइयों के!’’ हमारे ड्राइवर साहब दलित समाज से आते थे और डॉ. अम्बेडकर को पढ़े बग़ैर ‘अम्बेडकरवादी’ थे। इसलिए उनसे हिन्दू महासभाइयों के बारे में कुछ कहने में जोखिम नहीं था। वह विचारों से ब्राह्मणवाद-विरोधी थे। जब उन्हें पता चला कि अभी मैं जिस महिला से मिला था, वह नथू राम गोडसे की अपनी भतीजी थीं तो वह चौंक गये। घूमते-फिरते हुए हम पुणे के कुम्टेकर रोड पहुँच गये।

    मैंने एक दुकान वाले से पूछा, ‘‘भाई, यहाँ गोपाल गोडसे रहते हैं, महात्मा गांधी को मारने वाले नथूराम के भाई। क्या आप उनका मकान बता सकते हैं?’’ उसने मेरी ओर बड़े निरादर से देखते हुए मराठी में जो कुछ कहा, उसका मतलब था, ‘‘राम-राम, ऐसे आदमी का मकान कौन जाने?’’ इसी तरह मैंने एक और राहगीर से पूछा। उसने भी मेरी तरफ़ उपेक्षा की दृष्टि डाली और कोई जवाब दिये बग़ैर आगे बढ़ गया।

    गोपाल गोडसे की पुत्री हिमानी सावरकर ने कहा था कि चौक पर पहुँचकर आप फोन करना तो कोई आपको ले जाने वहाँ ज़रूर पहुँच जायेगा। पर यहाँ तो उस ख़ास नंबर पर हम और हमारे ड्राइवर साहब बार-बार फोन कर रहे हैं, कोई उठा ही नहीं रहा है। काफ़ी देर बाद अचानक किसी ने फोन उठा लिया और मराठी में कुछ कहा। मैंने अंग्रेज़ी में बताया, ‘‘मैं दिल्ली से आया एक पत्रकार हूँ। मिस्टर गोपाल गोडसे से मिलना चाहता हूँ।’’ उस व्यक्ति ने फोन होल्ड पर रखते हुए कहा, ‘‘अभी बताते हैं।’’ कुछ देर बाद उसने कहा, ‘‘आप लोग आ जाओ।’’ साथ ही उसने लोकेशन भी बताई। लेकिन हमारा पहुँचना तब भी संभव नहीं हो पा रहा था। हमने दोबारा फोन किया तो वह व्यक्ति बताई गई जगह पहुँच गया और फिर हमें गोपाल गोडसे के घर ले गया। 

    यह कुम्टेकर रोड के सदाशिव पेठ का एक सीलन भरा मनहूस-सा घर था। जो व्यक्ति हमें लेने बाहर तक आया था, संभवतः वह गोपाल गोडसे का निजी सहायक या कोई परिजन था। खैर, वह जो भी रहा हो पर गोपाल गोडसे की विचारधारा का ही व्यक्ति लग रहा था। घर के अंदर दाख़िल होने के साथ ही हमें बाईं तरफ़ के एक कमरे में ले जाया गया, जिसमें सीलन की गंध कुछ कम थी। तख्त पर अधलेटे बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा, ‘‘मैं ही गोपाल गोडसे हूँ। आप दिल्ली के किस अख़बार से आये हैं?’’ मैंने उन्हें अपना विजिटिंग कार्ड दिया, जिसमें हिन्दी-अंग्रेज़ी में मेरा और अख़बार का नाम दर्ज था। साथ में हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप का ‘लोगो’ भी था।’’ गोपाल गोडसे ने कहा, ‘‘ये तो बिड़ला का अख़बार है। बताइये, क्या जानना चाहते हैं?’’ मैंने जानबूझकर शुरुआत सहज और सौहार्द्र भरा माहौल बनाते हुए की। सबसे पहले नथूराम गोडसे और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर कई सवाल पूछे। उन्होंने बताया कि पिताजी विनायक वावन गोडसे सरकारी सेवा में पोस्टमास्टर थे। हम चार भाई, दो बहन थे। नथू राम सबसे बड़े थे। गोपाल गोडसे ने अपने बड़े भाई नथूराम के बारे में बहुत सारी जानकारी दी। वह कुछ भी छुपाने की कोशिश नहीं कर रहे थे। उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा, ‘‘नथूराम का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से कई वर्षों तक घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वह सन् 1931 से 39 के बीच आरएसएस में रहे। पर आरएसएस से उनकी एक शिकायत थी कि वह जल्दी से जल्दी राजनीति में क्यों नहीं आता? उसे राजनीति में अविलंब हस्तक्षेप करना चाहिए।’’ 

    गोपाल गोडसे के मुताबिक सन् 34 से 37 के बीच नथूराम आरएसएस में बौद्धिक-प्रमुख थे। हेडगेवार के प्रति उनके मन में हमेशा सम्मान रहा। आरएसएस से अलग होने के बाद भी। सांगली क्षेत्रा में वह आरएसएस के सबसे अच्छे वक़्ता थे- मराठी और अंग्रेज़ी, दोनों में। लेकिन विनायक दामोदर सावरकर से वह इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने सावरकर जी को ही अपना गुरु मान लिया। सावरकर जी और उनकी राजनीतिक विचारधारा पर वह घंटों भाषण कर सकते थे। बाद के दिनों में आरएसएस से नथूराम का अलगाव सिर्फ़ एक ही मुद्दे पर हुआ था- वह चाहते थे कि संघ जल्दी ही राजनीति में आये। पर आरएसएस ने ऐसा नहीं किया। गोपाल गोडसे ने अपने राजनीतिक कामकाज के बारे में पूछे जाने पर बताया, ‘‘मैं सन् 1931 से 39 के बीच आरएसएस में था और मेरा कार्यक्षेत्र भी सांगली था। पुणे और कुछ अन्य जगहों पर भी मैंने काम किया।’’

    गोपाल गोडसे ने अपने बारे में एक रोचक और अनसुना तथ्य भी बताया। उनके मुताबिक वह सन् 1940 में अचानक सेना में भर्ती हो गये और पर्शिया-इराक मोर्चे पर लड़े! फिर वह जल्दी ही आर्मी से एमटीएसएसडी में आ गये। पहले आरएसएस में, फिर सेना में रहा यही आदमी एक दिन महात्मा गांधी की हत्या का आरोपी बना और कोर्ट ने उसे गुनहगार बताकर उम्रक़ैद की सजा दी। उसे 5 फरवरी, 1948 को करकी (पुणे) से गिरफ्तार किया गया था। उसने हमें यह भी बताया कि गांधी जी की हत्या से पहले हत्या का एक प्रयास 20 जनवरी, 1948 को भी हुआ था। वह बम विस्फोट था। पर उससे गांधी जी बच गये। हत्या का प्रयास मदन लाल पाहवा ने किया था। मदन लाल वहाँ से भाग गया। वह शरणार्थी परिवार से था और उसका परिवार मांटुगुमरी से यहाँ आकर अहमदनगर में बसा था। उसकी उम्र तब सिर्फ़ 18 की थी। वह न तो आरएसएस में था और न हिन्दू महासभा में। गोपाल जिस मदनलाल पाहवा के बारे में मुझे विस्तार से बता रहा था, उसे भी महात्मा गांधी की नृशंस हत्या में आईपीसी की धारा 120-बी और 302 के तहत आजीवन कारावास की सजा हुई थी। फांसी सिर्फ़ दो हत्यारों को हुई, नथूराम गोडसे और नारायण दत्तात्रोय आप्टे। 

    गोपाल, पाहवा, विष्णु आर करकरे, शंकर किस्तैया और दत्तात्रोय परचुरे को आजीवन कारावास मिला था। गोपाल गोडसे की बातों से लगा, इन सभी लोगों के प्रति आज भी उसमें अपार श्रद्धा भाव है। आजीवन कारावास पाये लोगों में उसका सबसे प्रिय व्यक्ति मदन लाल पाहवा लगा। उसकी देर तक बड़ाई करता रहा।

    गोपाल गोडसे की बहुत सारी बातों से एक बात बिल्कुल साफ़ जाहिर हो रही थी कि महात्मा गांधी की नृशंस हत्या की योजना नथूराम की अगुवाई में इन सबने मिलकर बनाई थी। बात सिर्फ़ इतनी नहीं थी कि विभाजन की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान को रिजर्व बैंक से एक निर्धारित रकम देने का फ़ैसला क्यों हुआ? इस हत्यारे गिरोह के सदस्यों के दिमाग़ों में नफ़रत के जहर का परनाला पहले से बह रहा था। यह गिरोह सिर्फ़ महात्मा गांधी ही नहीं, उस हर व्यक्ति को नापसंद करता था, जो पेशवाई-ब्राह्मणवादी सोच और उसके आधार पर भारत के ‘हिन्दुत्ववादी राष्ट्र-राज्य’ बनाने के प्रकल्प को ख़ारिज करता था। यह कट्टरपंथी ब्राह्मणवादी-गिरोह आज़ाद भारत को हर क़ीमत पर अतीत की तरफ़ मोड़ना चाहता था। आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र के बदले एक हिन्दुत्ववादी सोच का राष्ट्र-राज्य बनाना चाहता था। इन सबने गांधी जी को इस सोच के साथ निशाना बनाया कि उनके इस कदम से कथित ब्राह्मणवादी-पेशवाई या हिन्दुत्ववादी राष्ट्र-राज्य बनाने की प्रक्रिया को शक्ति मिलेगी। मदनलाल पाहवा जैसों को इस गिरोह ने बहुत आसानी से अपने साथ जोड़ लिया क्योंकि वह विभाजन के दर्द और अपने परिवार या आसपास के लोगों पर हुए जुल्म को लेकर पहले से ही आक्रोशित था।

    गोपाल मुझे ऐसी बहुत सारी सूचनाएँ देता रहा। फिर वह देर तक कुछ ऊटपटांग बातें भी बोलता रहा और हम सुनते हुए नोट्स लेते रहे। उन नोट्स पर हमने गोपाल गोडसे से हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया तो उसने मुझे निराश नहीं किया। उसने तत्काल हस्ताक्षर किये। मैंने बताया कि आपके हस्ताक्षर की इसलिए ज़रूरत है ताकि इस बातचीत की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता पर कोई संदेह न कर सके। उसने सहर्ष हस्ताक्षर किये। हालाँकि लिखते समय उसका हाथ थोड़ा कांप रहा था। मजे की बात कि गोपाल गोडसे ने हिन्दी में हस्ताक्षर किये और उसके नीचे उस दिन की तारीख़ 2-10-2004 डाली। इसे विडम्बना कहें या संयोग, उस दिन महात्मा गांधी की जयंती थी और हम उनके हत्यारों में शामिल एक हिन्दुत्वादी-कट्टरपंथी से बातचीत कर रहे थे। अगले दिन मुझे पुणे से आगे निकलना था। एक पत्रकार को अपने जीवन में तमाम तरह के रुचिकर-अरुचिकर काम करने पड़ते हैं। 

    गांधी जी की हत्या में सजा काटने के बाद गोपाल गोडसे जेल से बाहर आया तो उसने पुणे में ही रहने का फ़ैसला किया। महाराष्ट्र के कुछ हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों ने उसके स्वागत में 11 नवम्बर, 1964 को यहाँ एक सभा भी की। इस सभा की अध्यक्षता लोकमान्य तिलक के पौत्र जी वी केतकर ने की। उस सभा में केतकर ने नथूराम से अपने सम्बन्धों का भी विस्तार से उल्लेख किया था। पुणे और महाराष्ट्र के अन्य इलाक़ों में रहने वाले कई राजनीतिक लोगों को नथूराम और उसके साथियों की गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र में लिप्त रहने की योजना का अंदाज़ या सूचना भी मिली थी। बताया जाता है कि वह सूचना राजनीति और प्रशासन के ऊच्च स्तर तक भी पहुँची। कोई नहीं जानता कि उस षडयंत्र कांड को विफल करने और षडयंत्राकारियों के विरूद्ध एहतियाती कार्रवाई जैसे प्रश्नों पर तत्कालीन सरकार ने क्या-क्या कदम उठाये थे! उसमें कहाँ क्या ग़लती हुई? ऐसी लापरवाही क्यों बरती गयी? शायद एक नव-स्वाधीन देश के शासन-प्रशासन में वैसी चुस्ती नहीं थी या महाराष्ट्र के स्थानीय प्रशासन के मिजाज की भी कुछ समस्या थी! बाद के दिनों में भारत सरकार द्वारा गठित कपूर आयोग ने भी इस सवाल की पड़ताल की थी। जस्टिस जीवनलाल कपूर आयोग का विधिवत गठन 21, नवम्बर,1966 को हुआ था। आयोग के दस्तावेज़ में गांधी जी की नृशंस हत्या से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की सविस्तार पड़ताल की गई है।

    जब मैंने गांधी जी की नृशंस हत्या के मुकदमे में सबूतों की कमी और कुछ तकनीकी आधार पर विनायक दामोदर सावरकर के रिहाई के संदर्भ में गोपाल गोडसे से पूछा तो उसने कोई ख़ास जवाब नहीं दिया। बाद में गठित कपूर आयोग की सिफारिशों पर सवाल पूछना चाहा तो भी उसने कुछ बोलने से इंकार किया। मैंने यह भी पूछा कि आपके भाई नथूराम तो स्वयं ही सावरकर-शिष्य थे। उसे फांसी मिली, आपको उम्रक़ैद पर आप सबके गुरु हिन्दू महासभा के शीर्ष नेता रहे वी डी सावरकर बेगुनाह साबित हुए। इस पर कुछ कहना चाहेंगे? गोपाल गोडसे ने इस सवाल पर भी चुप्पी साध ली। कुछ रुककर उसने सिर्फ़ इतना कहा कि कांग्रेसी सरकार ने साजिश के तहत उस कपूर आयोग को गठित किया था।  

    सन् 2004 के 2 अक्टूबर को गोपाल गोडसे से हुई हमारी इस मुलाकात के तकरीबन साल भर बाद 2005 में उसकी मौत हुई थी। लेकिन मेरी नोटबुक के एक महत्त्वपूर्ण पृष्ठ पर दिनांक-सहित उसका हस्ताक्षर दर्ज है। बातचीत के क्रम में ही गोपाल गोडसे के उस कमरे की दीवारों पर मेरा ध्यान गया। एक तरफ़ महात्मा गांधी हत्याकांड में सजा पाये नथू राम गोडसे सहित सभी हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों के चित्र थे तो दूसरी तरफ़ भारतीय सेना के अधिकारी जनरल जे एस अरोड़ा के समक्ष सन् 1971 के बांग्लादेश युद्ध में आत्मसमर्पण करते पाकिस्तीनी जनरल नियाजी और उनके अन्य सैनिकों की तस्वीर भी टंगी थी। कमरे में रखे एक बड़े टेबुल पर कई तरह की दवाओं के साथ सांप्रदायिक सोच से भरी कुछेक किताबें और पत्रिकाएँ भी रखी थीं। गोपाल गोडसे और उसके उस घर के परिवेश को देखकर लगा कि दोनों पर कहीं न कहीं महात्मा गांधी जैसे बड़े जननेता की नृशंस हत्या की शाप-छाया मंडरा रही है। जितना उदास, संत्रास्त और आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व गोपाल गोडसे का था, उससे कहीं अधिक उसके घर के परिवेश में एक तरह की डरावनी मनहूसियत चिपकी थी।

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