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    जहां एक ही परिसर में होती है पूजा और नमाज़ – भोजशाला का इतिहास फिर क्यों आया चर्चा में

    Janta YojanaBy Janta YojanaDecember 4, 2025No Comments6 Mins Read
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    Bojhshala: मध्य प्रदेश के धार में स्थित काफी चर्चित स्थल भोजशाला का नाम तो आपने जरूर सुना होगा। यह एक ऐसा स्थल है, जो सदियों से राजनीति, आस्था, स्थापत्य और विवादों का केंद्र बना हुआ है। कभी ये स्थल विद्या का गढ़ कहलाया, कभी धार्मिक स्थल, कभी सांस्कृतिक पहचान और अब पुरातात्विक-सांप्रदायिक बहसों का केंद्र बन चुका है। भोजशाला का इतिहास बेहद जटिल है। हाल ही में उर्स की तैयारियों और दर्शन-पूजन को लेकर फिर तनाव बढ़ने से यह स्थान एक बार फिर सुर्खियों में है। आइए जानते हैं भोजशाला के इतिहास और घटनाक्रम से जुड़े किस्सों के बारे में विस्तार से –

    भोजशाला से जुड़ा विवाद क्या है और इसकी पहचान कब बनी

    मध्य प्रदेश के धार ज़िले में स्थित भोजशाला शहर के बीचों-बीच एक ऐतिहासिक परिसर है। वर्तमान समय में जिसे ASI (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) संरक्षित स्मारक के रूप में देखता है। इस स्थल का ‘भोजशाला’ नाम आधुनिक इतिहास में आया है। 1903 में शिक्षा अधीक्षक के.के. लेले ने अपने शोध में पहली बार इस स्थल को ‘भोजशाला’ कहा और इसे 11वीं सदी के राजा भोज से जोड़ा। बाद में इतिहासकारों ने इस दावे को तर्कहीन बताया, फिर भी यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि 1934 में धार रियासत ने इस परिसर के बाहर ‘भोजशाला’ का बोर्ड लगवा दिया। इस नाम ने धीरे-धीरे इस पूरे स्थल को सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान दे दी। लेकिन ज्यादा समय नहीं बीता, 1935 में यहां नमाज़ दोबारा शुरू हो गई और 1944 में पहले उर्स का आयोजन भी हुआ। यहां सेवा कर रहे मुस्लिम परिवारों का दावा है कि उनके पूर्वज लगभग 700 वर्षों से इस स्थान की देखभाल कर रहे हैं। दूसरी तरफ, हिंदू परंपरा में इसे सरस्वती मंदिर और विद्या-केंद्र माना जाता है। यही दो धारणाएं आगे चलकर विवाद की मूल जड़ बनीं।

    आजादी के बाद ASI का हस्तक्षेप और तैयार हुआ धार्मिक गतिविधियों का नया ढांचा

    1952 में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) ने इस परिसर को अपने नियंत्रण में ले लिया और नमाज़ पर फिर से रोक लगा दी। यह निर्णय लगभग 46 वर्षों तक चला। 1998 में ASI ने दोनों समुदायों को सीमित रूप में अनुमति दी। जिसमें मुसलमानों को शुक्रवार की नमाज़ और हिंदुओं को वसंत पंचमी के दिन पूजा करने की छूट। इसी बीच धीरे-धीरे यह स्थल धार्मिक और राजनीतिक संघर्ष का केंद्र बन गया।

    2000 के दशक में राजनीति की एंट्री और विवाद का बढ़ता गया तापमान

    साल 2000 के बाद कई दक्षिणपंथी संगठनों ने यहां मंदिर पुनर्स्थापना, नियमित पूजा और नमाज़ पर रोक जैसी मांगों को लेकर आंदोलन तेज़ कर दिए। 2003 में ASI को बीच का रास्ता निकालना पड़ा अब मंगलवार को हिंदू पूजा कर सकते थे और शुक्रवार को मुसलमान नमाज़। यह व्यवस्था कोर्ट में चुनौती भी बनी, मगर हाई कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। इसी दौरान भोजशाला मध्य प्रदेश की राजनीति में भी बड़ा मुद्दा बन गई। 2003 में चुनावी माहौल इस विवाद से काफी गरमाया और दोनों प्रमुख पार्टियों ने एक-दूसरे पर सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगाया। 2016 में परिस्थिति तब और कठिन हो गई जब वसंत पंचमी शुक्रवार को पड़ी। हजारों सुरक्षा बल तैनात किए गए, शहर में कर्फ्यू जैसा माहौल बना और किसी तरह स्थिति काबू में लाई गई।

    2022 से फिर मुकदमेबाजी की शुरुआत और नए दावे

    2022 में ‘हिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस’ ने हाई कोर्ट में याचिका दायर कर केवल हिंदुओं को पूजा का अधिकार देने और इसे मूल सरस्वती मंदिर घोषित करने की मांग की। उनका दावा था कि 1034 ईस्वी में यहाँ सरस्वती प्रतिमा स्थापित की गई थी और बाद में मुस्लिम शासन में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने ASI को वैज्ञानिक सर्वे का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला गया, लेकिन उसने सर्वे पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। इसके बाद इस स्थल के इतिहास को तथ्यात्मक तरीके से समझने का नया दौर शुरू हुआ।

    ASI की नई रिपोर्ट में क्या मिला और इतिहास क्या कहता है

    15 जुलाई 2024 को ASI ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट कोर्ट में जमा की, जिसमें कई महत्वपूर्ण खोजें सामने आईं। सर्वे के दौरान परिसर से 94 मूर्तियां, टूटे हुए अवशेष और प्राचीन स्थापत्य चिन्ह मिले। इनमें गणेश, नारसिंह, भैरव, ब्रह्मा और अन्य देवी-देवताओं की आकृतियां शामिल थीं। कई मूर्तियों के चेहरे और अंग स्पष्ट रूप से क्षतिग्रस्त पाए गए। परिसर में संस्कृत और प्राकृत भाषा के कई शिलालेख भी मिले, जिनमें परमार वंश के राजा नरवर्मन (1094–1133 ई.) का उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि यह परिसर कभी शैक्षिक गतिविधियों और धार्मिक अनुष्ठानों का केंद्र रहा होगा। मौजूदा संरचना में कई प्राचीन मंदिर अवशेषों का उपयोग हुआ है, जिससे यह संकेत मजबूत होता है कि यहां पहले मंदिर था जिसके स्थान पर बाद में नई संरचनाएं बनीं। किए गए ऐतिहासिक अध्ययन के मुताबिक भोजशाला किसी एक काल या एक समुदाय की पहचान वाली जगह नहीं थी। परमार काल में यह विद्या और संस्कृति का स्थल रहा, फिर दिल्ली सल्तनत और उसके बाद के कालों में इसमें धार्मिक उपयोग के बदलाव हुए। ब्रिटिश काल में इसे संरक्षित स्मारक की पहचान मिली और आज यह सांप्रदायिक राजनीति, पुरातात्विक खोजों और कानूनी लड़ाई का केंद्र बन चुका है।

    2025 में फिर हंगामा- उर्स की तैयारी, रंगाई-पुताई और तेल चित्र का विवाद

    हालिया दिनों में भोजशाला एक बार फिर विवादों का केंद्र बन गई है। समिति ने आरोप लगाया कि उर्स की तैयारियों के नाम पर परिसर में बिना अनुमति रंगाई-पुताई की जा रही है, जो नियमों के विरुद्ध है। प्रशासन ने हस्तक्षेप कर दोनों पक्षों से संयम और शांति की अपील की। वहीं बीते मंगलवार 2 दिसंबर की सुबह हालात उस समय बिगड़े जब हिंदू समाज पूर्व की तरह दर्शन-पूजन और हनुमान चालीसा पाठ के लिए परिसर पहुंचा। इसी दौरान ASI ने हिंदू समाज द्वारा लाए जा रहे मां वाग्देवी के एक तेल चित्र को जब्त कर लिया। विभाग का कहना था कि परिसर में किसी भी नई वस्तु या धार्मिक प्रतीक को बिना अनुमति अंदर ले जाना नियमों के खिलाफ है। इस कदम से तनाव बढ़ गया और दोनों पक्षों में बहस शुरू हो गई। भोजशाला न केवल इतिहास और आस्था का केंद्र है, बल्कि वह संवेदनशील मुद्दा है जहां भाषा, संस्कृति, धर्म और राजनीति के बीच तालमेल एक टेढ़ी खीर बना हुआ है।

    डिस्क्लेमर: इस लेख में प्रस्तुत सभी ऐतिहासिक तथ्य, विवरण और घटनाक्रम उपलब्ध अभिलेखों, पुरातात्विक रिपोर्टों, न्यायालयी दस्तावेजों पर आधारित हैं। भोजशाला परिसर एक संवेदनशील तथा विवादित स्थल है, इसलिए इसके इतिहास और धार्मिक उपयोग को लेकर विभिन्न पक्षों के अपने-अपने दावे और मत हैं। इस लेख का उद्देश्य केवल जानकारी प्रस्तुत करना है, किसी भी समुदाय, धर्म या समूह की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।

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