
Peetambra Siddhpeeth (Image Credit-Social Media)
Peetambra Siddhpeeth
Peetambra Siddhpeeth: मध्य प्रदेश के दतिया जिले में स्थित मां पीतांबरा सिद्धपीठ सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि ‘राजसत्ता की देवी’ का वह धाम है जहां से भारत की राजनीति और युद्ध दोनों की दिशा बदलने की कथाएं जुड़ी हैं। कहा जाता है कि 1962 में चीन से युद्ध के दौरान यहां किए गए विशेष अनुष्ठान के बाद चीनी सेना ने पीछे हटने का निर्णय लिया था। यही नहीं, देश के कई शीर्ष नेता पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेई और राजमाता विजय राजे सिंधिया तक यहां आकर मां का आशीर्वाद ले चुके हैं। आइए जानते हैं मां पीतांबरा सिद्धपीठ से जुड़े महत्व के बारे में –
मां पीतांबरा सिद्धपीठ -शक्ति साधना का केंद्र है यह स्थल
दतिया का यह शक्तिपीठ देश के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि यहां मां बगुलामुखी की उपासना से साधक को न केवल शत्रु पर विजय प्राप्त होती है बल्कि राजनीति और राजसत्ता में स्थायित्व भी मिलता है। मंदिर परिसर में मां बगुलामुखी के साथ-साथ दत्तात्रेय भगवान की मूर्ति भी स्थापित है, जिससे यह स्थान ज्ञान और शक्ति का अद्वितीय संगम बन जाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर की स्थापना सिद्ध पुरुष स्वामी जी महाराज (जिन्हें दतिया वाले बाबा के नाम से भी जाना जाता है) ने 1930 के दशक में की थी। उन्होंने देश की रक्षा और धर्म-संरक्षण के लिए यहां अनेक गूढ़ साधनाएं करी थीं।
इस शक्तिपीठ से जुड़ी हैं 1962 के युद्ध और 51 कुंडीय महायज्ञ की गाथा

भारत-चीन युद्ध के समय की यह घटना आज भी इस मंदिर के इतिहास में सुनाई जाती है। जब युद्ध की स्थिति विकट हो गई थी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बाबा से देश के लिए विशेष साधना करने का आग्रह किया।
बाबा ने मां बगुलामुखी की कृपा प्राप्त करने के लिए 51 कुंडीय महायज्ञ करवाया। यह यज्ञ 11 दिनों तक चला, जिसमें देश की सीमाओं की रक्षा और दुश्मन सेना के नाश के लिए विशेष मंत्रोच्चार किया गया। प्रचलित कथाओं के अनुसार, जैसे ही अंतिम आहुति दी गई, उसी समय चीन ने अचानक अपनी सेना पीछे हटा ली। आज भी मंदिर परिसर में लगी एक पट्टिका इस ऐतिहासिक घटना की साक्षी है, जिस पर लिखा है कि ‘मां की कृपा से चीन ने अपनी सेना वापस बुला ली।’
कारगिल युद्ध के समय भी की गई थी मां बगुलामुखी की साधना
कहावत है कि इतिहास खुद को दोहराता है। 1999 में जब कारगिल युद्ध हुआ, तब भी तात्कालिक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के कहने पर कुछ साधकों ने मां पीतांबरा सिद्धपीठ में विशेष गुप्त यज्ञ करवाया। मां बगुलामुखी को शत्रु को स्तंभित (निष्क्रिय) करने वाली देवी कहा जाता है। मान्यता है कि इस यज्ञ के दौरान की गई साधना के बाद दुश्मन सेना की रणनीतियां विफल हो गईं और भारत ने विजय प्राप्त की।
स्थानीय लोग आज भी उस समय के यज्ञ की गूंज को याद करते हुए कहते हैं कि, मां ने फिर एक बार देश की लाज रखी।
हमेशा मां के दरबार में नेता और सत्ता का झुकता है माथा
मां पीतांबरा सिद्धपीठ को ‘राजसत्ता की देवी’ कहा जाता है। यही कारण है कि भारत के बड़े-बड़े नेता यहां आकर मां का आशीर्वाद लेने से नहीं चूकते।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राजमाता विजय राजे सिंधिया, अटल बिहारी वाजपेई, जवाहरलाल नेहरू सभी ने इस स्थान पर आकर पूजा-अर्चना की।
स्थानीय लोगों के अनुसार, यहां आने वाले कई नेताओं ने राजनीतिक सफलता प्राप्त की और सत्ता के शिखर तक पहुंचे। यह भी कहा जाता है कि राजसत्ता की प्राप्ति की कामना रखने वाले साधक यहां गुप्त साधना करते हैं, जिसे केवल गुरु की अनुमति से ही किया जा सकता है।
इस शक्तिपीठ से जुड़ा है आध्यात्मिक रहस्य और गूढ़ साधनाओं का केंद्र
मां पीतांबरा सिद्धपीठ को तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र माना जाता है। यहां की साधना का मुख्य उद्देश्य किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं, बल्कि नकारात्मक शक्तियों का दमन और देश की रक्षा करना है। यहां साधक बगुलामुखी बीज मंत्र का जाप करते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह मंत्र शत्रु के विचारों और कार्यों को रोक देता है।

मां की मूर्ति पीले वस्त्रों में सुसज्जित होती है, और पीला रंग ही उनका प्रतीक है। इसलिए उन्हें ‘पीतांबरा’ कहा जाता है।
आध्यात्मिकता और राजनीति का संगम बन चुका है दतिया
दतिया सिर्फ मंदिरों का शहर नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक भी है। यहां हर साल हजारों श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं।
राजनीतिक गलियारों में भी यह कहा जाता है कि जो नेता मां पीतांबरा के दरबार में माथा टेकता है, उसकी राह खुद मां प्रशस्त कर देती हैं।
इस विश्वास ने इस मंदिर को सिर्फ एक धार्मिक केंद्र नहीं, बल्कि आस्था और शक्ति के संगम के रूप में स्थापित कर
दिया है।
संक्षिप्त डिस्क्लेमर:
यह आलेख धार्मिक मान्यताओं, ऐतिहासिक घटनाओं और स्थानीय परंपराओं पर आधारित है। इसमें वर्णित अनुभव और कथाएं आस्था पर आधारित हैं और इसे तथ्यात्मक ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।