वैसे तो फ़िलहाल भारत में जॉर्ज सोरोस के नाम पर बवाल मचा है, लेकिन यह कहानी भारत से जुड़ी नहीं है। जॉर्ज सोरोस का नाम एक और देश में जोर-शोर से उछाला जाता रहा है। यह देश है हंगरी। वही हंगरी जहाँ के सोरोस मूल निवासी हैं। इसी साल जब यूरोपीय संघ के चुनाव हुए तो हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन ने जॉर्ज सोरोस के नाम का ख़ूब इस्तेमाल किया। वह मानते रहे कि इनके नाम पर पक्के तौर पर चुनावी जीत हासिल होगी। तो सवाल है कि जॉर्ज सोरोस के नाम का इस्तेमाल किस रूप में हो कि वोट मिलें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जवाबदेह सरकार और न्याय व समानता को बढ़ावा देने वाले जॉर्ज सोरोस के रूप में या फिर उनको एक ख़तरे के रूप में पेश किया जाए
विक्टर ओर्बन ने दूसरा रास्ता चुना। उन्होंने जॉर्ज सोरोस को ख़तरा बताना शुरू किया। उन्होंने इसके लिए ‘अटैक पॉलिटिक्स’ यानी हमले की राजनीति का रास्ता चुना। यानी विरोधियों पर लगातार हमले करते रहें, झूठ व प्रोपगेंडा फैलाएँ और लोगों को विरोधियों का डर दिखाएँ। विक्टर ओर्बन ने ऐसा कर दो बार चुनाव जीते और सत्ता हथियाई। ‘अटैक पॉलिटिक्स’ बड़े क़रीने से सत्ता हथियाने का हथियार है जिसकी ईजाद दो लोगों ने की और उन्होंने कई देशों में इसका प्रयोग किया। इसराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इस हथियार को ईज़ाद करने वाले दोनों लोगों की जोड़ी से पहली बार ओर्बन को मिलवाया था।
हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन ने इसका इस्तेमाल कैसे किया है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर अटैक पॉलिटिक्स यानी हमले की राजनीति का यह हथियार कैसे अस्तित्व में आया और कैसे इसका इस्तेमाल किया गया।
दरअसल, इसको विस्तार से बज़फीड न्यूज़ के 2019 के एक लेख ‘जॉर्ज सोरोस के खिलाफ़ साजिश की अविश्वसनीय कहानी’ में बताया गया है। यह लेख तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के विशेषज्ञ माने जाने वाले दो अमेरिकी लोगों की कहानी बताता है।
अटैक पॉलिटिक्स क्या
फ़ैक्ट को तोड़ने-मरोड़ने के ये दो विशेषज्ञ आर्थर फिंकेलस्टीन और जॉर्ज बर्नबाम थे। ये दोनों खुद यहूदी हैं। उनका सीधा मक़सद था कि यदि आप चुनाव जीतना चाहते हैं, तो आप हमले करें। वे इस विचार को मानते थे कि कई मतदाता जानते हैं कि वे किसे वोट देंगे और ऐसे में उन्हें किसी अन्य उम्मीदवार को वोट देने के लिए प्रेरित करना मुश्किल है। इन दोनों ने यह माना कि मतदाताओं को हतोत्साहित करना आसान है।
अटैक पॉलिटिक्स के पीछे विचार यह है कि आप अपने राजनीतिक विरोधियों को आरोपों की बौछार से बदनाम करते हैं, जो ज्यादातर झूठे होते हैं, इसलिए आपके विरोधी के समर्थकों को संदेह होने लगता है। ऐसे में कुछ लोग वोट नहीं देंगे। दूसरे आपके पास चले जाएंगे।
इस जोड़ी ने इस तकनीक का पहली बार इसराइल में 1995 में इस्तेमाल किया। नए चुनाव तय किए गए थे, जिसमें सोशल डेमोक्रेट शिमोन पेरेज को विजेता नामित किया गया था। बहुत कम पर्यवेक्षकों ने युवा रूढ़िवादी लिकुड उम्मीदवार बेंजामिन नेतन्याहू को कोई मौका दिया, जो 20 प्रतिशत अंकों से पीछे चल रहे थे। नेतन्याहू ने फिंकेलस्टीन और बर्नबाम को मदद करने के लिए सौदा किया। फॉरेन पॉलिसी की रिपोर्ट के अनुसार दोनों ने नेतन्याहू को बताया कि उनके जीतने का एकमात्र मौका तभी होगा जब उनका अभियान इस अफवाह को फैलाने पर केंद्रित हो कि पेरेज यरूशलेम का आधा हिस्सा फिलिस्तीनियों को देना चाहते हैं। पेरेज ऐसा नहीं करना चाहते थे; यह पूरी तरह से मनगढ़ंत था। लेकिन जैसे-जैसे यह बात फैलती गई, पत्रकारों ने उनसे इसके बारे में पूछा।
अपने स्वयं के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने और चर्चा करने के बजाय, पेरेज को नेतन्याहू के झूठ के खिलाफ खुद का बचाव करने के लिए मजबूर होना पड़ा। नेतन्याहू ने पेरेज को पूरी तरह से फंसा दिया और कई लोगों को आश्चर्यचकित करते हुए 1996 का चुनाव 50 प्रतिशत से अधिक वोटों के साथ जीत लिया। इस तरह से राजनीति में नेतन्याहू का शानदार उदय शुरू हुआ।
रिपोर्ट के अनुसार 2000 के दशक की शुरुआत में, फ़िंकेलस्टीन और बर्नबाम ने इसी तरह के अभियानों के ज़रिए बुल्गारियाई और रोमानियाई राजनेताओं को सत्ता हासिल करने में मदद की। फिर नेतन्याहू ने उन्हें यूरोप के महत्वाकांक्षी राजनेता विक्टर ओर्बन से मिलवाया।
उन दोनों ने 2013 में सोरोस के खिलाफ़ ओर्बन के पहले नफ़रत भरे अभियान को डिज़ाइन किया था। जिस सोरोस ने अपनी संपत्ति के अरबों डॉलर दुनिया भर में लोकतांत्रिक शासन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करने वाले संगठनों में डाल दिए उनको कुछ हफ़्तों के भीतर हंगरी के सबसे नफ़रत भरे व्यक्ति के रूप में पेश कर दिया गया। सोरोस विरोधी छवि को ख़राब करने वाला अभियान बेहद सफल रहा। जिस ओर्बन ने सोरोस द्वारा वित्तपोषित सेंट्रल यूरोपियन रिसर्च ग्रुप में काम किया था और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में सोरोस छात्रवृत्ति पर अध्ययन किया था, उन्होंने ही सोरोस के ख़िलाफ़ नफ़रत का अभियान चलाया। वह चुनाव जीत भी गए।
सत्ता खोने से पहले ओर्बन 1998 से 2002 के बीच प्रधानमंत्री रहे थे। 2010 में फ़िंकेलस्टीन और बर्नबाम ने उन्हें नौकरशाहों और विदेशी निवेशकों के खिलाफ़ एक सख्त, ध्रुवीकरण अभियान चलाने की सलाह दी। यह काम कर गया।
अगले चुनाव 2014 के दौरान, विपक्ष मुश्किल से एक शब्द भी बोल पाया। फिर भी, ओर्बन ने कोई जोखिम नहीं लिया और फिर से उन सलाहकारों से सलाह ली जिन्होंने उन्हें पहले जीतने में मदद की थी। उन्होंने उन्हें बताया कि उन्हें एक परिचित चेहरे वाले बलि का बकरा चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि वे सोरोस का इस्तेमाल करें और उन्हें एक यहूदी वित्तपोषक के रूप में पेश करें जिसका एक गुप्त राजनीतिक एजेंडा है- हंगरी को कमज़ोर करना और फिर उस पर हावी होना। कुछ रिपोर्टों के अनुसार, इस अभियान ने देश में यहूदी-विरोधी भावना को बढ़ावा दिया।
इस अभियान के दौरान ओर्बन ने अपनी सभी समस्याओं के लिए सोरोस और उनके लोगों को दोषी ठहराया- देश में आए वित्तीय और आर्थिक संकटों से लेकर युद्धग्रस्त सीरिया और अन्य देशों से शरणार्थियों के आगमन तक। 2014 और फिर 2018 में ओर्बन ने चुनाव जीते। इससे हंगरी में सत्ता पर उनकी पकड़ मज़बूत हुई। 2018 के मतदान से पहले पूरे हंगरी में सोरोस को दर्शाते हुए पोस्टर दिखाई दिए: ‘सोरोस को आख़िरी मौक़ा न लेने दें।’ उस वर्ष हंगरी सरकार ने सोरोस द्वारा स्थापित और आंशिक रूप से वित्तपोषित सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी को भी देश से बाहर कर दिया। इस यूनिवर्सिटो को आख़िरकार वियना में शरण मिली, जहाँ से यह अभी भी काम करता है।
बता दें कि सोरोस मूल रूप से हंगरी के हैं, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्हें अपना देश हंगरी छोड़ना पड़ा था। 1947 में वह लंदन पहुंचे थे और उन्होंने यहीं से लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में फिलोसोफी की पढ़ाई की। बाद में वह अमेरिका चले गए। वह बहुत बड़े निवेशक हैं। लेकिन अरबपति बनने से पहले सोरोस ने काफ़ी ज़्यादा असहिष्णुता को झेला है। 1930 में हंगरी में जन्मे सोरोस ने 1944-1945 के नाजी कब्जे के दौरान किसी तरह खुद को ज़िंदा बचाए रखा। नाजी कब्जे के कारण 500,000 से अधिक हंगरी के यहूदियों की हत्या हुई। जॉर्ज सोरोस की वेबसाइट पर दावा किया गया है कि उनका अपना यहूदी परिवार झूठे पहचान पत्रों को हासिल करके, अपना इतिहास छुपाकर और दूसरों को भी ऐसा करने में मदद करके बचा रहा।
1956 में वह वित्त और निवेश की दुनिया में प्रवेश करते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। वहीं उन्होंने अपनी किस्मत बनाई। 1973 में उन्होंने अपना हेज फंड, सोरोस फंड मैनेजमेंट लॉन्च किया और संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास में सबसे सफल निवेशकों में से एक बन गए।
सोरोस ने 1979 में रंगभेद के तहत काले दक्षिण अफ़्रीकी लोगों को छात्रवृत्ति देकर अपनी चैरिटी शुरू की। 1980 के दशक में उन्होंने कम्युनिस्ट हंगरी में पश्चिम की अकादमिक यात्राओं को फंड देकर और स्वतंत्र सांस्कृतिक समूहों और अन्य पहलों का समर्थन करके विचारों के खुले आदान-प्रदान को बढ़ावा देने में मदद की।
बर्लिन की दीवार के गिरने के बाद उन्होंने केंद्रीय यूरोपीय विश्वविद्यालय को बढ़ावा देने के लिए एक प्रमुख स्थान के रूप में बनाया। वह समलैंगिक विवाह प्रयासों के मुखर समर्थक बन गए।
वह सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी के संस्थापक और प्रमुख फंड देने वाले हैं। यह सामाजिक विज्ञान के अध्ययन के लिए एक प्रमुख क्षेत्रीय केंद्र है। जॉर्ज सोरोस की वेबसाइट के अनुसार उनके नेतृत्व में ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जवाबदेह सरकार और न्याय व समानता को बढ़ावा देने वाले समाजों के लिए लड़ने वाले दुनिया भर के लोगों और संगठनों का समर्थन किया है। अब यही सोरोस अब भारत में सुर्खियों में हैं। सत्तारूढ़ बीजेपी सोरोस पर भारत के ख़िलाफ़ साज़िश रचने का आरोप लगा रही है और उसका कहना है कि कांग्रेस का सोरोस से संबंध है।
(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)