यह गिनवाने का अभी कोई मतलब नहीं रह गया है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के सनकी फ़ैसलों से भारत और दुनिया के शेयर बाजारों को कितना नुक़सान हुआ है। यह बताने का हल्का ही मतलब बचा है कि ट्रंप को राष्ट्रपति चुनने वाले अमेरिकी समाज के एक हिस्से को पछतावा हो रहा है और वह उनके फ़ैसलों के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरा हुआ है। इनमें कोई ट्रम्प द्वारा अमेरिका को तोड़ने का काम करने का आरोप लगा रहा है तो कोई उनके पुतिन के रूप में ढल जाने का।
अभी ट्रम्प को आये तीन महीने भी नहीं हुए हैं और चुनाव प्रचार में वे नया अमेरिका बनाने के नाम पर जो बहकी बहकी बातें करते थे, उससे भी ऊपर के फ़ैसले वे ले चुके हैं और एलन मस्क जैसे व्यवसायियों की सोच पर एक सीमा से काफी ज्यादा निर्भर भी दिखने लगे हैं। यह भी लग रहा है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल हो न हो अमेरिकी अर्थव्यवस्था पस्त हो जाएगी और वैश्विक ताकत वाले इस मुल्क की शान भी रसातल में जाएगी। आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था का दुनिया में हिस्सा एक चौथाई से ज्यादा बड़ा है लेकिन दंडात्मक सीमाशुल्क लगाकर ट्रम्प अमेरिकी प्रभुता के साथ ही उसके इकबाल में भी बट्टा लगा रहे हैं।
अमेरिका और उसके यहां मौजूद वैश्विक आर्थिक संस्थाओं ने ही सारा जोर लगाकर विश्व व्यापार संगठन खड़ा कराया था। और उसकी शर्तों और दायरे को निर्धारित करने कराने में उसकी भूमिका सबसे बड़ी थी। आज अगर वह बहुपक्षीय व्यापार के डब्ल्यूटीओ के बुनियादी शर्त को छोड़कर वापस द्विपक्षीय व्यापार के युग में जाना चाहता है तो भी उसकी बात को समझा जा सकता है। लेकिन सीमा शुल्क और कीमतों के निर्धारण में जो आधार तय किए गए थे (जो तकनीक और आर्थिक तरक्की को ध्यान में रखकर हुए थे) वे एकदम बेमानी हों, यह ज़रूरी नहीं है।
अगर अमेरिका और यूरोप को तकनीक का लाभ रहा है तो चीन, भारत और ग़रीब देशों को सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों का लाभ रहा है। आज ट्रम्प किसी तर्क की बात मानने को तैयार नहीं हैं और हर सवाल को ‘फुलिश’ बताना उनका जुमला बन गया है। लेकिन खुद उन्होंने सीमा शुल्क के मामले में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुक़सान तथा उसकी भरपाई के लिए बराबर सीमाशुल्क करने का जो चुनावी वायदा किया था, अब घोषित वृद्धि उससे भी लगभग दुगुनी है। और कोई भी भरोसे से नहीं कह सकता कि यह दुनिया को नुक़सान पहुंचाएगा लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फायदा करेगा।
ट्रम्प की जीत के लिए यज्ञ वगैरह करने और वापस उनके मुंह से दोस्त शब्द सुनकर धन्य होने वाले भारतीय नेता ने तो शुरू से सीमाशुल्क वाले मसले को गंभीरता से नहीं लिया। शायद हमारे कर्त्ता-धर्ता लोगों को भरोसा था कि जब ट्रम्प ने मित्र कह ही दिया है तो वे हमारे खिलाफ कदम क्यों उठाएंगे। और भारत ने क्या तैयारी की इसकी कोई खबर हमें अपने किसी प्रॉपर चैनल से नहीं मिली, ट्रम्प ने जरूर दो बार कहा कि भारत सीमा शुल्क घटाने की तैयारी कर रहा है। शायद ऐसी कोई बात व्यवसायियों के बीच हुई हो।
चीन और यूरोप ने जबाबी कर वृद्धि करके अमेरिका को साफ संदेश दिया है कि वे दबने-झुकने वाले नहीं हैं। अब ईंट का जबाब पत्थर से देने वाली बात सुनने में तो अच्छी लगती है लेकिन व्यापार के मामले में ऐसे कदम दो नहीं, चार गुना नुक़सान पहुंचाएंगे।
आर्थिक राष्ट्रवाद अपनी-अपनी चौहद्दी को ऊँचा बनाएगा। फिर हर देश में सामान महंगे होंगे और मांग कम होगी। बात यहीं नहीं रुकेगी। फिर उत्पादन कम होगा और बेरोजगारी बढ़ेगी। एक आर्थिक दुष्चक्र बनेगा और दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है। भारत जैसे देश का अमेरिका से व्यापार काफी है और उसका असर होगा, लेकिन कुल जीडीपी में विदेश व्यापार का हिस्सा अभी भी कम है, इसलिए हम थोड़े कम प्रभावित होंगे।
लेकिन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने और ट्रम्प के फ़ैसलों का प्रभाव आने देने का विकल्प बहुत ख़तरनाक है। हम अमेरिका से कम सामान मंगाते हैं और भेजते हैं उससे लगभग दोगुना। अभी तक हीरे-जवाहरात, ऑटो पुर्जे, इलेक्ट्रॉनिक पुर्जों और पेट्रोलियम पदार्थों के व्यापार कर प्रभावित होने का अंदेशा था और शेयर बाजार में इन्ही शेयरों में ज़्यादा गिरावट देखी गई। लेकिन जिस तरह दुनिया भर में बैंकिंग के शेयर गिरे हैं वे नए वित्तीय संकट का ख़तरा बता रहे हैं। दूसरी ओर यह अनुमान भी लगाया जा रहा है कि हमारा कृषि क्षेत्र भी बुरी तरह प्रभावित होगा जिसकी अभी शेयर बाजार में ज़्यादा सक्रियता नहीं है। इनका साफ़ मतलब हमारे यहां रोजगार पर ज़्यादा आफ़त आनी है।
ऑटो और जवाहरात तथा गहनों का काम भी काफी लोगों को रोजगार देता है। और तो और ट्रम्प जिस क़िस्म से वीसा नीति बनाने में लगे हैं, हमारी आईटी कंपनियों के लिए भी मुश्किल दिन आने वाले हैं। मुश्किल यह है कि हमारी सरकार तैयारी और जबाबी रणनीति पर काम करने की जगह ट्रम्प की दया या गुडविल हासिल करना मुख्य लक्ष्य मानती है। डॉलर गिरा है और पेट्रोलियम के दामों में भारी कमी आई है, लेकिन भारत सरकार ने इस संकट में पहला कदम पेट्रोलियम गैसों और पेट्रोल की कीमत में बढ़ोत्तरी का किया है। यह शुद्ध लूट है।
अब जब आप चीन या यूरोप के विकसित देशों जैसी स्थिति में न हों तो ठीक उनकी तरह जबाबी कर वृद्ध या अमेरिकी सामान के आयात पर सख्ती जैसे कदम उठाएं, यह ज़रूरी नहीं है। लेकिन ट्रम्प की गलती को गलती कहना, अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के कदम उठाना और अमेरिका पर आर्थिक दबाव बढ़ाने के लिए चीन, कनाडा, मैक्सिको, यूरोप और अमेरिका से अधिक व्यापार करने वाले वियतनाम, बांग्लादेश, श्रीलंका वगैरह के साथ सलाह-मशविरा करके कुछ साझा कदम उठाने की पहल तो की जानी चाहिए।
संयोग यह है कि ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से प्रधानमंत्री से उनकी मुलाकात हो या विदेश मंत्री जयशंकर और रक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के अमेरिका प्रवास में रक्षा सौदे (जिनकी भारत को कोई जरूरत नहीं है) और एक भारतीय उद्योगपति के खिलाफ चलाने वाले अमेरिकी मुकदमों का मसला ही ऊपर रहा। भारत में भी सरकार ही नहीं, उसका वह सारा समर्थक मंडल वक्फ बिल पर मुसलमानों को रौंदने के मुहिम में लगा था जो अमेरिकी चुनाव के समय ट्रम्प की जीत के लिए यज्ञ-हवन में लगा था। ऐसा कैसे चलेगा।