
Raj Thackeray and Uddhav Thackeray: बीस साल की राजनीतिक दूरी और अचानक मंच साझा करने की ऐसी आत्मीयता कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे, जो कल तक एक-दूसरे की राजनीति को सार्वजनिक मंच से खारिज करते थे, अब एक साथ मंच पर मराठी अस्मिता के झंडे तले रैली कर रहे हैं। मौका था राज्य सरकार की थ्री लैंग्वेज पॉलिसी के खिलाफ विरोध लेकिन मंच पर जो केमिस्ट्री दिखी उसमें भाषा से ज़्यादा चुनावी भावनाएं झलकती दिखीं।
मराठी विजय दिन या ‘राजनीतिक रीयूनियन डे’?
रैली का नाम तो रखा गया मराठी विजय दिन लेकिन इस दिन ने राजनीतिक विश्लेषकों को ज्यादा उत्साहित किया। मानो किसी पुराने टीवी सीरियल के दो अलग हुए किरदार अब एक स्पिनऑफ शो में साथ आने वाले हों। मंच पर राज और उद्धव ने मराठी भाषा के साथ अन्याय की बात तो की, लेकिन आंखों में बीएमसी चुनाव की झलक साफ दिख रही थी।
थ्री लैंग्वेज पॉलिसी: कारण छोटा, ड्रामा बड़ा
मूल विवाद? सरकार ने हिंदी को शैक्षणिक संस्थानों में ज़रा ज्यादा तवज्जो देने की सोची, तो मराठी राजनीति की नींद खुल गई। ठाकरे बंधु जागे, पत्र लिखा, जनता से अपील की, रैली रखी… और सरकार ने आदेश “स्थगित” कर दिया। ठाकरे बंधुओं ने तुरंत इसे जनता की जीत बता दिया, जैसे सरकार ने डरकर घुटने टेक दिए हों। लेकिन जानकारों का कहना है नीति को फाइल में डालना और रद्द करना दो अलग बातें होती हैं।
भाषणों में जोश, लेकिन संकेत किस ओर?
उद्धव ठाकरे बोले कि वे हिंदी के खिलाफ नहीं, लेकिन थोपना नहीं चलेगा शब्दों में संतुलन और रणनीति दोनों साफ थे। राज ठाकरे का अंदाज थोड़ा ज़्यादा ‘मराठी मसालेदार’ था “ये तानाशाही है, मराठी को मिटाने की साजिश है।” दोनों ने मराठी के लिए लड़ने की बात की, पर कोई यह पूछे कि 20 साल में पहली बार ऐसा भाईचारा क्यों उमड़ा तो जवाब मंच से नहीं, सियासत से आएगा।
चुनावों का ‘ट्रेलर’ या वापसी की रिहर्सल?
बीजेपी ने तुरंत ताना मारा: BMC चुनाव की आहट है, भाई भी भाई लग रहे हैं। कांग्रेस ने मंच से दूरी बनाई, मानो वह भी इस सियासी मेल को ज्यादा सीरियसली नहीं ले रही। राज ठाकरे के राजनीतिक ग्राफ की बात करें, तो 2009 की ऊंचाई से अब 2024 की “नो सीट” वाली खाई तक पहुंच चुके हैं। वहीं उद्धव ठाकरे को शिवसेना का नाम, चुनाव चिह्न और संगठन तीनों में झटका लग चुका है। ऐसे में भाई-भाई मिलकर अब मराठी कार्ड फिर से खेलने की तैयारी में हैं।
राजनीति में पुराने रिश्ते, नए फायदे
ठाकरे बंधुओं का मंच साझा करना मराठी गर्व का नारा हो सकता है, लेकिन साथ ही ये उस राजनीतिक असुरक्षा का संकेत भी है जो तेजी से बदलते जनाधार में उभर रही है। राजनीति में रिश्ते हमेशा “स्थायी” नहीं होते आज दुश्मन, कल मंच साझा करने वाले साथी बन सकते हैं… और जनता? उसे पता है कि कब नारा है, और कब ‘नाटक’!