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    Home » तुम ‘कवि’ नहीं, ‘साहित्य के सर्प’ हो! 
    भारत

    तुम ‘कवि’ नहीं, ‘साहित्य के सर्प’ हो! 

    By December 26, 2024No Comments7 Mins Read
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    हाल ही में एक व्यक्ति जो ख़ुद को कवि कहता है और अब रामकथा वाचक भी है, ने एक बेहद निम्न स्तरीय टिप्पणी की है। इस कवि ने मंच पर खड़े होकर एक महिला (अभिनेत्री) के व्यक्तिगत जीवन को अपनी रूढ़िगत मानसिकता से नोंचने की कोशिश की है। मंच पर खड़े होकर, हँसी ठहाकों के बीच यह कवि इस प्रसिद्ध भारतीय अभिनेत्री के वैवाहिक जीवन पर अभद्र टिप्पणी करता है। अभिनेत्री ‘हिंदू’ हैं और उन्होंने जिससे शादी की है वह मुस्लिम है। अभिनेत्री के पिता जो ख़ुद एक विख्यात अभिनेता और वर्तमान में राज्यसभा में सांसद हैं, उनका नाम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के एक भाई से जुड़ा हुआ है। अभिनेता के मुंबई स्थित बंगले का नाम ‘रामायण’ है। यह कवि कहता है कि ‘अपने बच्चों को नाम याद कराओ, सीता जी की बहनों के, भगवान राम के भाइयों के। एक संकेत दे रहा हूं, जो समझ जाए उनकी तालियां उठे। अपने बच्चों को रामायण सुनाइए। महाभारत पढ़ाइए। गीता पढ़ाइए। अन्यथा ऐसा ना हो कि आपके घर का नाम तो रामायण हो और आपके घर की श्री लक्ष्मी को कोई और उठा कर ले जाए।’ अपनी निर्लज्जता और धार्मिक पशुता के प्रचार के लिए लोगों से तालियों की माँग करता यह व्यक्ति एक हिन्दू महिला के मुस्लिम व्यक्ति के साथ विवाह को लेकर छनका हुआ है।

     

    कुछ लोग इस टिप्पणी को शत्रुघ्न सिन्हा और उनकी बेटी सोनाक्षी सिन्हा से जोड़कर देख रहे हैं क्योंकि उनके मुंबई स्थित आवास का नाम भी ‘रामायण’ है और अभिनेत्री सोनाक्षी ने अपनी मर्जी से अभिनेता ज़हीर इक़बाल के साथ अंतरधार्मिक विवाह किया है। कोई व्यक्ति जिसे ख़ुद को कवि कहलाना पसंद है, जो वर्षों तक अंतरधार्मिक विद्वानों/साहित्यकारों के बीच कविताएँ पढ़ता रहा, सम्मान पाता रहा, आज अचानक से जब देश का राजनैतिक माहौल ‘बहुसंख्यकवादी’ बन गया है, आज जब इस देश को तमाम उदार आवाज़ों की ज़रूरत है, आज जब इस देश को ऐसी विवेचनाओं और व्याख्याओं की ज़रूरत है जिससे देश अखंड बना रहे, प्रगति करता रहे, समरसता का माहौल स्थापित हो सके तब उसे देश की किसी अन्य घटना का ज़िक्र करना जरूरी नहीं लगा।

    उसे लगा कि राम कथा बाँचते-बाँचते राम उसकी संपत्ति हो गए हैं, वो राम और रामायण का नाम लेकर लोगों की निजी जिंदगी में झाँक सकता है लोगों को यह पाठ पढ़ा सकता है कि प्रेम किससे किया जाए विवाह किससे किया जाए मुझे नहीं लगता कि वह कोई कवि हैं, मैं तो इन्हें ‘साहित्य के सर्प’ मानता हूँ जो साहित्य की उसी उदार परंपरा को ही डसने में लगे हैं जिसने इनका पालन-पोषण किया है। इस लेख का उद्देश्य उस कवि का नाम उजागर करना नहीं बल्कि यह समझना है कि असल में कवि कौन होता है कवि का काम क्या होता है क्या तुकांतों में महारत हासिल किए व्यक्ति को कवि स्वीकार कर लेना चाहिए साथ ही यह भी कि कविता को पंक्तियों का संकलन और शब्दों की जादूगरी समझना चाहिए या एक आंदोलन

    हालाँकि, जिस कवि ने यह बात बहुत स्पष्ट और ‘गौरवपूर्ण भाव’ में कही थी वह अगले दिन एक अन्य टीवी इंटरव्यू में इसमें लीपापोती करने में लगा गया। अपनी उच्छृंखल टिप्पणी के बाद यह कवि एक टीवी कार्यक्रम में जाकर अपने बचाव में कहता है कि “मैं जहां रहता हूं गाजियाबाद और नोएडा में, वहां हर 10 घरों में किसी का नाम रामायण है, किसी का गोकुल, साकेत, श्रीधाम, नंदावन है। यही कुछ नाम है, जिसे लोग चुन लेते हैं”। लेकिन जल्द ही अपने स्वरूप में वापस आकर कहता है कि “यह सच है कि भारत की सांस्कृतिक चेतना के प्रति वितृष्णा पैदा करने का षडयंत्र हुआ है। इससे आप बहुत सॉफ्ट बनकर, प्यारे और गुडी-गुडी बनकर या हार्मनी का चेहरा ओढ़कर पीछा नहीं छुड़ा सकते हैं”।

    सवाल यह है कि यह तथाकथित कवि और कथावाचक किस ‘सांस्कृतिक चेतना’ की बात कर रहा है हजारों सालों की विकसित भारतीय चेतना के बारे में प्रसिद्ध आलोचक और साहित्यकार डॉ. नगेन्द्र मानते थे कि ‘समन्वय भारत का संस्कार है’ और कविताओं ने इस संस्कार को एक आंदोलन के रूप में ही लिया। शब्दों की जादूगरी में न कालिदास फँसे, न कबीर और न ही आधुनिक निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध जैसे कवि। इन सभी के लिए कविता एक आंदोलन की तरह ही थी जिसका उद्देश्य हर हाल में रूढ़ियों पर प्रहार करना और समन्वय की चेतना को पैना करना था। जिस देश में ऐसे साहित्यकारों की परंपरा रही हो वहाँ किसी को ‘कवि’ कहने से पहले अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिए। अभी तक तो नेता, अभिनेता और जज ही मिले थे जो खुलकर नाज़ीवादी बहुसंख्यक प्रवृत्तियों को प्रश्रय दे रहे थे लेकिन अब ऐसे कवि भी सामने आ रहे हैं जो खुलकर कविता को धर्म और रूढ़ियों तक ही सीमित रखना चाहते हैं।

    मेरा यह कहना है कि तुम रामायण की व्याख्या में मानवता नहीं भूल सकते हो। तुम महाभारत/गीता पढ़ने के आग्रह के बीच सांप्रदायिकता को जन्म नहीं दे सकते। धर्म के आचरण के नाम पर तुम लोगों के घरों में नहीं झाँक सकते।

    तुम धर्म की शिक्षा को दूसरों के तिरस्कार का आधार नहीं बना सकते। और यह भी कि तुम कवि और धर्मोपदेशक एक साथ नहीं बन सकते। क्योंकि यदि धर्मोपदेशक कोई ‘शहर’ है तो कवि एक ‘ब्रह्मांड’। यदि तुम्हारे पैसे की लत और सत्ता के बगल में बैठने ने, तुम्हें कुटिल व्यापारी (KV) बना दिया है, तो यह तुम्हारा रोग है, तुम्हें संक्रमण फैलाने का हक नहीं है।

    धर्म, आचरण का मसला है, यह किसी किताब या ग्रंथ विशेष से संचालित नहीं हो सकता। यह परमाणविक होता है जो बदलता नहीं, स्थायी रहता है। यह सरकारों को बदलने से नहीं बदलता, यह सत्ता और शक्ति के समीकरणों से अक्षुण्ण रहता है, यह परमात्मा की नहीं, उसके अनुसंधान अर्थात् इंसान की सर्वोच्चता को अपनाता है। समाज को चौपाइयों से बाँधना बंद करना चाहिए, लोगों को धार्मिक आधार पर विभाजित कर सत्ता उपभोग तैयार करने वाली प्रयोगशालाओं को बंद कर देना चाहिए। यदि किसी में कवित्व छूकर भी गया है तो उसे उस मंच से दूर रहना चाहिए जहाँ सांप्रदायिकता मुफ्त में राशन की तरह बाँटी जा रही हो।

    क्योंकि अगर तुम कोई कवि हो और तुम्हारी लेखनी की प्रशंसा एक धर्मांध नेता कर रहा हो, एक ऐसा नेता जिसने दो समुदायों को आपस में लड़ाने में डॉक्टरेट कर रखी हो, एक ऐसा नेता जिसके राज में क़ानून और व्यवस्था के नाम पर अल्पसंख्यकों के ‘एक्सटिंक्शन’ की प्रक्रिया चल रही हो, एक नेता जो कुंभ जैसे समावेशी उत्सव को भी सांप्रदायिक जमावड़े में तब्दील करने का काम करा रहा हो, तो तुम्हें आश्वस्त हो जाना चाहिए कि तुम कभी कवि नहीं थे और न ही अब कवि हो! सवाल यह है कि यदि तुम्हें कवि कहेंगे तो निराला को क्या कहेंगे तुम्हें कवि कहा तो मुक्तिबोध को क्या कहेंगे तुममें साहित्यकार को खोजा तो प्रेमचंद और अज्ञेय को क्या कहेंगे कवि का काम है यह बताना कि- 

    “भीतर जो शून्य है

    उसका एक जबड़ा है

    जबड़े में माँस काट खाने के दाँत हैं ;

    उनको खा जायेंगे,

    तुम को खा जायेंगे।”(मुक्तिबोध)

    और कविता का काम ‘दीवाना’ और ‘पागल’ खोजना नहीं बल्कि यह समझाना है कि-

    “गहन है यह अंधकारा;

    स्वार्थ के अवगुंठनों से

    हुआ है लुंठन हमारा।” (निराला)

    मतलब, देश के पतन का कारण लोगों के निहित स्वार्थ हैं। 

    निराला जिन्होंने ‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से एक मिथकीय, प्रचलित, स्वीकार्य धार्मिक रचना को सम्पूर्ण मानवीय संघर्ष से जोड़कर दिखा दिया। धार्मिक चरित्र के केंद्र में होते हुए भी सांप्रदायिकता छूकर भी ना जा सकी। मिथक को यथार्थ से जोड़ा, समाज के लिए प्रेरणा को जन्म दिया, अध्यात्म और दार्शनिकता के अद्भुत संगम से यह रचना कालजयी हो गई। गीता प्रेस निराला को ‘कल्याण’ में लिखने के लिए बोलता रहा लेकिन महाप्राण निराला सांप्रदायिकता को वैधता प्रदान नहीं करना चाहते थे। महाप्राण निराला सच्चे कवि थे उनकी प्रतिबद्धता मानवता को लेकर थी, धर्म की संकुचित विवेचना से उनका कोई सरोकार नहीं था। 

    उसे कैसे कवि कहेंगे जो मिथक को सत्य बताकर उससे धन उगाह रहा है। सांप्रदायिकता को भारत की स्वस्थ साहित्यिक परंपरा से जोड़ने की कोशिश कर रहा है। जो यह समझ ही नहीं सका कि ‘राम’ मानवता के प्रतीक और संघर्ष के स्तंभ हैं न कि एक धनलोलुप सत्ताप्रेमी कथावाचक की विलासितापूर्ण जीविका चलाने के साधन! 

    असल में स्वस्थ चेतनायें मानवीय होती हैं धार्मिक नहीं! लेकिन जब उन्हें धार्मिकता से ढँका जाता है तो समाज घुटता है और विस्फोट होता है। कुछ लोग इसी विध्वंस के ऊपर खड़े होकर कविता पाठ करते हैं। सांप्रदायिकता का छिड़काव करने वाले ऐसे लोगों को कवि कहने से बचना चाहिए। 

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