आज़ाद भारत की संविधान सभा में जब संविधान निर्माण हो रहा था उस समय वहाँ मौजूद 15 महिला सदस्यों ने एक आपसी सहमति से महिलाओं के लिए किसी भी क़िस्म के आरक्षण का विरोध किया। रेणुका रे, पूर्णिमा बनर्जी और दक्षायणी वेलायुधन जैसी महिलाओं का कहना था कि उनके लिए भारत की आज़ादी ज़रूरी थी, एक संप्रभु देश का बनना ज़रूरी था और जो आवश्यक था समानता का अधिकार, ये सब उन्हें मिल चुका है। अब उन्हें कुछ भी अतिरिक्त नहीं चाहिए। सरोजिनी नायडू ने अपने समापन भाषण में कहा कि महिलाओं को किसी सहारे की ज़रूरत नहीं है वो इस महान देश के विकास के लिए पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार हैं। सभी महिलाओं ने अपने स्वभाव के अनुरूप पूरे देश को अपना परिवार समझा और उन्हें इस परिवार में अब किसी भी क़िस्म का विभाजन नहीं चाहिए था। संविधान सभा की एक मात्र दलित महिला सदस्य दक्षायणी वेलायुधन ने तो यहाँ तक कह दिया था कि “..हमें नैतिक सुरक्षा चाहिए, न कि सभी प्रकार की गारंटी”।
आधुनिक भारत की इन 15 निर्माताओं ने हर शोषण और संकट को भुलाकर आगे बढ़ने का फ़ैसला किया। उन्हें भरोसा था कि आज़ाद भारत में महिलाओं को उनकी सुरक्षा के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। लेकिन उन्हें शायद इतना अंदाज़ा नहीं लगाया कि देश में ऐसी सरकारें भी सत्ता में आ सकती हैं जो महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध में शामिल लोगों को न सिर्फ़ पार्टी में बनाये रखेंगी, बल्कि उन्हें उनकी अनैतिकता के लिए उचित प्रोत्साहन भी दिया जाएगा। नेहरू को अपने नेता के रूप में देखने की आदी हो चुकी महिलाओं को यह अंदाज़ा ही नहीं हुआ होगा कि कोई ऐसा भी व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बनेगा जो गंभीर यौन शोषण के मामलों में शामिल, पार्टी के बड़े नेताओं पर मौन धारण कर लेगा, ऐसा मौन जैसे उसे कुछ सुनाई ही नहीं देता हो।
मुझे भरोसा है उन सभी 15 महिलाओं पर कि आज वो होतीं तो आज की ऐसी स्थिति पर उन्हें बहुत ग़ुस्सा आता और वो न तो इस सरकार को बख्शतीं और न ही इसके प्रधान को। आज विजय शाह के रूप में एक ऐसा मामला सामने है जिससे पूरा देश शर्मशार है लेकिन न ही श्रीमान प्रधानमंत्री को कोई फ़र्क़ पड़ रहा है और न ही संस्कृति का च्युंगम चबाने वाली आरएसएस को! विजय शाह मध्य प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं उनके पास संभालने को जनजातीय कार्य, सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन, और भोपाल गैस त्रासदी राहत और पुनर्वास विभाग हैं। विजय शाह ने 12 मई 2025 को इंदौर जिले के रायकुंडा गाँव में एक सार्वजनिक सभा में कहा कि “जिन लोगों (आतंकवादियों) ने हमारी बहनों का सिंदूर छीना (पहलगाम आतंकी हमले में)… हमने उनकी बहन को भेजकर इन कटे-पिटे लोगों का बदला लिया। उन्होंने (आतंकवादियों) हमारे हिंदू भाइयों को कपड़े उतारकर मारा।
पीएम मोदी जी ने उनकी (आतंकवादियों की) बहन को सेना के हवाई जहाज में भेजकर उनके घरों में प्रहार किया। उन्होंने (आतंकवादियों) हमारी बहनों को विधवा बनाया, तो मोदी जी ने उनकी कौम की बहन को भेजकर उन्हें नंगा करके सबक सिखाया।” बीजेपी मंत्री शाह का इशारा सोफिया क़ुरैशी की ओर था। भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर तैनात सोफिया क़ुरैशी ने 2025 में हुए ऑपरेशन सिंदूर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो आतंकवादी ठिकानों के ख़िलाफ़ भारतीय सेना की एक लक्षित कार्रवाई थी। वह इस ऑपरेशन की प्रेस ब्रीफिंग में सेना का चेहरा थीं, जिसने उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में ला दिया। जब दुनिया भर के लोग सोफिया के साहस और काबिलियत से परिचित हो रहे थे तब बीजेपी के मंत्री विजय शाह सोफिया के धर्म की निर्लज्ज विवेचना करने में लगे हुए थे।
यह बात सही है कि इस आदमी ने अपने इस कुकृत्य के लिए माफ़ी माँग ली है लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत की एकता और अखंडता को तोड़ने की कोशिश करने वाले के लिए कोई माफ़ी हो सकती है? मेरी नज़र में तो बिल्कुल नहीं। और शायद भारत की न्यायपालिका भी यही मानती है। जब प्रदेश की मनमोहन यादव सरकार अपने मंत्री की बदतमीजी पर कोई कार्यवाही नहीं कर पायी तो मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने क़दम उठाया। न्यायालय ने मंत्री के ख़िलाफ़ फौरन FIR दर्ज करने का आदेश दिया। और सोचिए सरकार ने क्या किया? FIR दर्ज की लेकिन उसमें यह नहीं बताया कि अपराध क्या है? उच्च न्यायालय ने इसे धोखा माना और साफ़ कह दिया कि अब इस मामले में उसे सरकार पर भरोसा नहीं है इसलिए इस मामले की निगरानी वह खुद करेगा। कोर्ट ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि बिना निगरानी के पुलिस निष्पक्ष कार्यवाही करेगी!
आपको आश्चर्य हो रहा होगा ना कि ऐसा कैसे हुआ? पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। असल में भारतीय जनता पार्टी की सरकारों का यही चरित्र ही है, कम से कम पिछले एक दशक में तो ऐसे ढेरों मामले मैंने ख़ुद देखे हैं। पहले तो यह कि, 8 बार विधायक रह चुके विजय शाह की इतनी हिम्मत कैसे हुई कि सेना की एक वरिष्ठ अधिकारी को हिंदू बनाम मुस्लिम में घसीटे? निश्चित ही यह उनकी राजनैतिक विकास यात्रा का हिस्सा रहा होगा। शायद इसी विकास ने उन्हें लगभग 30 सालों से राजनीति में बनाये रखा है। लेकिन अगर कोई कैबिनेट मंत्री इतने निम्न स्तर पर उतर ही आए और देश में विभाजन की बात करने लगे तो क्या प्रदेश के मुख्यमंत्री को कोई एक्शन नहीं लेना चाहिए? सवाल यह है कि उनके ख़िलाफ़ ऐक्शन क्यों नहीं लिया गया? तो क्या यह समझा जाना चाहिए कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने कैबिनेट मिनिस्टर की सोच से सहमत हैं? क्या ये कहा जाए कि कुछ तो सहमति अवश्य होगी? वरना अगर ख़ुद कार्यवाही नहीं कर सकते थे तो उच्च न्यायालय के आदेश के बाद तो कठोर कार्यवाही करते? सवाल यह भी है कि FIR में उनके अपराध का ज़िक्र क्यों नहीं किया गया? क्या यह कोई चाल है जिससे क़ानून के रास्ते ही क़ानून से खेला जा सके? मुझे नहीं पता।
क्या इस राज्य सरकार को महिला और अल्पसंख्यक मुद्दों पर ‘मौनव्रत’ धारण करने की परंपरा केंद्र से विरासत में मिली है। केंद्र की मोदी सरकार का भी रवैया लगभग ऐसा ही है। इस मामले में पीएम सीधे दख़ल दे सकते थे लेकिन उन्होंने चुप्पी बनाये रखी और ऐसी वैचारिक गंदगी को फैलने दिया कि सोफिया कुरैशी भारत का गौरव बाद में होंगी लेकिन पहले वो एक मुसलमान हैं।
महिलाओं पर भद्दी टिप्पणी करना और उस पर शीर्ष नेतृत्व का मौन रहना बहुत विचलित करने वाला है। केंद्र सरकार न तो सोफिया कुरैशी का सम्मान बचा सकी और न ही देश के विदेश सचिव विक्रम मिसरी की बेटी और पत्नी का। युद्ध रोकने की घोषणा के लिए विक्रम मिसरी को सरकार ने टेलीविजन पर भेजा और इसके बाद उनकी बेटी को बलात्कार की धमकियाँ मिलना शुरू हो गईं। जो लोग ऐसी धमकियाँ दे रहे थे उनके बायो में ‘कट्टर राष्ट्रवादी’ लिखा हुआ था।
वेलायुधन होती तो पूछतीं कि आख़िर हमने नैतिक समर्थन माँगा था, हमें यह भी क्यों नहीं दिया गया? मुझे सही से मालूम है कि मोदी सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है। ऑपरेशन सिंदूर तो चलाया गया लेकिन शहीद की पत्नी हिमांशी नरवाल के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया में जिस तरह से चारित्रिक हनन का खेल चलाया गया उसे सरकार ‘मौनव्रत’ में सुनती रही। यह सरकार की अक्षमता नहीं है बल्कि एक फ़ैसला है कि उन्हें सोशल मीडिया में महिलाओं को गालियाँ देने वालों के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं करनी है। आश्चर्य होता है कि सरकार महिलाओं की अस्मिता पर हो रहे इस हमले को अनसुना कर रही है। सवाल यह है कि वह ऐसा क्यों कर रही है?
पूरे देश ने देखा कि बृजभूषण शरण सिंह ने बहुत शर्मनाक तरीक़े से महिला पहलवानों का, देश के लिए मेडल लाने वाली महिलाओं का यौन शोषण किया लेकिन इन्हें पार्टी से निकाला तक नहीं गया। भाजपा में ऐसे लोगों का जखीरा है।
रामदुलारे गोंड का मामला नहीं भूलना चाहिए। इन पर 2014 में एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार का आरोप लगा, आरोप यह था कि रामदुलारे गोंड बच्ची पर दबाव बनाकर एक साल तक बलात्कार करता रहे। इस बीच ये व्यक्ति राजनीति में भी सक्रिय थे। ऐसी विकृत मानसिकता के आदमी को बीजेपी ने 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में दुद्धी विधानसभा से टिकट दे दिया। इस सीट पर बीजेपी कभी नहीं जीती थी। लेकिन यह आदमी चुनाव जीत गया। एक विकृत सोच को बीजेपी ने विधानसभा में भेज दिया। एक साल के भीतर 2014 के मामले का फैसला आ गया और इस आदमी को 25 सालों की कठोर सजा मिली। सजा के बाद क़ानूनन इन्हें हटाया गया, सवाल यह है कि बीजेपी ने ऐसे विकृत आदमी को टिकट क्यों दिया? यह सब पहली बार नहीं हुआ है। कठुआ बलात्कार, 2018 मामले में जिस तरह जम्मू और कश्मीर की बीजेपी ने बलात्कारियों का साथ दिया वह परेशान करने वाला था, बीजेपी विधायक कुलदीप सेंगर ने एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार किया और उसके पिता की भी हत्या कर दी, उत्तराखंड में अंकिता भंडारी के साथ बलात्कार में बीजेपी नेता का बेटा शामिल था, और अभी हाल ही में सितंबर 2024 में, उत्तराखंड सहकारी डेयरी फेडरेशन के प्रशासक और वरिष्ठ भाजपा नेता मुकेश बोरा पर बलात्कार और धमकी देने का मामला दर्ज किया गया था।
ऐसे कई मामले हैं, कुछ में पार्टी ने कार्रवाई की है और कुछ जैसे विजय शाह और बृजभूषण शरण सिंह जैसों को बचाया भी गया। जबकि महिला अपराधों के ख़िलाफ़ ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनायी जानी चाहिए थी। पार्टी के नेतृत्व के लिए ये सब बस सामान्य घटनाएँ होंगी लेकिन जिन्होंने देश पर भरोसा किया, आरक्षण नहीं माँगा और संविधान के समानता के वादे पर आगे बढ़ गईं उनके साथ यह छल है। शर्म आनी चाहिए नीति निर्माताओं को कि वो भारत में लैंगिक समानता के लिए कुछ निर्णायक नहीं कर सके। वैश्विक आर्थिक मंच द्वारा जारी की गई ‘लैंगिक अंतराल रिपोर्ट-2024’ में 146 देशों की वैश्विक रैंकिंग में भारत 129वें स्थान पर है। महिला और पुरुषों के बीच लैंगिक अंतराल बढ़ता ही जा रहा है। 2023 में भारत 127वें स्थान पर था।
यह इतिहास का बेहद नाजुक दौर है जहाँ दुनिया के तमाम देश ऐसे हैं जो नाभिकीय क्षमता से भरे हुए हैं। इनमें पाकिस्तान जैसे कुछ नासमझ देश भी हैं तो भारत जैसे तमाम परिपक्व देश भी हैं। नाभिकीय क्षमता से भरे देशों में सीधी आपसी लड़ाई लंबे समय तक चलना मुश्किल है। ऐसे देश की सुरक्षा के लिए जहाँ सेना को सीमाओं पर काम करने देना होगा वहीं देश के भीतर सिर्फ़ आपसी सामंजस्य से ही बात बनेगी। दूसरे शब्दों में देश की अखंडता अब सिर्फ़ हथियारों से नहीं बनाये रखी जा सकेगी इसके लिए देश में अंतरधार्मिक एकता एक आवश्यक शर्त होगी। इसके अलावा भी एक सच है वह ये कि देश की आधी आबादी को सिर्फ़ राष्ट्रवाद के उन्माद पर ही जोड़े रखना बहुत मुश्किल होगा। फ़र्क़ नहीं पड़ता आपके पास कौन से और कितने हथियार हैं लेकिन महिलाओं के असुरक्षित होने से कमजोर राष्ट्र ही बनेगा। उन्हें वास्तविक सुरक्षा चाहिए प्रज्ज्वल रेवन्ना जैसों से, विजय शाह और बृजभूषण सरीखे लोगों से भी! यह सिर्फ़ तभी संभव है जब देश ‘क़ानून के शासन’ पर चले और संविधान की सर्वोच्चता हो; न कि किसी नेता विशेष की सर्वोच्चता। लेकिन पिछले दस सालों में जिस चीज का सबसे ज़्यादा क्षरण हुआ है वह है क़ानून का शासन।