सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाले मध्यस्थता ट्रिब्यूनल के एक फ़ैसले को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने पाया कि इस फ़ैसले के क़रीब 50% हिस्से किसी दूसरे मामले के एक फ़ैसले की कॉपी थे। सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि फ़ैसले के 451 में से 212 पैराग्राफ दो अन्य समानांतर मध्यस्थता फ़ैसलों से कॉपी-पेस्ट किए गए थे। यह निर्णय अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की विश्वसनीयता और भारतीय न्यायिक हस्तियों की भूमिका पर सवाल उठाता है।
यह मामला भारत की डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया और तीन कंपनियों के एक कंसोर्टियम के बीच एक रेलवे अनुबंध से जुड़ा था। मध्यस्थता की सुनवाई दिसंबर 2021 में शुरू हुई थी, जिसमें तीन सदस्यीय ट्रिब्यूनल का गठन किया गया था। इसमें पूर्व सीजेआई दीपक मिश्रा अध्यक्ष थे, जबकि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश कृष्ण कुमार लाहोटी और जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल अन्य सदस्य थे। ट्रिब्यूनल ने अपना फ़ैसला सुनाया, लेकिन इसे सिंगापुर इंटरनेशनल कमर्शियल कोर्ट यानी एसआईसीसी में चुनौती दी गई।
एसआईसीसी ने 2024 में इसे रद्द कर दिया था और अब सिंगापुर अपील कोर्ट ने भी इस फ़ैसले को बरकरार रखा। कोर्ट ने कहा कि इतनी बड़ी मात्रा में कॉपी-पेस्ट सामग्री का इस्तेमाल प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और यह संदेह पैदा करता है कि ट्रिब्यूनल ने मामले के तथ्यों पर स्वतंत्र रूप से विचार नहीं किया।
मुख्य न्यायाधीश सुंदरेश मेनन के नेतृत्व वाले सिंगापुर अपील कोर्ट ने अपने 40 पन्नों के फ़ैसले में कहा कि 212 पैराग्राफ़ की नकल से साफ़ पक्षपात का आभास होता है। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि यह असामान्य है कि मध्यस्थों के नाम सार्वजनिक किए जाएँ, लेकिन मामले की गंभीरता को देखते हुए दीपक मिश्रा का नाम स्पष्ट रूप से उल्लेख करना ज़रूरी था। कोर्ट का मानना था कि यह नकल न केवल प्रक्रियात्मक खामी है, बल्कि यह मध्यस्थता की मूल भावना निष्पक्षता और स्वतंत्रता को भी ठेस पहुँचाती है।
सिंगापुर एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र है। इस तरह की घटना से वैश्विक स्तर पर मध्यस्थता प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर असर पड़ सकता है। जानकारों का कहना है कि यह मध्यस्थों के चयन और उनके काम की गुणवत्ता पर सख्त निगरानी की ज़रूरत को दिखाता है।
दीपक मिश्रा जैसे प्रतिष्ठित पूर्व सीजेआई का नाम इस विवाद में आना भारतीय न्यायिक प्रणाली के लिए शर्मिंदगी का कारण बन सकता है। इससे भारत से आने वाले मध्यस्थों की साख पर भी सवाल उठ सकते हैं।
क्या मध्यस्थता में पहले के फ़ैसलों से सामग्री लेना ग़लत है कुछ जानकारों का मानना है कि कुछ हद तक संदर्भ लेना स्वीकार्य है, लेकिन 50% कॉपी-पेस्ट को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह नैतिकता और मौलिकता की सीमा पर बहस को खड़ा करता है।
भारत के 45वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में जस्टिस दीपक मिश्रा ने 28 अगस्त 2017 से 2 अक्टूबर 2018 तक यह पद संभाला। वह अपने कार्यकाल में भी कई विवादों में घिरे रहे थे।
चार जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस
दीपक मिश्रा के कार्यकाल का सबसे बड़ा विवाद तब सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसफ ने 12 जनवरी 2018 को एक अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस की। उन्होंने सीजेआई पर मनमाने ढंग से संवेदनशील मामलों को बेंचों में आवंटित करने का आरोप लगाया। जजों का कहना था कि ‘लोकतंत्र ख़तरे में है’ और सीजेआई ने मास्टर ऑफ रोस्टर की शक्ति का दुरुपयोग किया। यह घटना भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार थी, जिसने मिश्रा की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाए।
जज लोया मौत मामले में फ़ैसला
सीबीआई जज बी.एच. लोया की संदिग्ध मौत की स्वतंत्र जाँच की मांग को लेकर दायर याचिकाओं को दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने खारिज कर दिया था। 19 अप्रैल 2018 को दिए गए फ़ैसले में कोर्ट ने कहा कि लोया की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई और इसमें कोई साजिश नहीं थी। इस मामले में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का नाम जोड़ा गया था, जिसके चलते विपक्ष और कई कानूनी विशेषज्ञों ने फैसले को पक्षपातपूर्ण करार दिया।
आलोचकों का कहना था कि यह फैसला जल्दबाजी में और अपर्याप्त सबूतों के आधार पर लिया गया।
आधार कार्ड की संवैधानिकता
26 सितंबर 2018 को दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने आधार योजना को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया, लेकिन कुछ शर्तों के साथ। कोर्ट ने कहा कि आधार को बैंक खातों, मोबाइल नंबर और निजी संस्थानों से जोड़ना अनिवार्य नहीं होगा। हालाँकि, इस फैसले में मिश्रा का बहुमत का निर्णय था, लेकिन जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने असहमति जताते हुए आधार को ‘संविधान पर धोखा’ करार दिया।
बहरहाल, सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट वाली यह घटना भारत के लिए एक चेतावनी है। मध्यस्थता तेजी से विवाद समाधान का पसंदीदा तरीका बन रही है और भारतीय कंपनियाँ और संस्थाएँ इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। ऐसे में मध्यस्थों की नियुक्ति में पारदर्शिता, उनकी योग्यता की जाँच, और फ़ैसलों की मौलिकता सुनिश्चित करना ज़रूरी है। यह भी सवाल उठता है कि क्या ट्रिब्यूनल के अन्य सदस्यों ने इस नकल पर ध्यान नहीं दिया या इसे नजरअंदाज किया गया
सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला केवल एक फ़ैसले को रद्द करने तक सीमित नहीं है; यह मध्यस्थता की प्रक्रिया, नैतिकता और विश्वसनीयता पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। पूर्व सीजेआई दीपक मिश्रा का नाम इसमें शामिल होना इसे और संवेदनशील बनाता है। यह घटना भारत को अपनी कानूनी और मध्यस्थता प्रणाली में सुधार के लिए प्रेरित कर सकती है, ताकि भविष्य में ऐसी शर्मिंदगी से बचा जा सके।