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    Home » बिहार में पुराने चेहरे-पैंतरे से कितनी चल पाएगी राजनीति?
    भारत

    बिहार में पुराने चेहरे-पैंतरे से कितनी चल पाएगी राजनीति?

    By February 26, 2025No Comments6 Mins Read
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    आख़िरकार निशांत कुमार का बयान भी आ गया कि एनडीए को चाहिए कि नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने की घोषणा कर दे। निशांत माने नीतीश कुमार के पुत्र। पहली बार सार्वजनिक रूप से ऐसा बयान देकर उन्होंने कई तरह के संकेत दिए। निश्चित रूप से पहला संकेत तो राजनीति में आने का है। बीते बीस साल से मुख्यमंत्री के संग रहने और अकेली संतान होने के चलते सारा लाड़-प्यार पाने के बावजूद अभी तक उनके किसी आचारण को लेकर किसी तरह की चर्चा नहीं थी। बल्कि वे इतने शांत और सावधान तरीके़े से रहते थे कि काफ़ी सारे राजनैतिक पंडित उनके सामान्य होने पर ही शक करते थे। अब अगर वे बीआईटी मेसरा से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद और पचास साल की उम्र में पार्टी तथा समाज के अनेक पक्षों से बार बार की जा रही मांग के बाद सक्रिय होने का फैसला करते हैं तो उन्हें शुभकामना दी जा सकती है। अपनी स्वर्गवासी मां के जन्मदिन पर आयोजित किसी कार्यक्रम में उन्होंने यह बात कही और जदयू का प्रदर्शन पहले से बेहतर होने की बात भी कही।

    और यह संयोग है कि उनका कहना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने बिहार दौरे में नीतीश जी को ‘लाड़ला मुख्यमंत्री’ बताने के दो दिन बाद ही हुआ। प्रधानमंत्री ने इस दौरे के साथ ही भाजपा और एनडीए के चुनाव अभियान का शंखनाद भी कर दिया। इसमें लोगों को पाँच साल पहले करोना महामारी के बीच में ही हजारों रंगीन टीवी सेट के माध्यम से बिहार में ऑनलाइन शंखनाद करने वाला प्रसंग भी याद आया क्योंकि प्रधानमंत्री ने एक साथ बिहार के सारे कोनों को छू लिया था। उन्होंने नीतीश जी को आगे रखकर चुनाव लड़ने की घोषणा नहीं की। शायद उनके पास ऐसा कोई और नाम है भी नहीं। लेकिन बीते साल भर में एनडीए और भाजपा की तरफ से यह कहा जाता रहा है। 

    कमाल यह है कि इसके बावजूद निशांत कुमार को यह बात दोहराने की ज़रूरत हुई। बीते दो तीन महीनों में विपक्षी राजद की तरफ से नीतीश कुमार के एक बार फिर से पाला बदलने की बात उछाली जा रही है और लालू प्रसाद यादव ने अब नीतीश का स्वागत करने की बात भी चला दी है।

    खुद नीतीश कुमार भी इस सवाल पर अपने की आचरणों से संदेह गहरा रहे हैं। दिल्ली के अपने दो दौरों में उन्होंने बीजेपी के किसी नेता से भेंट नहीं की या बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने उन्हें समय न दिया। वे दिल्ली में बीजेपी सरकार के शपथ ग्रहण में भी नहीं गए जबकि एनडीए के बाकी सभी मुख्यमंत्री थे। पर उससे भी ज़्यादा चर्चा उनकी पार्टी के दो बड़े नेताओं का दिल्ली आकर पूरी तरह बीजेपी के रंग में रंगना है और इसे राजनैतिक पंडित नीतीश कुमार की घेराबंदी बताते हैं। 

    नीतीश बिहार में भी बीजेपी के एक गुट के व्यवहार को लेकर बहुत प्रसन्न नहीं रहते। यह समूह बीजेपी के अकेले चुनाव लड़ने की वकालत भी करता है। यह अटकल भी लगती है कि चुनाव तक बीजेपी उनको आगे रखकर बाद में कोई और पद या ज़िम्मा दे देगी। नीतीश और उनके समर्थक यह नहीं चाहते।

    अब जाने अनजाने बीजेपी का समर्थन आधार बढ़ता गया है लेकिन अगड़ों को छोड़कर कोई और सामाजिक समूह पक्का समर्थक नहीं है-बीच के प्रयास नीतीश मामले में हां-ना के चक्कर में खिसक गया है।

    इसलिए निशांत के बयान का एक तीसरा मतलब बीजेपी के संग अपनी पार्टी के अगड़े नेताओं के लिए भी है जिनकी बीजेपी से नज़दीकी जगजाहिर है। यही लोग नीतीश कुमार के पाला बदलकर बीजेपी के संग आने का माध्यम भी बने थे और अभी दिल्ली में जमे हैं। बीजेपी को भी इस बयान का मतलब यह निकालना चाहिए कि नीतीश कुमार ललन सिंह, विजय चौधरी और संजय झा जैसों के समानांतर किसी अपने और ज़्यादा भरोसेमंद को खड़ा करना चाहते हैं। निशांत पिता की इच्छा देखकर ही पंख फैलाना शुरू कर रहे हैं। इस क्रम में आईएएस रामचन्द्र प्रसाद सिंह का प्रसंग याद करना चाहिए जो ज़्यादा पंख फैलाकर झुलस चुके हैं। पर जब वे नीतीश जी के साथ थे तो बिना राजनैतिक पृष्ठभूमि के भी सबसे भरोसेमंद थे।

    दूसरी ओर कांग्रेस और राजद के रिश्ते एनडीए के घटकों से भी ज़्यादा ख़राब हैं। हरियाणा का चुनाव हारने के बाद तो अखिलेश और तेजस्वी का रुख भी बदला। दिल्ली चुनाव ने दूरी और बढ़ाई और अब तो एक-दूसरे के ख़िलाफ़ बयानबाजी भी शुरू हो गई है। बीजेपी की तरह कांग्रेस में भी कुछ लोग अलग होकर अकेले चुनाव लड़ने की वकालत कर रहे हैं। कांग्रेस का भी आधार या स्वीकृति बढ़ी है लेकिन कोई एक या दो ठोस सामाजिक आधार नहीं है। मुसलमान समर्थक हैं लेकिन राजद साथ न हो तो उनका वोट मिलने का भरोसा नहीं है। संगठन कमजोर है और अगर कन्हैया कुमार और पप्पू यादव जैसे उत्साही उसके पास हैं तो लालू-तेजस्वी उनको ज़मीन देने को तैयार नहीं हैं। लालू जी ने पिछले लोकसभा चुनाव में अहीरों को कम टिकट दिए, कोइरी समाज को ज़्यादा टिकट दिए और वाम दलों समेत सारे विरोधियों को साथ लेकर अच्छी टक्कर दी लेकिन पहले दो राउंड के बाद बीजेपी ने फिर से जंगल राज का शोर मचाकर बाजी पलट दी।

    इस बार यह शोर पहले से मच रहा है। दूसरी ओर बीजेपी सरकार ने लालू जी और उनके परिवार पर क़ानूनी शिकंजा कसना शुरू कर दिया है जो चुनाव पास आने तक नाटकीय रूप ले लेगा। लालू जी इससे निजी रूप से कमजोर पड़ें न पड़ें, राजनैतिक रूप से कमजोर होंगे। उधर राजद का मतलब अहीर और मुसलमान गठजोड़ से आगे बढ़ ही नहीं रहा है और ऐसा गठजोड़ जैसे ही ताक़तवर दिखता है बीजेपी को सुविधा हो जाती है और ग़ैर यादव पिछड़ों का वोट बढ़ जाता है तथा अगड़ों का वोट ज़्यादा गोलबंद होकर मिलता है। जब तक नेतृत्व में हिस्सेदारी और लोकतान्त्रिक व्यवहार की उम्मीद न हों दूसरे पास आते नहीं और लालू जी से परिवार से अलग नेता और लोकतान्त्रिक आचारण की उम्मीद करना कुछ ज़्यादा ही मुश्किल लक्ष्य है। दुर्भाग्य यह है कि जिस बिहार को अब नई राजनीति की ज़रूरत है वहाँ सब कुछ दो थके पुराने चेहरों के इर्द-गिर्द चलता दिखता है।

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