मध्यप्रदेश के सोयाबीन किसानों को इस वर्ष लगातर चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। पीले मोजैक जैसी बीमारियां, बेमौसम बरसात की वजह से कीटनाशकों का बढ़ा खर्च और फसलों के नुकसान के बाद मुआवजे में आ रही देरी उनकी परेशानियां बढ़ा रही हैं। आइये इस रिपोर्ट के जरिये समझते हैं कि इन तमाम मुश्किलों ने ‘सोया स्टेट’ के किसानों को किस प्रकार प्रभावित किया है, और क्या हैं उनकी सरकार से मांगे।
लौटते मानसून ने बढ़ाई प्रदेश के सोयाबीन किसानों की मुसीबत
सितंबर माह के अंतिम सप्ताह में हुई भीषण बारिश से कई राज्यों में खरीफ की धान की फसल को छोड़कर सोयाबीन, मूंग, उड़द और मक्का की फसल को भारी नुकसान हुआ है। वहीं मौसम विभाग के अनुसार मध्य प्रदेश में इस मानसून सीजन में 18 फीसदी से ज्यादा बारिश हो चुकी है। मध्यप्रदेश में भी सामान्यतः 37.3 इंच के मुकाबले 43.9 इंच बारिश हो चुकी है।
मध्य प्रदेश के भोपाल जिले के बैरसिया तहसील के धमर्रा गांव के किसान राजीव कुशवाह ने ग्राउंड रिपोर्ट से कहा,
“मैंने अपने पांच एकड़ के खेत और बटाई के 40 एकड़ के खेत में सोयाबीन की फसल बोई, जो सितंबर माह के अंतिम सप्ताह में पांच दिनों तक हुई बारिश से पूरी तरह से चौपट हो गई हैं। कर्जा चुकाने में सालों लग जाएंगे। बच्चों को क्या खिलाउंगा, उन्हें कैसे पढ़ाउंगा, मैं आगे खेती कैसे करूंगा, कुछ भी समझ नहीं आ रहा हैं।”
देश में सोयाबीन उत्पादन और बुवाई के मामले में मध्यप्रदेश पहले स्थान पर है, जिसकी हिस्सेदारी 55 से 60 प्रतिशत के बीच है। किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग और सोयाबीन किसानों, निर्यातकों और व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सोपा) के मुताबिक मध्य प्रदेश में साल 2024 के खरीफ सीजन में 52.009 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सोयाबीन की बुवाई हुई है। वहीं इस वर्ष सोयाबीन का अनुमानित उत्पादन 55.397 लाख मीट्रिक टन हैं।
राज्य का मालवा-निमाड़ क्षेत्र ( भोपाल, गुना, रायसेन, सागर, विदिशा, देवास, सीहोर, उज्जैन, शाजापुर, इंदौर, रतलाम, धार, झाबुआ, मंदसौर, राजगढ़, नीमच ) सोयाबीन की खेती के लिए जाना जाता हैं। इन क्षेत्रों में सोयाबीन की फसल को 80 फीसदी तक नुकसान हुआ हैं। कहीं-कहीं तो पूरी तरह से फसल तबाह हो गई हैं।
किसानों का कहना हैं कि पकने के लिए तैयार सोयाबीन की फसल का बड़ा हिस्सा खेतों में जलभराव से प्रभावित हुआ है। वहीं जो किसान फसल काट चुके थे, उनकी फसल भी खेतों में पानी भरने से काली पड़ गई है।
लगातार बारिश से कई इलाकों में सोयाबीन पुनः अंकुरित हो गई, जबकि किसान पहले ही पीला मोजेक और इल्ली जैसे रोगों से परेशान होने के साथ कम भाव को लेकर विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। बांकी की कसर बारिश ने पूरी निकाल दी है। जिससे अधिकतर किसानों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया हैं।
राजीव कुशवाह कहते हैं कि, उनकी फसल पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी हैं। राजीव आगे कहते हैं,
“इस फसल पर प्रति एकड़ 15 से 20 हजार रू. तक खर्च कर चुका हुआ और इस तरह मुझे लाखों रू. का नुकसान हो चुका है। इसमें अभी तो मुनाफा जोड़ा ही नहीं हैं।”
मध्य प्रदेश, किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग की मानें तो राज्य में सोयाबीन की पैदावार प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल होती हैं। इस हिसाब से राजीव के नुकसान का आंकलन करें तो उन्होंने 16 हेक्टेयर यानि 40 एकड़ में सोयाबीन की फसल बोई है, जोकि पूरी तरह से तबाह हो चुकी हैं। सरकार द्वारा सोयाबीन पर एमएसपी यानि समर्थन मूल्य 4892 रू. तय किया गया है।
राजीव की फसल अगर सही होती तो उन्हें सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही सोयाबीन की फसल की पैदावार 16 हेक्टेयर में करीब 400 क्विंटल की होती। अगर वे इसे सरकारी रेट पर ही बेंचते तो उन्हें 19,56,800 रू. मिलते। इसमें से उनकी लागत, 15 हजार रू. प्रति एकड़ के हिसाब से 6,00,000 रू. निकाल दें तो भी उन्हें करीब 13,56,800 रू. का मुनाफा होता, जोकि सितंबर माह में हुई बारिश के पानी में डूब गया हैं।
कहां कितना हुआ नुकसान, सर्वे की क्या स्थिति
भोपाल जिले में 1.016 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सोयाबीन की बुवाई हुई हैं, लेकिन बारिश ने सोयाबीन की फसल को 80 से 90 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाया हैं। बैरसिया स्थित धमर्रा गांव के किसान और भारतीय किसान संघ से जुड़े अजय तिवारी ने कहा कि, उनकी 60 एकड़ सोयाबीन की फसल भारी बारिश से बर्बाद हो गई और उनके क्षेत्र में अभी तक सर्वे नहीं हुआ है। अधिकारी कार्यालय में बैठकर सर्वे रिपोर्ट तैयार कर रहे है। संपर्क करने पर जवाब मिलता है रिपोर्ट तैयार है, जल्दी बीमा राशि मिलेगी, जबकि स्थानीय विधायक विष्णु खत्री फसलों के नुकसान के आकलन के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर जल्द से जल्द मुआवजा दिए जाने की मांग की हैं।
सीहोर, विदिशा और राजगढ़ में भी सोयाबीन किसानों को मेहनत पर बारिश ने पानी फेर दिया है। इस वर्ष सीहोर में 3.098, विदिशा में 3.161 और राजगढ़ में 3.370 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल सोयाबीन बुवाई हुई हैं।
इन क्षेत्रों के किसान भी विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। यहां के किसानों की भी मांग है कि उनके नुकसान का आकलन कर मुआवजा दिए जाए। इस क्षेत्र के किसानों का कहना हैं कि सोयाबीन को 70 से 80 प्रतिशत नुकसान हुआ हैं।
सीहोर जिले के किसान जगदीश वर्मा कहते हैं कि वे कई बार विरोध-प्रदर्शन और जनप्रतिनिधियों के साथ अधिकारियों से भी मिल चुके है, लेकिन अभी तक सर्वे का काम शुरू नहीं हुआ है।
खंडवा जिले में इस साल 1.962 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन, 10 हजार हेक्टेयर में प्याज, जबकि 55 हजार हेक्टेयर में कपास की खेतों में बोई गई। लेकिन सितंबर माह में हुई लगातार बारिश से सोयाबीन-प्याज को 70 से 80 फीसदी तक नुकसान पहुंचाया है। किसानों द्वारा कई बार मांग करने पर भी सर्वे टीमें तक नहीं बनाई गई हैं।
झाबुआ जिले के किसानों की स्थिति भी खराब हैं। यहां करीब .795 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन बुवाई हुई, जोकि अधिक बारिश की वजह से 70 फीसदी तक खराब हो चुकी हैं।
भारतीय किसान यूनियन, सचिव जितेंद्र पाटीदार कहते हैं कि
“जिला प्रशासन ने सर्वे का काम तो शुरू कर दिया है, लेकिन यह काम धीमी गति से किया जा रहा है, जिसकी वजह से किसान आक्रोषित नजर आ रहे हैं।”
शाजापुर जिले में सोयाबीन का बुवाई का क्षेत्रफल 2.583 लाख हेक्टेयर है। जिले के कई इलाकों में नुकसान के आकलन काम किया जा रहा है, लेकिन समय पर रिपोर्ट तैयार नहीं की जा रही हैं। किसानों के मुताबिक इस क्षेत्र में 50 से 60 फीसदी तक नुकसान हुआ है।
रतलाम जिले की कहानी भी अलग नहीं हैं यहां भी 2.464 लाख हेक्टेयर सोयाबीन बोई गई। किसान संघ, जिलाध्यक्ष ललित पालीवाल कहते हैं कि सोयाबीन की लगभग 50 प्रतिशत खराब हो चुकी है।
मंदसौर, उज्जैन में किसानों की मेहनत बारिश से बर्बाद हो गई हैं। मंदसौर में 3.162 और उज्जैन में 4.977 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन बुवाई किसानों ने की, लेकिन खराब मौसम की वजह से 50 से 60 फीसदी नुकसान किसानों को उठाना पड़ा है। इन दोनों क्षेत्रों में भी सर्वे की प्रकिया प्रारंभ नहीं हुई है।
किसान संगठनों की मांग
किसान संगठनों का कहना है कि वो पहले ही सोयाबीन की कम कीमतों को लेकर 6000 हजार रू. प्रति क्विंटल भाव करने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अब भारी बारिश की वजह से फसल ही नहीं बची, वे क्या खाएंगे और अगली फसल कैसे करेंगे। सरकार को चाहिए कि वे फसल के नुकसान का जल्द से जल्द सर्वे कराकर उचित मुआवजा दे, जिससे किसानों को कुछ तो राहत मिले।
भारतीय किसान यूनियन टिकैत के नेता अनिल पटेल कहते हैं कि,
“हम पहले की पिछले फसल के दाम बढ़ाने को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अब किसानों का सब कुछ तबाह हो गया है। यदि सरकार से जल्द से जल्द सर्वे कराकर मुआवजा नहीं दिया तो किसानों के पास आत्महत्या करने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा।”
वहीं किसान सत्याग्रह मंच के नेता शिवम बघेल का कहना है कि,
“पहले तो लागत निकालना मुश्किल हो रहा था, लेकिन पिछले माह हुई बारिश से फसल तबाह हो गई। सरकार बीमा क्लेम और मुआवजा किसानों को दे, ताकि उसे कुछ राहत मिले। नहीं तो किसान अगली फसल भी नहीं बो पाएगा।”
वहीं आम किसान यूनियन के नेता राम झनरिया कहते हैं कि,
“इस साल किसान पर चौतरफा मार पड़ रही है। पहले सोयाबीन का बाजारों में कम भाव मिला, दूसरा वो इल्लियों और मोजेक आदि रोग से परेशान था, फसल बचाने के चक्कर में कीटनाशकों ने लागत का खर्चा बढ़ा दिया है, जबकि कम भाव मिलने की वजह से किसान पहले की आक्रोशित है, अब अगर सही वक्त पर सर्वे और मुआवजा राशि नहीं मिली तो किसान मरने की कारागर पर आ खड़ा होगा।”
अधिकतर किसानों को नहीं मिलीं पिछली फसल की बीमा राशि
भारतीय किसान संघ, बैरसिया तहसील, अध्यक्ष गिरबर सिंह राजपूत कहते हैं कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से भी राज्य के किसानों को कोई फायदा नहीं मिलता हैं। जिले के साथ प्रदेशभर के अलग-अलग जिलों के अधिकतर गांवों के किसानों को पिछले सीजन की खरीफ-रबी की फसल का बीमा क्लेम की राशि अभी नहीं मिली हैं।
वहीं रतलाम जिले के भारतीय किसान संघ, जिलाध्यक्ष ललित पालीवाल ने भी राजपूत की बात का समर्थन करते हुए कहा कि,
“रतलाम जिले के किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा हैं। अधिकतर गांवों के किसानों की पिछले साल के नुकसान की भरपाई भी अभी तक नहीं की गई हैं। कुछ किसानों को क्लेम का पैसा मिला हैं, इनमें से अधिकतर को क्लेम की राशि बहुत कम और समय पर नहीं मिली हैं।”
बैरसिया तहसील के गांव कोलूखेड़ी गांव के दीपक सिंह कुशवाह बताते हैं कि,
“18 एकड़ में सोयाबीन की फसल करीब 80 फीसदी से ज्यादा खराब हो चुकी है, सर्वे का अता-पता नहीं हैं। बीमा कंपनी सीजन के हिसाब से बीमा करती हैं। मैंने 7260 रू. की एकमुश्त राशि जमा कर बीमा करवाया है। अब क्लेम के लिए परेशान होने के सिवाए कोई रास्ता नहीं हैं, पिछले साल का पैसा भी अभी तक नहीं मिला है।”
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से बीमा कंपनियों को मुनाफा
राष्ट्रीय किसान समन्वय समिति के संयोजक और किसान नेता विवेकानंद माथने कहते हैं कि, सरकारों का दावा है कि वे किसानों को लूटने वाले दलालों को हटा रही हैं, जबकि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से उन्होंने खुद ही काॅपोरेट दलाल पैदा किए हैं। बीमा बांटने वाले हर साल 10 हजार करोड़ रू. कमा रहे हैं और किसान मुआवजा राशि पाने के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं।
वे आगे कहते हैं कि,
“प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना साल 2016 में शुरू हुई। सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2016-17 से 2022-23 में फसल बीमा कंपनियों ने हर साल 8 से 10 हजार करोड रू. के हिसाब से 7 साल में 60 हजार करोड़ रू. का मुनाफा कमाया हैं। यही वजह है कि पंजाब, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने खुद को इस योजना से बाहर कर लिया हैं। जबकि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और झारखंड ने भी बीमा क्लेम के कम भुगतान राशि दिए जाने के कारण खुद को अलग करने की तैयारी कर रहे हैं।”
उनकी बात पर सहमति जताते हुए किसान नेता शिवकुमार कक्का कहते हैं कि,
“राज्य में साल 2017-18 में 5894 करोड़ रू., साल 2019-20 में 5812 करोड़ रू. और 2020-21 में 7791 करोड़ रू. का मुआवजा बीमा कंपनियों ने दिया। गौर करने वाली बात यह हैं कि मध्यप्रदेश में नवंबर 2018 में विधानसभा चुनाव, मई 2019 में लोकसभा और नवंबर 2020 में 28 सीटों पर विधानसभा चुनाव हुए। बीमा कंपनियों ने इन सालों में जो मुआवजा राशि बांटी, वो कंपनियों को प्राप्त बीमा से ज्यादा थी।”
वे आगे कहते हैं कि, प्रदेश में कुल 6 सालों में कंपनियों को 35,506 करोड़ रू. बीमा प्राप्त हुआ, जबकि किसानों को 25,729 करोड़ रू. मुआवजा दिया गया और कंपनियों ने 9,777 करोड़ रू. की कमाई की है। इसका मतलब साफ है कि दूसरे सालों में मुआवजा नहीं के बराबर दिया और बीमा कंपनियां सिर्फ मुनाफा कमाने तक ही सीमित हैं।
भारत सोयाबीन उत्पादन के मामले में दुनियाभर में पांचवें नंबर पर हैं और देश में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य सोयाबीन उत्पादन में क्रमश: दूसरे व तीसरे नंबर है। इन दिनों मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य के सोयाबीन किसानों की स्थिति खस्ताहाल नजर आ रही हैं। यदि किसानों की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो क्या भारत सोयाबीन उत्पादन में अपने स्थान को बरकरार रख पाएगा। इसलिए कृषि क्षेत्र से जुड़े जिम्मेदारों, जानकारों और विशेषज्ञों को किसानों की इन समस्याओं का हल ढूंढना ही होगा।
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