क्या अंग्रेज़ों से फाँसी की जगह गोली से उड़ाये जाने की माँग करने वाले साम्यवादी क्रांतिकारी शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगकर जेल से छूटे और फिर उनसे पेंशन लेकर हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ाने में जुटने वाले विनायक दामोदर सावरकर को एक श्रेणी में रखा जा सकता है क्या मदनमोहन मालवीय का नाम उन्हें ‘महामना’ की उपाधि देने वाले महात्मा गाँधी की हत्या की साज़िश में शामिल (कपूर कमीशन का निष्कर्ष) सावरकर के साथ लिया जा सकता है इन दोनों सवालों के जवाब में ‘हाँ’ कहने वालों को या तो इतिहास का ज्ञान नहीं होगा, या फिर वे सावरकर का दाग़ धोने की किसी शातिर योजना पर काम कर रहे होंगे।
अफ़सोस कि देश के रक्षामंत्री ने लोकसभा में संविधान पर बहस की शुरुआत करते हुए ऐसी ही कोशिश की। उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने संविधान निर्माण का श्रेय अकेले लेने का षड्यंत्र रचा जबकि इसमें उन तमाम लोगों का विचार भी शामिल था जो संविधान सभा के सदस्य नहीं थे। इस सिलसिले में उन्होंने मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, भगत सिंह और सावरकर का नाम लिया। वैसे महात्मा गाँधी भी संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, लेकिन राजनाथ सिंह ने उनका नाम नहीं लिया जबकि पूरा संविधान ‘अंतिम आदमी’ को लेकर दिये गये ‘गाँधी जी के जंतर’ पर आधारित है। संविधान ही क्यों, पूरा स्वतंत्रता संघर्ष ही उनकी प्रेरणा और संघर्ष से परवान चढ़ा। यही वजह थी कि सुभाषचंद्र बोस जैसे भारत के महान सपूत ने महात्मा गाँधी को ‘राष्ट्रपिता’ की उपाधि दी थी जिसे सावरकरवादी और और आरएसएस कभी स्वीकार नहीं कर पाये।
बहरहाल, पहले बात संविधान निर्माण के श्रेय की। यह किसी और ने नहीं, संविधान निर्माता कहे जाने वाले डॉ.आंबेडकर ने कहा है कि इसका पूरा श्रेय कांग्रेस पार्टी को है। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अंतिम भाषण देते हुए डॉ.आंबेडकर ने कहा था, “यह कांग्रेस पार्टी के अनुशासन का ही परिणाम था कि प्रारूप समिति, प्रत्येक अनुच्छेद और संशोधन की नियति के प्रति आश्वस्त होकर उसे सभा में प्रस्तुत कर सकी। इसलिए सभा में प्रारूप संविधान के सुगमता से पारित हो जाने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।”
राजनाथ सिंह का आरएसएस में संस्कार उस दौर में हुआ था जब उसकी शाखाओं में डॉ.आंबेडकर को हिंदू धर्म के दुश्मन के रूप में प्रचारित किया जाता था। जब हिंदू कोड बिल के ख़िलाफ़ आरएसएस पूरे देश में डॉ.आंबेडकर के पुतले फूँक रही थी। हो सकता है कि राजनाथ सिंह को डॉ.आंबेडकर का भाषण पढ़ने का मौक़ा न मिला हो, लेकिन वे सावरकर के विचारों को भी नहीं जानते, यह स्वीकार करना मुश्किल है। भारत का संविधान समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के विचार पर आधारित है जबकि सावरकर इसके उलट पढ़ते-लिखते और बोलते रहे।
भारत के संविधान ने पहली बार इस भारत भूमि पर रहने वाले सभी लोगों को नागरिक के रूप में समान माना। संविधान की नज़र में जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल या लिंग का कोई भेद नहीं है। दो साल 11 महीने 18 दिन तक चली संविधान सभा की बहसों ने भारत को लोकतांत्रिक ही नहीं ‘गणतांत्रिक’ स्वरूप देने का फ़ैसला किया ताकि अल्पसंख्यकों के अधिकार भी सुरक्षित रहें। एक नागरिक के रूप में मिले मौलिक अधिकार को ‘बहुमत’ के तर्क पर छीना न जा सके।
लेकिन सावरकर कहते हैं कि भारत सिर्फ़ उनका है जिनकी ‘पितृभूमि’ और ‘पवित्र-भूमि’ दोनों भारत में हैं। मो.अली जिन्ना से पहले हिंदुओं और मुसलमानों को ‘दो राष्ट्र’ बताने वाले सावरकर ने इस सिद्धांत के सहारे मुस्लिमों और ईसाइयों को हमेशा के लिए संदिग्ध बनाने की कोशिश की।
उन्होंने अपनी किताब ‘हिंदुत्व: हू इज़ अ हिंदू’ में राष्ट्र का आधार धर्म बताते हुए लिखा,”हमारे मुसलमानों या ईसाइयों के कुछ मामलों में जिन्हें जबरन ग़ैर हिंदू धर्म में धर्मांतरित किया गया, उनकी पितृभूमि भी यही है और संस्कृति का बड़ा हिस्सा भी एक जैसा ही है, लेकिन फिर भी उन्हें हिंदू नहीं माना जा सकता। हालाँकि हिंदुओं की तरह हिंदुस्थान उनकी पितृभूमि है, लेकिन उनकी पुण्यभूमि नहीं है। उनकी पुण्यभूमि सुदूर अरब है। उनके धर्मगुरु, विचार और नायक इस मिट्टी की उपज नहीं हैं।”
यानी संविधान की भावना के उलट सावरकर मानते हैं कि भारत सिर्फ़ हिंदुओं का स्थान है और पुण्यभूमि ‘हिंदुस्थान’ में न होने की वजह से ईसाई और मुसलमान ‘हिंदू होने की अर्हता’ नहीं रखते। यही नहीं, सावरकर यह भी स्पष्ट करते हैं कि इस हिंदुस्थान का संविधान तो मनुस्मृति ही हो सकती है जो उनके मुताबकि ‘हिंदू लॉ’ है।
सावरकर लिखते हैं, “मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति-रीति-रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बन गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दैवीय यात्रा के लिए संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू क़ानून है। यही मौलिक है। “
“
सावरकर उस मनुस्मृति को हिंदू राष्ट्र का विधान मान रहे हैं जिसका डॉ.आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को सार्वजनिक रूप से दहन किया था।
डॉ.आंबेडकर ने ‘महाड़ तालाब’ सत्याग्रह के दौरान मनुस्मृति जलाने की घटना की तुलना फ़्रांस की क्रांति से करते हुए इसे समानता की ओर बढ़ाया गया पहला क़दम बताया था। वजह यह थी कि मनुस्मृति शूद्रों और स्त्रियों की ग़ुलामी को ‘धर्म-सम्मत’ बताती है। मनुस्मृति चार वर्णों में बँटी सामाजिक व्यवस्था यानी चातुर्वर्ण को धर्म बताती है जबकि इस मौक़े पर डॉ.आंबेडकर ने अपने भाषण में कहा था कि ‘उनका उद्देश्य न केवल छुआ-छूत को समाप्त करना है बल्कि इस की जड़ चातुर्वर्ण को भी समाप्त करना है।’
भारत के संविधान ने समता के सिद्धांत को अपनाकर चातुर्वर्ण पर निर्णायक और ऐतिहासिक चोट की जबकि सावरकर वर्ण विभाजन को हिंदू राष्ट्र का अविभाज्य अंग मानते हुए किसी का हवाला देते हुए लिखते हैं कि, “जिस भूमि पर चार वर्णों की व्यवस्था मौजूद नहीं है, उसे म्लेच्छ देश के रूप में जाना जाना चाहिए। आर्यावर्त उससे दूर है।”
राजनाथ सिंह शायद भूल गये हैं कि सावरकर जिस हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को लेकर चल रहे थे और जिसकी प्रेरणा से उनका पितृसंगठन आरएसएस आज भी जुटा हुआ है, भारत का संविधान उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संविधान को बदलना ही होगा। डॉ.आंबेडकर ने साफ़ कहा था कि “अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए एक भारी ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।”
पुनश्च: राजनाथ सिंह ने सावरकर को वैधता दिलाने के लिए अपने भाषण में भगत सिंह का हवाला दिया जो घोषित नास्तिक थे और भारत में रूस जैसी ‘समाजवादी क्रांति’ चाहते थे जबकि ‘समाजवाद’ शब्द को संविधान की प्रस्तावना से निकलवाने के लिए बीजेपी हर संभव प्रयास करती रही है। भगत सिंह की धारा सावरकर के बारे में क्या राय रखती थी, इसकी बानगी उनके दल यानी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में सक्रिय रहे और बाद में हिंदी के बड़े लेखक बने यशपाल ने अपनी किताब ‘सिंहावलोकन’ में दी है।
यशपाल ने लिखा है कि एसोसिएशन के सुप्रीम कमांडर चंद्रशेखर आज़ाद ने उन्हें सावरकर बंधुओं से आर्थिक मदद लेने पूना भेजा था।लेकिन वहाँ पहुँचने पर उनसे कहा गया कि क्रांतिकारियों को अंग्रेज़ों से लड़ना बंद करके जिन्ना और मुसलमानों की हत्या करनी चाहिए। लौटकर जब यशपाल ने यह जानकारी दी तो आज़ाद ने एक भद्दी गाली देते हुए पचास हज़ार रुपये का यह प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया कि, “यह हम लोगों को भाड़े का हत्यारा समझता है। अंग्रेज़ों से मिला हुआ है। हमारी लड़ाई अंग्रेज़ों से है, मुसलमानों को हम क्यों मारेंगे मना कर दो, नहीं चाहिए इसका पैसा।”
(वरिष्ठ पत्रकार कांग्रेस से भी जुड़े हैं)