सुप्रीम कोर्ट ने अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को जमानत दे दी है। जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भले ही कुछ तल्ख टिप्पणी की हो, न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों से लेकर आम जनता तक हर किसी को मालूम था कि अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा था जिस पर जमानत नहीं दी जा सके।
उन्होंने अपने नागरिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए केवल कुछ उम्मीदें दर्ज की थीं। वे उम्मीदें भी किसी ऐरे गैरे से नहीं की गई थी, एक संवैधानिक सरकार से समानता का अनुरोध किया गया था।
जाने क्यों और कैसे उनकी बात कुछ लोगों को बुरी लग गई? उन्हें बराबरी की उम्मीद के लोकतांत्रिक अनुरोध में देश की एकता और अखंडता टूटती हुई दिखाई दी। जिन लोगों को प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद की बात खराब लगी, उनमें एक हरियाणा के महिला आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया थीं।
वही रेणु भाटिया जो दो-एक दिन पहले एक मीडिया चैनल पर लाइव थीं ताकि ज़ोर से चीख-चीख कर प्रोफेसर अली के गुनाह की बात लोगों को बता सकें। कई बार हम चाहते कुछ और हैं और हो कुछ और जाता है।
रेणु भाटिया ने प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के पोस्ट को खराब बताना शुरू किया। देश की अखंडता तोड़ने के अपने आरोप को अपनी आवाज़ का ज़ोर देना शुरू किया कि उस गैरतमंद एंकर ने सवाल कर लिया, “आप जो यह आरोप लगा रही हैं यह किस हिस्से में है?”
मामला पलट गया। एंकर ने यह सवाल बार-बार किया। रेणु भाटिया एक भी बार जवाब नहीं दे पाईं। जब रेणु भाटिया जवाब नहीं दे पाईं तो उन्होंने नया राग शुरू किया। मेरे ये सेना में, मेरे वो सेना में, मैं सेना का अपमान नहीं देख सकती। देश की बेटी का अपमान नहीं देख सकती।
एंकर ने फिर सवाल किया, किस पंक्ति में उन्होंने सेना का अपमान किया? खूब तुर्श जुबान और मिजाज़ वाली रेणु भाटिया जब यहाँ भी निरुत्तर हुईं तो लगभग चीखने लगीं। उनका तनाव और उनका गुस्सा समझा जा सकता था। यह एक खास तरह का सिंड्रोम है जो इस समय देशभर में व्याप्त है। सुविधा के लिए इसे तात्कालिक तौर पर ‘रेणु भाटिया सिंड्रोम’ कह सकते हैं।
इस सिंड्रोम के कुछ खास लक्षण हैं। यह किसी भी स्त्री-पुरुष को अपना शिकार बना सकता है। हाँ, धर्म को लेकर यह सिलेक्टिव जरूर है। अमूमन इसके शिकार एक खास धर्म के लोग होते हैं जो ठीक-ठाक जीवनयापन कर रहे होते हैं। वे बहुसंख्यक होने का अपना रुबाब गाहे-बगाहे झाड़ते रहते हैं। उनकी इच्छा (ज़ाहिर न हो तो दबी-दबी ही सही) होती है कि देश में केवल उनके जैसे बहुसंख्यक रहें। इसकी धर्मनिरपेक्षता को खारिज कर दिया जाए।
लोकतंत्र की कोई भी परिभाषा इन्हें सही नहीं नज़र आती। इन्हें लगता है कि जितने भी लोग सरकार की आलोचना करते हैं, वे देशद्रोही हैं। समूचा विपक्ष षड्यन्त्रकारी है। वे सभी लोग जो संवैधानिक मूल्यों और समान नागरिक अधिकारों की बात करते हैं वे गद्दार हैं। इनके द्वारा बनाई गई गद्दारों की सूची में अक्सर अपने अधिकारों की मांग करते बेरोज़गार, दलित, किसान, मज़दूर भी शामिल हो जाते हैं।
इस सिंड्रोम को देखा जाए तो जे के रॉलिंग की बेहद प्रसिद्ध शृंखला हैरी पॉटर की एक किरदार डोलोरस अंब्रिज याद आ जाती है। अव्वल दर्जे की भ्रष्ट डोलोरस अंब्रिज को उन जादूगरों से बेहद नफरत थी जिनका कथित तौर पर खून अशुद्ध था, यानी वे लोग जिनके माँ-पिता भी जादूगर नहीं थे। ऐसे लोगों को किसी भी तरह परेशान करने के लिए उतारू डोलोरस अंब्रिज अपनी बातों को सर्वोच्च संस्था के आदेश की तरह प्रस्तुत करती थीं। किसी को सजा देनी हो, किसी को काम से निकालना हो, वे जादू की सर्वोच्च संस्था के नियमों को अपने अनुसार तोड़ती-मरोड़ती रहती थीं ताकि उनकी नफरत बदस्तूर जारी रह सके। रेणु भाटिया को देखते हुए जाने क्यों मुझे डोलोरस अंब्रिज याद आ गईं।
केवल डोलोरस अंब्रिज ही नहीं नज़र आईं, तमाम ऐसे लोग नज़र आए जिन्होंने अपनी मौलिक मनुष्यता को ताक पर रख दिया है कि वे अपने अनुसार नफ़रत की खेती कर सकें। ये लोग कहीं भी मिल जाएंगे आपको। सोशल मीडिया पर इन्हें पाने की संभावना तनिक अधिक है।
कभी वे किसी देश के ‘इस्लामिक काँग्रेस’ को अपना उल्लू सीधा करने के लिए एक पार्टी का कार्यालय बताते हुए नज़र आएंगे, कभी किसी चैनल पर चीखते हुए पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करते नज़र आएंगे, कभी ट्रेनों में लोगों से धर्म पूछकर गाली देते हुए नज़र आएंगे, कभी दूसरे धर्म के धार्मिक स्थलों के सामने वीभत्स नृत्य करते नज़र आएंगे तो कभी संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ संशोधन को एक भूल बताते हुए नज़र आएंगे।
याद रखिए, ये तमाम लोग एक सिंड्रोम से ग्रसित हैं। इनका उपचार केवल संविधान और लोकतंत्र है।