याद करिए, “फ्रीबीज”, जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मोदी ने “रेवड़ी संस्कृति” कह कर देश को पिछले ढाई साल से डरवा रहे हैं. यह एक समय कुछ राज्यों, खासकर तमिलनाडु, की “बीमारी” हुआ करती थी. लेकिन सन 2019 के आम चुनाव के पूर्व स्वयं प्रधानमंत्री इस मर्ज के शिकार हुए. नतीजतन चुनाव के ठीक पहले एक कर्णप्रिय नाम -किसान सम्मान निधि— दे कर किसानों को खुश करने के लिए 2000 रुपये हर चार माह में (हर गरीब किसान परिवार को 17 रुपये) देना शुरू किया. लेकिन जब दिल्ली और अनेक विपक्षी हीं नहीं उनके पार्टी की राज्य सरकरों ने यही फार्मूला अपनाया तो उनकी बचैनी बढ़ी. तब से मोदी चुनाव मंचों से “रेवड़ी संस्कृति” का “दानवीकरण” करना शुरू किया.
केंद्र की सभी आर्थिक संस्थाओं, दक्षिणपंथी अर्थ-शास्त्रियों और तथाकथित अध्ययनों के जरिये बताया जाने लगा कि इससे कैसे राज्य कर्ज में डूब जायेंगें, फिस्कल डेफिसिट बढ़ जाएगा, पूंजीगत निवेश, जिससे वास्तविक और दीर्घकालिक विकास होता है, के लिए पैसे नहीं होंगे. याने मोदी 80 करोड़ को फ्री राशन दें और एक परिवार को 17 रुपये दे कर “सम्मान” का डंका बजाएं तो वह “विकसित भारत” की तैयारी है लेकिन राज्य सरकारें अगर फ्री बिजली, फ्री पानी, महिलाओं के लिए फ्री बस राइड, “बहना” और “माई” स्कीम लायें तो वह देश को बर्बाद करने वाली रेवड़ी संस्कृति.
तभी तो विगत 16 जुलाई, 2022 को उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के उरई तहसील में बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते हुए मोदी ने पहली बार “रेवड़ी संस्कृति” से लोगों को आगाह किया. “ये जो रेवड़ी बाँटते हैं न, वो एक्सप्रेसवे और रेल मार्ग नहीं बनवा सकते”.
अब मोदी के दावे की सच्चाई केन्द्रीय बैंक, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की ताज़ा रिपोर्ट के जरिये जानिए और तय कीजिये कि “रेवड़ी मोदी की केंद्र सरकार बांटती है या विपक्ष की राज्य सरकारें. यह रिपोर्ट राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर बनाई गयी है.
पहला तथ्य: राज्य सरकारों द्वारा दी जा रही तथाकथित रेवड़ी से देश भर के कुल राज्यों का समेकित फिस्कल डेफिसिट बढ़ा नहीं घटा है. वर्ष 2020 में यह जीडीपी का 4.1 प्रतिशत था जो मार्च, 2024 तक के वित्त वर्ष में घट कर 2.9 प्रतिशत हो गया. और यह स्थिति तब रही जब कोरोना काल में राज्यों का राजस्व शेयर सूख गया था.
तथ्य दो: कर्ज-जीडीपी अनुपात भी इस काल में बढ़ने की जगह कम हो कर 31 प्रतिशत से 28.5 पर आ गया. तथ्य तीन: कुल कैपिटल आउटले 2.1 प्रतिशत से बढ़ कर 2.8 प्रतिशत हो गया. मोदी के दावे कि राज्यों के पास पूंजीगत निवेश के लिए पैसे नहीं होंगे गलत साबित हुआ और राज्यों ने अन्तर-संरचना और पूंजीगत व्यय में पहले से ज्यादा राशि (जीडीपी के प्रतिशत के रूप में) लगाई. यहाँ तक कि स्वास्थ्य के मद में केंद्र का खर्च घटा है जबकि राज्यों का बढ़ा है.
इसके ठीक उलट जरा केंद्र सरकार की स्थिति देखें. पिछले चार वर्षों में देश के 2664 कॉर्पोरेट घराने बैंकों का 1.96 लाख करोड़ रुपया न दे कर “विल्फुल डिफाल्टर” वर्ग में शामिल होते गए. यह वह वर्ग है जो कर्ज चुकाने की क्षमता रखते हुए भी कर्ज वापस नहीं करता. “विल्फुल डिफाल्टर्स की इन वर्षों में लगातार न केवल संख्या बल्कि उनके द्वारा कर्ज न लौटाने वाली राशि भी बढ़ती गयी. इसमें शीर्ष पर रही गुजरात के मेहुल चौकसी की जेम कंपनी. पिछले वित्त वर्ष में केंद्र द्वारा स्वयं पूँजीगत निवेश कम रहा जिसे इस साल बढाने का “वादा” किया है.
आरबीआई की केंद्र को नसीहतइस नियामक बैंक ने राज्यों की वित्तीय स्थिति पर रिपोर्ट में पहली बार तमाम केंद्र-प्रायोजित योजनाओं और उनके बढ़ाते वित्तीय आकर को सहकारी संघवाद के खिलाफ बताते हुए कहा है कि इससे राज्यों की अपनी जरूरत के अनुरूप योजना बनाने की आजादी प्रभावित हुई है. वर्ष 2016 में केंद्र ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों के एक ग्रुप की अनुशंसा पर इन स्कीमों की संख्या को मात्र 28 रखने की मंजूरी दी थी. लेकिन मोदी काल में आठ साल के बाद आज इन स्कीमों की संख्या 75 ही चुकी है और उनके तहत राज्यों को व्याज मुक्त कुल लोन वर्ष 2020-21, 21-22 और 22-23 और 23-24 में बढ़ता हुआ क्रमशः 11 हजार, 15 हज़ार, 81.195 हज़ार और 1.09554 लाख (करोड़ रुपये) हो गया. वर्ष 2025 के लिए इसमें 1.5 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान है.
रिपोर्ट मानती है कि इससे राज्यों को अपनी जरूरत के मुताबिक योजनाओं को बनाने और व्यय करने की वित्तीय आजादी कम होती है और सहकारी संघवाद की भावना प्रभावित होती है. आपको याद होगा कि स्वयं पीएम ने पहली बार पद पर आने के बाद इस भावना को मजबूत बनाने की बात पुरजोर तरीके से कही थी. जीएसटी लागू होने के बाद अनेक राज्य इसके तहत टैक्स आबंटन के फ़ॉर्मूले पर ऐतराज कर रहे हैं. हाल हीं में केंद्र ने हर योजना को केन्द्रीय हाथों में रखने और इसे पीएम के नाम से जारी करने की ललक को और मजबूत करते हुए “पूर्वोदय योजना” शुरू करने की घोषणा की है जिसमें बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और आंध्र प्रदेश होंगें. इस वर्ष कुल केन्द्रीय योजनाओं पर खर्च पांच लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है.
यह सच है कि फ्री भोजन दे कर व्यक्ति को जिन्दा तो रखा जा सकता है और रेवड़ियां दे कर उसके वोट तो लिए जा सकते हैं लेकिन अगर देश की सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण जाबलेस ग्रोथ (नौकरिविहीन विकास) रही तो भारत दुनिया की तीसरी अर्थ-व्यवस्था तो बन जाएगा लेकिन प्रेमचंद के गोदान के पात्र होरी के बेटे की नौकरी नहीं लगेगी और रूपा और सोना नामक बच्चे कुपोषण के शिकार बने रहेंगे.
(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं)