गृह मंत्रालय (एमएचए) ने विदेशी चंदा या अंशदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के तहत नियमों में संशोधन किया है। नए नियमों के अनुसार, विदेशी फंड प्राप्त करने वाले गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), जो कंटेंट से संबंधित गतिविधियों में शामिल हैं, अब कोई न्यूज़लेटर प्रकाशित नहीं कर सकेंगे। साथ ही, उन्हें भारत के समाचार पत्र रजिस्ट्रार (आरएनआई) से यह प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा कि वे किसी भी कंटेंट का प्रसार नहीं करते।
नए नियमों का विवरण
गृह मंत्रालय ने सोमवार देर रात जारी एक अधिसूचना में कहा कि संशोधित नियमों के तहत, विदेशी फंडिंग की अनुमति चाहने वाले एनजीओ को यह घोषणा करनी होगी कि वे वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) के गुड प्रैक्टिस दिशानिर्देशों का पालन करेंगे। अधिसूचना में कहा गया, “ऐसे संगठनों या एनजीओ, जो रजिस्ट्रेशन की मांग कर रहे हैं, को पिछले तीन वर्षों के वित्तीय विवरण और ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होंगी। इसमें संपत्ति और देनदारियों का विवरण, प्राप्तियों और भुगतान खाता, तथा आय और व्यय खाता शामिल होना चाहिए।”
यदि ऑडिट रिपोर्ट और वित्तीय विवरणों में पिछले तीन वित्तीय वर्षों के लिए गतिविधि-वार खर्च का विवरण नहीं है, तो संगठन को एक चार्टर्ड अकाउंटेंट का प्रमाण पत्र जमा करना होगा। जिसमें हर गतिविधि के लिए खर्च किए गए पैसे का जिक्र हो और यह आय-व्यय खाते तथा प्राप्ति-भुगतान खाते के साथ तालमेल दिखाता हो।
प्रकाशन गतिविधियों पर सख्ती
मंत्रालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि कोई एनजीओ प्रकाशन (कंटेंट तैयार करने) से संबंधित गतिविधियों में शामिल है या उसके मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन या ट्रस्ट डीड में प्रकाशन गतिविधियां उसके उद्देश्यों में शामिल हैं, तो संगठन के मुख्य कार्यकारी को एफसीआरए, 2010 के अनुपालन के संबंध में एक लिखित आश्वासन देना होगा।
ये संशोधन विदेशी फंडिंग के इस्तेमाल में कथित पारदर्शिता और जवाबदेही करने के नाम पर किए गए हैं। गृह मंत्रालय का यह कदम एनजीओ की गतिविधियों पर निगरानी बढ़ाने और यह सुनिश्चित करने की दिशा में है कि विदेशी अंशदान या चंदे का इस्तेमाल सिर्फ स्वीकृत उद्देश्यों के लिए हो। विशेष रूप से, कंटेंट क्रिएशन के प्रसार पर प्रतिबंध का मकसद यही बताता है।
भारत में न्यूज़ कंटेंट पर बढ़ता खतरा
भारत, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है, में हाल के वर्षों में अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारिता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। मोदी सरकार के नेतृत्व में न्यूज़ कंटेंट पर लगाई जा रही पाबंदियों, विदेशी चंदा विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के सख्त नियमों, पत्रकारों पर हमलों और समाचार एजेंसी एएनआई पर लग रहे आरोपों ने इस संकट को और गहरा कर दिया है। यह स्थिति न केवल स्वतंत्र पत्रकारिता को दबाने की कोशिशों को दर्शाती है, बल्कि धार्मिक और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मौलिक अधिकारों पर भी गंभीर खतरे का संकेत देती है।
भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पहले से ही ग्लोबल स्तर पर निचले पायदान पर है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग लगातार गिर रही है, और 2023 में यह 161वें स्थान पर थी। पत्रकारों को सरकारी नीतियों की आलोचना करने पर निशाना बनाया जा रहा है, और स्वतंत्र न्यूज़ पोर्टल्स पर दबाव बढ़ रहा है। न्यूज़क्लिक जैसे स्वतंत्र मीडिया संस्थानों पर छापेमारी और पत्रकारों की गिरफ्तारी इसका स्पष्ट उदाहरण है।
धार्मिक आजादी का हाल भी चिंताजनक है। अल्पसंख्यक समुदायों, खासकर मुस्लिमों और ईसाइयों, के खिलाफ हिंसा और भेदभाव की घटनाएं बढ़ रही हैं। बजरंग दल जैसे संगठनों पर धार्मिक स्थलों पर हमले के आरोप लगे हैं, लेकिन इन पर कार्रवाई न के बराबर होती है। इस तरह का माहौल पत्रकारों और स्वतंत्र कंटेंट क्रिएटर्स के लिए काम करना और मुश्किल बना देता है, क्योंकि सरकार की आलोचना करने वाले किसी भी व्यक्ति को आसानी से निशाना बनाया जा सकता है। स्वतंत्र कंटेंट क्रिएटर्स को ऐसे समाचारों के बारे में बताने से अप्रत्यक्ष तौर पर रोका जा रहा है।
एफसीआरए कानून: न्यूज़ कंटेंट पर सख्ती का हथियार
हाल ही में गृह मंत्रालय ने एफसीआरए नियमों को और सख्त करते हुए घोषणा की कि विदेशी फंडिंग प्राप्त करने वाले गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) समाचार सामग्री प्रकाशित नहीं कर सकेंगे। यह कदम उन स्वतंत्र न्यूज़ पोर्टल्स को निशाना बनाता लगता है जो सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर नहीं हैं और चंदे या दान के जरिए चलते हैं, जैसे न्यूज़क्लिक, द वायर, और ऑल्ट न्यूज़। अब इन न्यूज पोर्टल के लिए विदेशी फंड या चंदा पाना बहुत मुश्किल होगा।
पत्रकारों पर हमले और स्वतंत्र कंटेंट क्रिएटर्स पर दबाव
पिछले कुछ वर्षों में भारत के विभिन्न राज्यों में पत्रकारों और स्वतंत्र कंटेंट क्रिएटर्स पर हमले बढ़े हैं। न्यूज़क्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और अन्य पत्रकारों के खिलाफ छापेमारी और गिरफ्तारी इसका उदाहरण है। इसके अलावा, स्वतंत्र यूट्यूबर्स और डिजिटल कंटेंट क्रिएटर्स को भी निशाना बनाया जा रहा है। कई मामलों में, स्थानीय पुलिस और प्रशासन ने पत्रकारों को आईटी एक्ट या अन्य कानूनों के तहत गिरफ्तार किया है, जिससे डर का माहौल बन रहा है। सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखने वालों पर धड़ाधड़ कार्रवाई जारी है। हाल ही में अशोका यूनिवर्सिटी के सहायक प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद और पुणे की इंजीनियरिंग छात्रा को सरकार की आलोचना पर गिरफ्तार कर लिया गया। यानी सोशल मीडिया पर आम आदमी सरकार की आलोचना नहीं कर सकता, जबकि एक तरह से वो भी कंटेंट क्रिएटर है।
कुणाल कामरा जैसे कॉमेडियन और नेहा सिंह राठौर जैसे व्यंग्यकारों को भी नहीं बख्शा जा रहा है। सरकार की नीतियों पर व्यंग्य करने वाले हास्य कलाकारों पर हमले और तमाम कानूनी कार्रवाई के मामले सामने आए हैं। यह दिखाता है कि सरकार न केवल कंटेंट को नियंत्रित करना चाहती है, बल्कि हर उस आवाज को दबाना चाहती है जो उसकी नीतियों पर सवाल उठाती है।
एएनआई को अक्सर “गोदी मीडिया” या सरकार समर्थक न्यूज़ एजेंसी कहा जाता है, क्योंकि उस पर आरोप है कि वो बीजेपी और केंद्र सरकार की नीतियों को बढ़ावा देती है। विपक्ष को कवरेज नहीं देती। अल्पसंख्यकों के बारे में उसके खबर पेश करने का नजरिया ही अलग रहता है। मीडियाबायस/फैक्टचेक जैसे प्लेटफॉर्म्स ने भी इसे दक्षिण-मध्य झुकाव वाली न्यूज एजेंसी माना है, जिसमें तथ्यात्मक गलतियों की भी आलोचना की गई है। एएनआई को केंद्र और राज्य सरकारों से मोटी रकम मिलने के दावे भी सामने आए हैं, जो जनता के टैक्स के पैसे से दिए जाते हैं। ऐसे में, यह सवाल उठता है कि क्या एएनआई का इस्तेमाल सरकार विरोधी आवाजों को चुप कराने के लिए एक हथियार के रूप में किया जा रहा है?
भारत में न्यूज़ कंटेंट पर मंडरा रहा यह खतरा केवल पत्रकारों या स्वतंत्र कंटेंट क्रिएटर्स तक सीमित नहीं है। यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया की आजादी पर सीधा हमला है। जब सरकार समर्थक न्यूज़ एजेंसियों को बढ़ावा दिया जाता है और स्वतंत्र पत्रकारिता को दबाया जाता है, तो जनता तक पहुंचने वाली जानकारी एकतरफा हो जाती है। न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान भारतीय मीडिया की पक्षपाती कवरेज को उजागर किया है, जिससे ग्लोबल स्तर पर भारत की छवि को नुकसान पहुंच रहा है।
इसके अलावा, डिजिटल मीडिया के लिए प्रस्तावित नए कानून और नियम भी चिंता का विषय हैं। 2022 में केंद्र सरकार ने डिजिटल मीडिया के नियमन से जुड़ा एक विधेयक पेश करने की बात कही थी, जिसे प्रेस की आजादी के लिए खतरा माना गया। यह विधेयक और एफसीआरए जैसे कानून मिलकर स्वतंत्र पत्रकारिता को पूरी तरह नियंत्रित करने की दिशा में काम कर रहे हैं।
भारत में न्यूज़ कंटेंट पर बढ़ता दबाव और पत्रकारों पर हमले न केवल अभिव्यक्ति की आजादी को कमजोर कर रहे हैं, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद को भी हिला रहे हैं। एफसीआरए जैसे कानूनों का दुरुपयोग, एएनआई जैसे संस्थानों की एकाधिकारवादी नीतियां, और स्वतंत्र पत्रकारों पर हमले यह दर्शाते हैं कि सरकार सच्चाई को सामने आने से रोकना चाहती है। यह समय है कि नागरिक, पत्रकार, और सिविल सोसाइटी इस दमन के खिलाफ एकजुट हों और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की रक्षा करें। सवाल यह है कि क्या भारत का लोकतंत्र इस संकट से उबर पाएगा, या यह एक ऐसी दिशा में बढ़ रहा है जहां सच्चाई की कोई जगह नहीं होगी?