चीन पर 104 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने साफ़ कर दिया है कि वे जिस राह पर आगे बढ़ चुके हैं, उससे क़दम जल्द पीछे नहीं खींचेंगे। चीन के साथ साथ उनकी अन्य देशों के साथ भी तनातनी है। उधर, अमेरिकी जनता को लगभग सौ साल पहले का ख़ौफ़नाक मंज़र याद आ रहा है जब ऐसा ही टैरिफ़ वार शुरू हुआ था और नतीजा आर्थिक महामंदी के रूप में सामने आया था। जनता ने भीषण ग़रीबी और बदहाली झेली थी। यही वजह है कि देश के कई हिस्सों में राष्ट्रपति ट्रंप के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं।
टैरिफ़ का अर्थ है आयात पर लगाया गया कर। इससे विदेश से आने वाला सामान महँगा हो जाता है। ट्रंप को लगता है कि टैरिफ़ की दरों के असंतुलन की वजह से अमेरिका को नुक़सान हो रहा है और चीन तथा भारत जैसे देशों का सामान उनके देश में सस्ती दरों में बिकता है। इसका असर अमेरिकी कंपनियों के व्यवसाय पर पड़ता है। अमेरिका को कथित रूप से लूटे जाने के इस सिलसिले को रोकने का ऐलान करते हुए अप्रैल की शुरुआत में ट्रंप ने चीन पर 34%, भारत पर 26%, यूरोपियन यूनियन पर 20%, कनाडा-मैक्सिको पर 25%, वियतनाम पर 46%, बांग्लादेश पर 37% और जापान पर 24% का टैरिफ़ लगा दिया। जवाबी कार्रवाई करते हुए चीन ने अमेरिका पर 34%, कनाडा ने 25%, और यूरोप ने 20-25% टैरिफ लगा दिया। ट्रंप इस पर काफ़ी भड़क गये और कड़ा संदेश देते हुए चीन पर 104% का टैरिफ़ लगा दिया। यानी अगर कोई चीनी सामान कल तक सौ डॉलर में अमेरिका में बिकता था तो अब 204 डॉलर में बिकेगा।
नतीजा ये होगा कि दूसरे देशों का सामान अमेरिका में महँगा हो जाएगा। इससे उस देश का निर्यात प्रभावित होगा। निर्यात घटने का मतलब है उत्पादन घटेगा यानी कारख़ानों में काम कम होगा, मज़दूरों की ज़रूरत कम हो जाएगी। नतीजा मज़दूरी घटेगी और छँटनी होगी और लोगों की क्रयशक्ति घटेगी। ऐसे में ट्रंप जिन अमेरिकी कंपनियों को संरक्षण देने के लिए यह टैरिफ़ लगा रहे हैं, उनका उत्पाद ख़रीदने की क्षमता उस देश में नहीं रह जाएगी। इस तरह अमेरिका का भी निर्यात प्रभावित होगा और वही दुश्चक्र शुरू हो जाएगा जिसकी ऊपर चर्चा की गयी है।
इस आशंका की सबसे ज़्यादा प्रतिक्रिया हुई है अमेरिका में, क्योंकि लगभग सौ साल पहले वहाँ के लोग ऐसे ख़ौफ़नाक हालात से गुज़रे हैं जिसकी यादें उन्हें आज भी डराती हैं। ये यादें हैं 1929 की महामंदी की। जिसे ग्रेट डिप्रेशन कहा जाता है। ट्रंप की घोषणा के तत्काल बाद अमेरिकी शेयर बाज़ारों में भारी उथल-पुथल हुई। अमेरिकी शेयर बाज़ार में 4-7 अप्रैल के बीच 2.4 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का नुक़सान देखा गया। ऐसे में आर्थिक महामंदी की याद स्वाभाविक है। ख़ासतौर पर जब उसकी वजह भी टैरिफ़ लगाना ही था। दरअसल, 1930 में स्मूट-हॉली टैरिफ अधिनियम के ज़रिए सरकार ने किसानों और व्यवसायों को बचाने की कोशिश की थी। इसके तहत बीस फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया गया था। सीनेटर रीड ओवेन स्मूट और विलिस चैटैन हॉले ने इसका प्रस्ताव रखा था। 1,000 से अधिक अर्थशास्त्रियों की अपील के बावजूद राष्ट्रपति हूवर ने इसे वीटो नहीं किया और 25 देशों ने इसके जवाब में अमेरिकी चीज़ों पर टैरिफ़ लगा दिया था। इससे वैश्विक व्याापार में बड़ी गिरावट आयी। इसे महामंदी का बड़ा कारण माना जाता है।
महामंदी के उस दौर में अमेरिका में मज़दूर सड़कों पर थे। बड़े पैमाने पर नौकरियाँ गई थीं और कारखाने बंद हुए थे। लोग टिन की छतों तले भूखे सोते थे। किसानों की जमीन छिन गई थी और मध्यवर्ग का सपना चूर-चूर हो गया था। 9 हज़ार बैंक फेल हुए, लोगों की बचत डूब गयी थी। अमेरिका में पचास लाख अश्वेत नागरिकों की स्थिति जानवरों से बदतर हो गयी थी। भ्रष्टाचार, ग़ैरक़ानूनी शराब और श्वेत आतंक फैलाने वाले कू क्लक्स क्लान की गुंडागर्दी बढ़ गयी थी। दुनिया में लगभग तीस लाख लोग बेरोज़गार हो गये। इंसानियत रो रही थी।
इस सबके पीछे था एक मंगलवार जिसे इतिहास में ‘ब्लैक ट्यूसडे’ यानी काला मंगलवार कहा जाता है। 24 अक्टूबर 1929 (काला मंगलवार) को अमेरिकी शेयर बाज़ार क्रैश हो गया था।
निवेशकों ने घबराहट में 1.6 करोड़ से ज्यादा शेयर बेच दिये थे, जो उस समय का रिकॉर्ड था। स्टॉक की कीमतें औसतन 12% तक गिर गईं। छोटे निवेशक, बड़े व्यापारी, और बैंक- सब बिकवाली में कूद पड़े थे।
काला मंगलवार सिर्फ एक दिन की घटना नहीं थी; यह 1920 के दशक की गैर-जिम्मेदार आर्थिक नीतियों और लालच का परिणाम था। इसने दुनिया को दशकों तक प्रभावित किया और 1930 के दशक की मंदी की नींव रखी। इस सबके मूल में था प्रथम विश्वयुद्ध जिसमें एक तरफ़ जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, तुर्की यानी ऑटोमन साम्राज्य, बुल्गारिया जैसे देश थे तो दूसरी तरफ़ इंग्लैंड, फ़्रांस, रूस, और अमेरिका आदि मित्र शक्तियाँ। इसमें एक करोड़ साठ लाख लोग मरे थे जिनमें नब्बे लाख सैनिक और सत्तर लाख नागरिक थे। दो करोड़ से ज़्यादा सैनिक घायल हुए थे। शुरुआत में विश्वयुद्ध के कारण उत्पादन और रोज़गार बढ़ा था जो युद्ध ख़त्म होते ही घटने लगा।
शुरुआत में अमेरिका में काफ़ी लाभ हुआ था। लेकिन वही अमेरिका 1929 आते आते महामंदी का शिकार हो गया। इसकी कई वजहें थीं। 1920 के दशक में स्टॉक मार्केट में सट्टेबाजी चरम पर थी। लोग कर्ज (मार्जिन ट्रेडिंग) लेकर शेयर खरीद रहे थे, उम्मीद थी कि क़ीमतें हमेशा बढ़ेंगी। असली मूल्य से कई गुना ऊँची क़ीमतों पर शेयर बिक रहे थे। उद्योग और खेती में ज़रूरत से ज़्यादा उत्पादन हो रहा था। माँग कम होने से माल गोदामों में पड़ा रहा, जिससे कंपनियों का मुनाफा गिरा। बैंकों ने निवेशकों को भारी कर्ज दे रखा था। जब शेयर गिरे, तो लोग कर्ज चुका नहीं सके, जिससे बैंक फेल होने लगे। 1920 में धन कुछ ही लोगों के पास केंद्रित था। 5% उद्योगपतियों का मुनाफ़े के 84 फ़ीसदी पर क़ब्ज़ा हो गया। मज़दूरों और मध्यवर्ग की क्रय शक्ति कम थी, जिससे मांग घट रही थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोप की अर्थव्यवस्था कमजोर थी। अमेरिका के यूरोप को दिए कर्ज वसूल नहीं हो रहे थे, जिसने दबाव बढ़ाया। बेरोजगारी 25% तक पहुंची, बैंक दिवालिया हुए और वैश्विक व्यापार ठप हो गया।
मौजूदा दौर में तमाम विशेषज्ञों और आर्थिक गतिविधियों पर नज़र रखने वाली संस्थाएँ मंदी की आशंका जता रहे हैं। जेपी मॉर्गन ने टैरिफ़ की घोषणा के बाद वैश्विक मंदी की संभावना को 40% से बढ़ाकर 60% कर दिया। गोल्डमैन सैक्स ने मंदी की संभावना को 35% से बढ़ाकर 45% कर दिया। मूडीज एनालिटिक्स के मुख्य अर्थशास्त्री मार्क जांडी ने मंदी की संभावना को 15% से बढ़ाकर 40% कर दिया। इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड यानी आईएमएफ़ के प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने कहा कि टैरिफ़ से 2025 में वैश्विक वृद्धि 3.3% से थोड़ा कम हो सकती है।
हालाँकि आईएमएफ़ ने अभी वैश्विक मंदी की भविष्यवाणी नहीं की, लेकिन ‘महत्वपूर्ण प्रतिकूल प्रभाव’ की चेतावनी दी। मुख्य अमेरिकी अर्थशास्त्री प्रेस्टन कैल्डवेल ने टैरिफ़ को ‘आर्थिक तबाही’ क़रार दिया।
यानी अमेरिका में अगर लोग सड़क पर हैं, उन्हें लग रहा है कि संकट क़रीब है तो उसकी वजह है। पर भारत मे इस टैरिफ़ वार पर मोदी सरकार ने आश्चर्यजनक चुप्पी साध रखी है। ख़ुद को ट्रंप का जिगरी दोस्त कहने वाले पीएम मोदी की ये चुप्पी किसी को समझ में नहीं आ रही है, ख़ासतौर पर जब चीन जैसे देश ट्रंप को तुर्की ब तुर्की जवाब दे रहे हैं। भारत जैसे देश इस विवाद में हैं ही नहीं। मोदी सरकार यह भी याद नहीं दिला रही है कि भारत जैसे विकासशील देशों को विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ से छूट मिली हुई है। ट्रंप का छब्बीस परसेंट का ऐलान इस समझ को तोड़ रहा है।
बहरहाल, भारत पर प्रभाव पड़ना तय है। अमेरिका को भारत का 18% निर्यात प्रभावित होगा। टेक्सटाइल, फ़ार्मा और ऑटो क्षेत्र को नुक़सान होगा। 2024 में दो लाख नौकरियाँ पहले ही चली गयी थीं और आईटी क्षेत्र में 50 हज़ार की छँटनी हुई थी।
मार्च 2025 में महँगाई दर 6.5% थी वह अगले छह महीने में 8-9% जा सकती है। 9 अप्रैल को एक डॉलर की क़ीमत 86.66 रुपये हो गयी।
1930 की मंदी ने मजदूरों-किसानों को भूखा मारा, मध्यवर्ग को सड़क पर ला दिया था। लेकिन सबसे बड़ी बात, बढ़ते असंतोष का फ़ायदा चरमपंथी और तानाशाहों ने उठाया। जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी को मौक़ा मिला तो उन्होंने नफ़रत की ऐसी संगठित आँधी चलाई कि दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध के दौर में पहुँच गयी। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह टैरिफ़ वॉर फिर वही कहानी लिख रहा है- महँगाई, छँटनी, बेरोज़गारी और इस पर पर्दा डालने के लिए धार्मिक कट्टरता और फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद की अँगीठी सुलगाते शासक। उम्मीद है कि दुनिया इतिहास से सबक़ लेगी। तबाही से बचने का यही एक तरीक़ा है कि इतिहास की ग़लतियों को दोहराया न जाए।