वर्तमान काल बड़ा रोमांचक है। जब चारों ओर विरोधाभास प्रतीत होने लगे तो ऐसा ही होता है। लोकतंत्र में भी ऐसा ही होता है जब आर्थिक सत्ता विकेन्द्रित हो किन्तु तंत्र की सता विकेन्द्रित नहीं होती| ऐसी स्थिति में उसके कुछ स्वाभाविक दुष्परिणाम होते हैं, जैसा आज के भारत में है। जब समाज को आर्थिक आजादी तो मिले पर राजनैतिक गुलामी बनी रहे तब पूँजी राज्यशक्ति के साथ भ्रष्ट समझौते कर अपनी शक्ति बढ़ा लेती है। साधारण नियम होता है कि केवल श्रम, मनुष्य को श्रमिक तथा केवल पूँजी व्यक्ति को वणिक बनाती है। अगर वणिक श्रम को खरीद ले तो वही उद्योगपति बन जाता है और अगर वो बुद्धि भी खरीद ले तो पूरी सत्ता ही हाथ लग जाती है। पूँजी+श्रम+बुद्धि = सत्ता।
भारत एक लोकतंत्र है। भारत के संविधान की उद्देशिका का प्रारम्भ ही “हम भारत के लोग” से होता है। 1946 से 1949 तक चली संविधान सभा ने भी इस बात पर जोर दिया था। उनके अनुसार संविधान ‘लोक’ की स्वतंत्रता का दस्तावेज होता है। उन्होंने उसी समय यह आशंका भी जताई थी कि ‘तंत्र’ इस दस्तावेज का भविष्य में बेजा इस्तेमाल भी कर सकता है। साथ ही उन्होंने भारतीय जनता का, विशेषकर ग्रामीण समाज पर पूरा भरोसा भी जताया और कहा कि इस संविधान की बची-खुची त्रुटियों को ‘लोक’ समय-समय पर परिष्कार भी कर लेगा।
आश्चर्य है कि “हमारे” संविधान को संसद नाम की एक छोटी सी इकाई में बैठे मुट्ठी भर लोग आमूलचूल बदलते रहते हैं। कहने को तो हम भारत के लोग संविधान से बद्ध हैं, पर वास्तव में संसद के हम कैदी हैं। संसद ने निर्णय के हमारे सारे अधिकार हम से छीनकर अपने पास बंधुआ रख लिए हैं। और संसद का यह एकपक्षीय शक्तिशाली होना ही आजाद भारत के सभी समस्याओं की जड़ है।
वर्तमान प्रणाली, वोटर रूपी शाकाहारी के सामने विभिन्न पशु-पक्षी-मत्स्य के स्वादिष्ट मांस परोसकर उनमें से एक को खाने की बाध्यता जैसा है। ऊपर से उसे वमन करने की भी मनाही है। उदहारण के लिए संविधान की धारा 243 ग्रामसभा/नगरपालिका के गठन को आवश्यक ठहराती है। पर इसी धारा के उपबंध ‘क’ तथा ‘ब’ इन संवैधानिक इकाइयों को विधानसभा द्वारा शक्ति न प्रदान करने की छूट भी देते हैं। इसीलिए आज स्थानीय निकाय वन्ध्यापुत्र बनकर रह गए हैं। यह विडम्बना तभी दूर होगी जब सातवीं अनुसूची में संघ, राज्य, समवर्ती सूची के साथ-साथ स्थानीय निकाय सूची भी स्पष्ट हो।
आज संविधान, तंत्र का बंधक बनकर रह गया है। तंत्र अपने सभी गलत काम संविधान को ढाल बनाकर ही करता है। पहले संविधान को संशोधित कर उसे मन-मुताबिक़ बनाता है, फिर उसी संविधान की दुहाई देकर अनाप-शनाप क़ानून जनता पर ठोक देता है। आज विश्वभर में शायद भारत एकमात्र राष्ट्र है, जहां का संविधान उसके नागरिकों की सहमति के बिना ही संशोधित होता हो। संसद से संविधान की मुक्ति होने पर ही हम “प्रतिनिधि लोकतंत्र” रूपी रावण से मुक्त हो, “सहभागी लोकतंत्र” रूपी रामराज्य को पाएंगे।