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    Home » हत्या के 75 साल बाद भी गाँधी से इतना ख़ौफ?
    भारत

    हत्या के 75 साल बाद भी गाँधी से इतना ख़ौफ?

    By January 23, 2025No Comments9 Mins Read
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    आज से लगभग आठ दशक पहले ठीक इन्हीं दिनों नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, वी. आर. कड़कड़े, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे, शंकर किष्टैया, दत्तात्रेय परचुरे, दिगंबर बडगे (वायदा माफ़ गवाह), गंगाधर दंडवते (फ़रार), गंगाधर जाधव (फ़रार), सूर्यदेव शर्मा (फ़रार) और विनायक दामोदर सावरकर (सबूत के अभाव में बरी) जैसे हिंदुत्व-समर्थक षडयंत्रकारी हत्यारों ने महात्मा गाँधी को रास्ते से हटाने की व्यूह रचना कर ली थी। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गाँधी के पैर छूने के बहाने उनकी हत्या कर दी. इस घटना के 75 बरस बीत जाने के बाद भी गोडसे-सावरकर की विचार संततियों में गाँधी के प्रति घृणा गहरी होती चली गई है. ये लेख मैंने 22 जनवरी 2017 को लिखा था.

    एक तस्वीर में दुबली पतली काया वाला उघाड़े बदन बैठा बुज़ुर्ग लकड़ी के चरखे पर सूत कातता हुआ, तो दूसरी में डिज़ाइनर चरखे के पास डिज़ाइनर कपड़े पहने भरे बदन वाला स्वस्थ और आत्मविश्वास से लबरेज़ प्रधानमंत्री. दोनों तस्वीरों को अलग बगल रखकर आज के किसी ऐडगुरू से पूछिए – इनमें बेहतर ‘ब्रांड नेम’ कौन हो सकता हैमुझे नहीं मालूम कि कितने लोग हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी सरकार के वरिष्ठ मंत्री अनिल विज की तरह कहेंगे: ”मोदी ज़्यादा बैटर ब्रांड नेम है.” लेकिन अनिल विज ने गाँधी पर ये टिप्पणी पूरी ईमानदारी से की. उन्होंने कहा, ”गाँधी जी के नाम से खादी कोई पेटेंट थोड़ी हुई है.”

    गाँधी की विचारधारा पर उनकी सहमति और असहमति पर बाद में आएँगे पर पहले देखिए कि पिछले 25 बरस में भारतीय राजनीति की भाषा किस क़दर बदल गई है. ये राजनीति नहीं बाज़ार की भाषा है – ब्रांडनेम, पेटेंट और सेल का बढ़ना. और ये सब उस खादी के संदर्भ में कहा गया जिसे गाँधी ने अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लोगों को एकजुट करने का एक राजनीतिक औज़ार बनाया. नए दौर के नए नेताओं को अब उस खादी के ब्रांड, सेल और पेटेंट की चिंता है. भारतीय राजनीति की भाषा में आए इस बदलाव के लिए अनिल विज या नरेंद्र मोदी ज़िम्मेदार नहीं है. ये देन है पीवी नरनिम्हाराव और मनमोहन सिंह की जिनकी नीतियों ने समाज को हर विचार, हर सिद्धांत और हर मूल्य का बाज़ार भाव तय करने की लत लगा दी.

    पर गाँधी के बारे में अनिल विज ने आगे जो कुछ कहा वो आर्थिक उदारीकरण और आधुनिक बाज़ार नहीं बल्कि गाँधी और उनके विचार के प्रति हिंदुत्ववादी राजनीति की दशकों पुरानी असमंजस या असहायता को ज़ाहिर किए दे रहा था.

    उन्होंने गाँधी के नाम को एक अपशकुन की तरह बताया और कहा,”महात्मा गाँधी का ऐसा नाम है कि जिस दिन से नोट के ऊपर चिपका उस दिन से नोट का डीवैल्यूएशन हो गया. तो अच्छा ही किया गाँधी का (नाम) हटाके मोदी का (नाम) लगाया है.” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह ही अनिल विज की विचारधारात्मक परवरिश भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में हुई और बाद में वो हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाने लगे. गाँधी के ख़िलाफ़ बोले गए उनके वचनों की प्रतिक्रिया उस काँग्रेस की ओर से भी हुई जिसने गाँधी को सिर्फ़ तस्वीरों तक सीमित रखने में कोई क़सर नहीं की है.

    जैसा कि ऐसे मामलों में होता है, भारतीय जनता पार्टी ने तुरंत अपने ही नेता अनिल विज के बयान की निंदा की, हरियाणा के मुख्यमंत्री (अब पूर्व हो चुके हैं) मनोहरलाल खट्टर ने बचते बचाते कहा, ”व्यक्तिगत रूप से किसी ने क्या कहा उसका सीधे पार्टी से कोई संबंध नहीं होता. नरेंद्र मोदी ने खादी को बढ़ाने के लिए चरखा चलाया कोई गाँधी को पीछे करने के लिए नहीं.” 

    अनिल विज ने भी पार्टी लाइन भाँपकर गाँधी पर दिए अपने बयान को ट्विटर के ज़रिए वापिस ले लिया. उन्होंने लिखा, ”महात्मा गाँधी पर दिया बयान मेरा निजी बयान है. किसी की भावना को आहत न करे इसलिए मैं इसे वापिस लेता हूँ.”

    दिन में बीस ब्रेकिंग न्यूज़, पच्चीस ख़ुलासे और 35 सनसनीख़ेज़ पर्दाफ़ाश करने वाले मीडिया के इस दौर में अनिल विज का गाँधी-विरोधी बयान भी आई-गई बात सा हो गया. गाँधी की जगह अपनी तस्वीर लगाए जाने पर न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ कहने की ज़रूरत समझी और न ही विज के बयान की तरह मोदी की तस्वीरें वापिस ली गईं.

    ये सब कुछ महात्मा गाँधी की हत्या के 69 बरस पूरे होने से कुछ ही दिन पहले हुआ.अब से 69 बरस पहले दिल्ली में वो जनवरी की ही एक ठंडी शाम थी. तब दिल्ली की हवा में इतना प्रदूषण नहीं होता होगा तभी गाँधी ने एक अख़बार में छपी इस ख़बर को “निकम्मी” बताया कि गाँधी और पटेल हवा खाने पिलानी जा रहे हैं.

    गाँधी ने कहा – दिल्ली की हवा इतनी अच्छी है, मुझे हवा खाने बाहर जाने की क्या ज़रूरत है.पर दिल्ली की हवा दरअसल इतनी साफ़ भी न थी. बँटवारे के बाद उसमें ज़हर घुल गया था. ये ज़हर हवा में भले ही न महसूस होता हो पर लोगों के ज़ेहन सांप्रदायिक घृणा के ज़हर से भरे हुए थे. नाथूराम गोडसे के हाथों अपनी हत्या के ठीक नौ दिन पहले मोहनदास करमचंद गाँधी ने दिल्ली के बिड़ला भवन में शाम की एक प्रार्थना सभा में हिंदू कट्टरपंथियों को एक सीधा संदेश दिया था. उन्होंने कहा, “आप ऐसा न करें. इससे हिदू धर्म बचने वाला है नहीं. मेरा तो दावा है कि अगर हिंदू धर्म को बचना है इस दुनिया में तो जो काम मैं कर रहा हूँ ऐसे कामों से हिंदू धर्म बच सकता है.”

    इससे एक दिन पहले यानी 20 जनवरी, 1948 को पाकिस्तान से आए एक शरणार्थी नौजवान मदनलाल पाहवा ने गाँधी की प्रार्थना सभा में बम विस्फोट कर दिया था. ये गाँधी के लिए चेतावनी थी. गाँधी ने अगले दिन प्रार्थना सभा में इकट्ठा हुए लोगों को बताया कि कैसे पाहवा सिर्फ़ एक औज़ार भर है इसलिए हमें ये प्रार्थना करनी चाहिए कि ईश्वर उसे सन्मति दे.

    गाँधी का संदेश दरअसल उन राजनीतिक ताक़तों के लिए था जो मदनलाल पाहवा और दूसरे लोगों को महात्मा गाँधी का क़त्ल करवाने के लिए तैयार कर रहे थे. नौजवानों का ब्रेनवॉश करने के इस तरीक़े को गाँधी बारीकी से समझ चुके थे. उन्होंने 21 जनवरी 1948 की प्रार्थना सभा में इस तरीक़े को समझाया. उन्होंने कहा कि मदनलाल पाहवा को ये समझाने वाले कई लोग हैं कि मैं दुष्ट हूँ और हिंदुओं का दुश्मन हूँ और दुष्टों का वध करने के लिए ईश्वर किसी न किसी को धरती पर भेजता है. मदनलाल पाहवा मान बैठा था कि गाँधी जैसे दुष्ट की हत्या करना धर्म का काम है. वो सफल नहीं हुआ लेकिन दस दिन बाद ही इस गुट के एक दूसरे सदस्य नाथूराम गोडसे ने गाँधी के सीने में तीन गोलियाँ उतार दी.

    गाँधी की हत्या को 75 वर्ष बीत चुके हैं. इतने दशकों में राजनीतिक, अकादमिक और निजी स्तर पर जितनी समीक्षा गाँधी की हुई उतनी शायद ही किसी और नेता की हुई हो. गाँधी की जितनी आलोचना होती गई उतना ही वो आलोचना से परे होते चले गए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ परिवार की असमंजस का यह बड़ा कारण है.

    मुख्यधारा की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी पंडित जवाहरलाल नेहरू को बहुत आसानी से ख़ारिज कर सकती है, पर गाँधी को ख़ारिज करना उसके लिए या फिर आरएसएस के लिए उतना आसान नहीं है. क्योंकि गाँधी के विचार भले ही न बढ़े या फैले हों पर उनकी हत्या के सात दशक बाद उनकी “ब्रांड-वैल्यू” देश और विदेश में इतनी बढ़ गई है कि वो बीजेपी ही नहीं बल्कि काँग्रेस के लिए भी एक मजबूरी बन गए हैं. बल्कि वो ब्रितानी सरकार के लिए भी एक ऐसी मजबूरी बन गए हैं जिसकी मूर्ति ब्रितानी सरकार को अपनी संसद के सामने स्थापित करने में ही राजनीतिक फ़ायदा नज़र आया.

    गाँधी और गाँधी विचार से ये संघ परिवार की लुकाछिपी दशकों पुरानी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गाँधी की हत्या के कई बरस बाद उन्हें अपने प्रात:स्मरणीय विभूतियों की सूची में शामिल कर लिया. इसी तरह बाबा साहेब अंबेडकर भी इस सूची में ले लिए गए. लेकिन गाँधी से संघ का द्वंद्व ख़त्म नहीं हुआ. संघ परिवार खुले तौर पर गाँधी को ख़ारिज तो नहीं कर पाता लेकिन उनकी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा भी नहीं होने देना चाहता क्योंकि भारतीय समाज के बारे में गाँधी और संघ की समझ एक दूसरे से एकदम उलट हैं.

    इसीलिए कभी अनिल विज गाँधी के नाम को अपशकुन बताते हैं और कहते हैं कि धीरे धीरे उनकी तस्वीर करेंसी नोटों से भी हटा दी जाएगी, तो कभी भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त कहते हैं. संघ के कई नेता घोषित तौर पर राह से भटका हुआ तो मानते हैं पर उसके मंतव्य को ग़लत नहीं कहते. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह या रज्जू भैया ने 1998 में मुझे आउटलुक पत्रिका के लिए दिए एक इंटरव्यू में गोडसे संबंधी मेरे सवाल का जवाब इन शब्दों में दिया था: “गोडसे अखंड भारत से प्रेरित थे. उसके मंतव्य अच्छे थे पर उसने अच्छे उद्देश्य के लिए ग़लत तरीक़े का इस्तेमाल किया.”

    “

    आरएसएस के जिन संगठनों को सीधे सीधे वोट की राजनीति नहीं करनी होती उन्हें गाँधी को निशाना बनाने में कभी संकोच नहीं हुआ.


    गुजरात में 2002 में हुए मुस्लिम-विरोधी दंगों के बाद एक जनसभा में विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया ने खुलेआम कहा,“गोधरा के रेलवे स्टेशन पर आतंकवाद की विचारधारा इसलिए आई क्योंकि इस देश में गाँधी की विचारधारा चल रही है. हमने 28 तारीख को महात्मा गाँधी को अपने घर में ताले में बंद कर दिया था… जब तक इस धरती पर गाँधी की विचारधारा, मुसलमानों के सामने घुटने टेकने की विचारधारा (को) हम नहीं छोड़ेंगे, आतंकवाद नहीं निपटेगा. मेरे भाइयों हमें गाँधी को छोड़ना होगा.”

    पर गाँधी को छोड़ना इतना आसान नहीं है क्योंकि मारे जाने के सात दशक बाद भी गाँधी की “ब्रांड वैल्यू” बनी हुई है और उस तक पहुँचने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लंबा सफ़र तय करना होगा. और वो भी बदले हुए रास्ते पर.

    (विवाद छिड़ने के बाद अनिल विज ने अपने गाँधी-विरोधी बयान के लिए क्षमा माँग ली थी).

    राजेश जोशी का यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार

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