सरकार यदि बेहद तेज़ी दिखा ले तो भी ‘एक देश एक चुनाव’ के तहत चुनाव क्या 2029 में संभव हो सकता है? जब इसको शुरू भी कर दिया गया और लोकसभा या किसी विधानसभा के कार्यकाल से पहले ही सरकार गिर गई तो क्या होगा? लोकसभा या विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु जनादेश या केंद्र या राज्य सरकार के गिरने की स्थिति में क्या होगा? ऐसे सवालों पर ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से जुड़े विधेयकों पर संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष पी.पी. चौधरी ने जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि बहुत जल्दी की जाए तो भी मौजूदा विधेयकों के तहत एक साथ लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव 2034 में ही संभव हो सकते हैं।
संसदीय समिति के अध्यक्ष और बीजेपी सांसद पी.पी. चौधरी ने यह भी इशारा किया है कि समिति इन विधेयकों के दायरे से आगे बढ़कर कुछ अतिरिक्त सुझाव दे सकती है। पी.पी. चौधरी ने द इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में बताया कि समिति इस मुद्दे पर गहन विचार-विमर्श कर रही है और अंतिम निर्णय संसद द्वारा लिया जाएगा। उन्होंने कहा, ‘समिति चर्चा करेगी, संसद निर्णय लेगी। हम निश्चित रूप से तारीख़ नहीं बता सकते, लेकिन विधेयक के अनुसार, अगर नियत तारीख़ के साथ संसद का पहला सत्र शुरू होता है, तो यह 2034 से संभव हो सकता है।’
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का उद्देश्य लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ आयोजित करना है। सरकार का तर्क है कि इससे बार-बार होने वाले चुनावों से होने वाले आर्थिक और प्रशासनिक बोझ को कम किया जा सकेगा। इस प्रस्ताव के तहत संविधान (129वां संशोधन) विधेयक, 2024 और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक, 2024 शामिल हैं। इन्हें दिसंबर 2024 में लोकसभा में पेश किया गया था। बाद में इन्हें तुरंत चौधरी की अध्यक्षता वाली समिति को सौंप दिए गए। समिति हितधारकों के साथ परामर्श कर रही है।
बिलों को कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने 17 दिसंबर, 2024 को पेश किया था और ये पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च-स्तरीय समिति की सिफारिशों पर आधारित थे।
इस महत्वाकांक्षी सुधार को लागू करने के लिए कई क़ानूनी और राजनीतिक चुनौतियाँ हैं। सबसे बड़ी बाधा संवैधानिक संशोधन के लिए ज़रूरी दो-तिहाई बहुमत है। यह फ़िलहाल एनडीए के पास नहीं है। संसदीय समिति के अध्यक्ष चौधरी ने इस पर विश्वास जताया कि ‘राष्ट्रीय हित’ को प्राथमिकता देने वाले दल इन विधेयकों का समर्थन करेंगे।
विधेयक में यह प्रावधान है कि एक बार क़ानून अधिसूचित हो जाने के बाद सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव अगले संसदीय चुनाव के साथ होंगे, भले ही उनकी शेष अवधि कितनी भी हो। इस प्रावधान की आलोचना कई स्तरों पर की गई है।
साथ चुनाव कैसे हो पाएँगे?
हालाँकि ड्राफ्ट क़ानून में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ लाने के लिए प्रावधान है, चौधरी ने कहा कि समिति सिंक्रनाइजेशन बनाए रखने के लिए अतिरिक्त सिफारिशें कर सकती है। ऐसा ही एक सुझाव रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव हो सकता है, जैसा कि जर्मनी में है। इसमें विधायिका के सदस्यों को सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए सरकार बनाने की संख्या होनी चाहिए।
अगर ये बिल पास हो जाते हैं, तो राष्ट्रपति नवनिर्वाचित लोकसभा के पहले सत्र में नियत तारीख की अधिसूचना जारी करेंगे और उसके बाद चुनी गई हर राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा के साथ करने के लिए छोटा किया जाएगा। इससे लोकसभा के पांच साल के कार्यकाल के अंत में एक साथ चुनाव हो सकेंगे।
लोकसभा या विधानसभा चुनावों में त्रिशंकु जनादेश या केंद्र या राज्य सरकार के गिरने की स्थिति में क्या होगा, इस सवाल पर चौधरी ने कहा, ‘संविधान में अभी भी अविश्वास प्रस्ताव का ज़िक्र नहीं है; यह लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों के नियम 198 के तहत संचालित होता है। हम स्थिरता के लिए कुछ प्रावधान ला सकते हैं। हम संविधान में नए प्रावधानों की सिफारिश कर सकते हैं।’ उन्होंने कहा कि समिति इस मुद्दे पर विचार-विमर्श कर सकती है और यह संसद को तय करना है।
अंग्रेज़ी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, ‘अगर संविधान में कुछ रुकावटें हैं, तो सभी सदस्यों के साथ चर्चा के बाद उन रुकावटों को दूर किया जा सकता है। जर्मन मॉडल की तरह रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा हो सकती है। एक बार जब आप अविश्वास प्रस्ताव लाते हैं, तो उसी समय आपको विश्वास प्रस्ताव भी लाना चाहिए। बहुत ही दुर्लभ स्थिति में, सदन के नेता को स्पीकर की तरह सदन में चुना जा सकता है। लेकिन, ऐसी स्थिति नहीं आएगी। हमने देखा है कि मतदाता उन लोगों का समर्थन नहीं करते जो अविश्वास प्रस्ताव लाते हैं।’
विपक्ष के कुछ लोगों की आलोचना है कि यह क़दम लोकतंत्र विरोधी और संघवाद के ख़िलाफ़ होगा। इसके जवाब में चौधरी ने कहा कि एक साथ चुनाव लोकतंत्र के उद्देश्य को बढ़ाएंगे। उन्होंने कहा, ‘हमारा अनुभव है कि जिन राज्यों में एक साथ चुनाव होते हैं, वहां मतदान 10-20% अधिक होता है। क्या यह लोकतंत्र के हित में है या खिलाफ? अगर केवल 40% मतदान होता है और पीएम या सीएम 21% वोटों से चुने जाते हैं, तो क्या यह लोकतंत्र है? मुझे विश्वास है कि एक साथ चुनाव होने पर मतदान 80% से अधिक होगा। लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति अधिक मजबूत होगी और यह लोकतंत्र को मजबूत करेगा। एक साथ चुनाव न कराना लोकतंत्र विरोधी है।’
उन्होंने तर्क दिया, ‘पहले तीन चुनाव 1967 तक एक साथ हुए थे। क्या वे चुनाव संघवाद के खिलाफ थे? कुछ विधानसभा चुनाव अभी भी लोकसभा के साथ होते हैं, क्या यह संघवाद के खिलाफ है? क्या उन राज्यों की किसी क्षेत्रीय पार्टी ने अलग चुनाव की मांग की है? आंध्र प्रदेश में टीडीपी या ओडिशा में बीजद का उदाहरण देखें। यह तर्क टिकाऊ नहीं है। हम ऐसे तर्क के साथ समिति के सामने आने वाले किसी भी व्यक्ति का स्वागत करते हैं, बशर्ते उनके पास आधार हो। हम उसका जवाब देंगे। अगर कोई आधार नहीं है, तो हम ऐसे तर्क से ठीक से नहीं निपट सकते।’
समिति की प्रगति और परामर्श
संयुक्त संसदीय समिति ने इस मुद्दे पर व्यापक परामर्श शुरू किया है। अब तक समिति ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित, चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों, दो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, दिल्ली उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों और हरीश साल्वे और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे वरिष्ठ वकीलों से मुलाकात की है। समिति की योजना और अधिक कानूनी विशेषज्ञों, राजनीतिक नेताओं और राज्यों के अन्य हितधारकों से चर्चा करने की है।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के समर्थकों का तर्क है कि यह बार-बार होने वाले चुनावों से होने वाले भारी खर्च को कम करेगा। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अप्रैल 2025 में कहा था कि 2024 के लोकसभा चुनाव में लगभग 1 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए और एक साथ चुनाव से इस तरह के खर्च को बचाया जा सकता है। उन्होंने यह भी दावा किया कि इससे देश की जीडीपी में 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है, जो मूल्य के हिसाब से लगभग 4.5 लाख करोड़ रुपये है।
विपक्षी दलों ने इस प्रस्ताव को संघीय ढांचे पर हमला करार दिया है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और अन्य दलों ने इसे असंवैधानिक और क्षेत्रीय दलों के हितों के खिलाफ बताया है। कुछ विपक्षी सांसदों ने जेपीसी की बैठकों में इस पर सवाल उठाए कि यह बिल बुनियादी ढांचे और संघवाद को कैसे प्रभावित करेगा।