
Maa Mundeshwari Temple
बिहार: बिहार की मिट्टी सिर्फ अपने रोचक इतिहास ही नहीं, बल्कि आस्था और पवित्र मंदिरों से भी सराबोर है। यहां का हर कोना किसी न किसी चमत्कारिक गाथा से जुड़ा है। इन्हीं में से एक है कैमूर जिले का प्रसिद्ध माता मुंडेश्वरी धाम मंदिर, जो अपनी अनोखी परंपराओं, रहस्यमयी स्थापत्य और प्राचीनता के कारण आज भी लोगों के लिए आस्था का सबसे बड़ा केंद्र बना हुआ है। कहा जाता है कि ना समय इसकी दीवारों को मिटा सका, ना आंधियां इसकी आस्था को हिला सकीं। यही कारण है कि यह मंदिर भारत के सबसे पुराने जीवित मंदिरों में शुमार है।
600 ईसा पूर्व से विराजमान मां मुंडेश्वरी
कैमूर जिले के भगवानपुर प्रखंड की पवरा पहाड़ी पर स्थित मां मुंडेश्वरी का यह मंदिर 608 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार यह लगभग 600 ईसा पूर्व से यहां विद्यमान है। हालांकि इसके पहले के इतिहास के बारे में अब तक कोई ठोस जानकारी नहीं मिल सकी है। माना जाता है कि यह मंदिर गुप्तकाल या उससे भी पहले का है। जब शैव और शाक्त संप्रदाय का प्रभाव बिहार-झारखंड क्षेत्र में काफी मजबूत था। इस मंदिर में देवी मुंडेश्वरी की पूजा होती है, जिन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है। यहां भगवान शिव का पंचमुखी लिंग भी स्थापित है, जो मां के साथ-साथ पूजे जाते हैं। पुरातत्वविदों के अनुसार यह मंदिर भारत का सबसे प्राचीन अष्टकोणीय मंदिर है और इसकी वास्तुकला नालंदा और विक्रमशिला जैसे प्राचीन स्थलों से मिलती-जुलती है।
अष्टकोणीय स्वरूप है मंदिर की पहचान
मां मुंडेश्वरी मंदिर का सबसे बड़ा आकर्षण इसका अष्टकोणीय आकार (Octagonal Structure) है। यह शैली न केवल बिहार बल्कि पूरे भारत में बेहद दुर्लभ मानी जाती है। इस मंदिर में दो प्रमुख द्वार हैं। एक प्रवेश के लिए और दूसरा निकास के लिए। इसके भीतर की मूर्तियां, दीवारों पर उकेरी गई नक्काशी और पत्थरों पर बने शिलालेख आज भी उस युग की कला और शिल्प कौशल की गवाही देते हैं। मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं, यक्षों, गंधर्वों और लोककथाओं के प्रतीक अंकित हैं। माना जाता है कि यहां की हर ईंट में आस्था और चमत्कार की झलक मिलती है।
यहां प्रचिलत है रक्तहीन पशु बलि की अनोखी परंपरा
मां मुंडेश्वरी मंदिर की सबसे अद्भुत परंपरा इसकी रक्तहीन बलि है। सदियों पुरानी इस प्रथा में बकरे को माता के चरणों में लिटाया जाता है और पुजारी अक्षत (चावल) से प्रतीकात्मक प्रहार करते हैं। इसके बाद बकरा कुछ समय के लिए रहस्यमय तरीके से मूर्छित हो जाता है और फिर जब पुनः अक्षत छुआया जाता है तो वह जीवित होकर उठ खड़ा होता है।
यह प्रक्रिया ‘बलि’ का प्रतीक मानी जाती है, परंतु इसमें किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होती। यही इस मंदिर को देशभर के अन्य शक्ति पीठों से अलग पहचान देती है।
526 सीढ़ियां या सीधे रास्ते से पहुंच सकते हैं भक्त
मां मुंडेश्वरी के दर्शन के लिए भक्तों को 526 सीढ़ियों की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। यह रास्ता बेहद मनमोहक है, जहां से पूरे कैमूर पठार का अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। हालांकि सड़क मार्ग से भी मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है।
श्रद्धालु मानते हैं कि सीढ़ियों से पैदल चढ़ाई करना भक्ति का सच्चा प्रतीक है, इसलिए अधिकांश लोग उसी रास्ते को चुनते हैं।
नवरात्र में उमड़ता है भक्तों का सैलाब
सालभर मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहता है, लेकिन शारदीय नवरात्र और चैत्र नवरात्र के दौरान यहां श्रद्धालुओं का जनसागर उमड़ पड़ता है। नवरात्र के समय माता मुंडेश्वरी का दरबार दीपों और फूलों से जगमगा उठता है।
भक्त मानते हैं कि सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद यहां पूरी होती है। मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु नारियल, चुनरी और प्रसाद अर्पित करते हैं।
कैसे पहुंचे मां मुंडेश्वरी धाम
रेल मार्ग से: सबसे नजदीकी स्टेशन भभुआ रोड (मोहनिया) है, जहां से ऑटो या टैक्सी के जरिए मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग से: कैमूर जिला मुख्यालय से मंदिर की दूरी लगभग 15 किलोमीटर है।
हवाई मार्ग से: निकटतम एयरपोर्ट वाराणसी (करीब 100 किमी) और पटना (करीब 190 किमी) हैं, जहां से सड़क मार्ग द्वारा मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
चर्चा का विषय है यहां का पुरातात्विक महत्व और रहस्यमय वातावरण
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने इस मंदिर को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है। यहां खुदाई के दौरान प्राप्त मूर्तियां और पत्थर यह संकेत देते हैं कि यह स्थान शिव-शक्ति उपासना का प्राचीन केंद्र रहा है। मंदिर की संरचना में प्रयुक्त पत्थरों और नक्काशी से यह अनुमान लगाया जाता है कि इसका निर्माण संभवतः गुप्त काल (4वीं-6वीं शताब्दी) या उससे पहले हुआ होगा।
मां मुंडेश्वरी धाम केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि बिहार की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। यहां के चमत्कारिक प्रभाव के चलते सिर्फ स्थानीय ही नहीं बल्कि दूर क्षेत्रों से भी भक्त अपनी मुरादें लेकर माता के दरबार में शीश झुकाने के लिए आते हैं। इस मंदिर में पुरातन काल से चली आ रहीं सदियों पुरानी आस्था आज भी जीवित है।
डिस्क्लेमर:
यह लेख धार्मिक मान्यताओं और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है। इसमें उल्लिखित परंपराओं और कथाओं का उद्देश्य केवल जानकारी देना है, इनका वैज्ञानिक या व्यक्तिगत मत से कोई संबंध नहीं है।


