केंद्र सरकार ने 30 अप्रैल 2025 को घोषणा की कि आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित गणना शामिल की जाएगी। इस फैसले से बीजेपी और इसका वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) सीधा जुड़ा है। बीजेपी और आरएसएस नेताओं के रुख और बयान जाति जनगणना पर समय के साथ बदलते रहे हैं।
पिछले कुछ सालों में खासतौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने आरक्षण के मुद्दे पर उतार-चढ़ाव भरा रुख दिखाया है। जाति-आधारित कोटा के अपने ऐतिहासिक विरोध के बावजूद वो अक्सर अस्पष्ट सार्वजनिक बयानों में बहुत महीन बदलावों के साथ बिल्ली-और-चूहे का खेल खेलता रहता है। संघ से जुड़े नेता अक्सर इस मुद्दे पर राष्ट्रीय संवाद की आवश्यकता का आह्वान करते हैं। अभी भी उनकी प्रतिक्रिया बहुत सावधानी वाली आई है।
2010 से पहले: जाति जनगणना का विरोध
आरएसएस का रुख: आरएसएस ने जाति आधारित गणना का लगातार विरोध किया। यह तर्क देते हुए कि यह सामाजिक एकता और राष्ट्रीय एकता को कमजोर करेगा। 2010 में, आरएसएस के तत्कालीन संयुक्त सचिव सुरेश भैय्याजी जोशी ने कहा कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) जैसे वर्गों को दर्ज करना स्वीकार्य है, लेकिन “जाति जनगणना दर्ज करना एक अच्छा विचार नहीं है” क्योंकि यह सामाजिक एकता को कमजोर कर सकता है।
भाजपा का रुख: भाजपा इस मुद्दे पर उस समय कम मुखर थी, लेकिन आरएसएस के नजरिए के साथ थी, यह मानते हुए कि जाति गणना सामाजिक विभाजन को गहरा सकती है। लेकिन बीजेपी ने इसे रणनीतिक रूप में अपनाए रखा। वो सीधे सामने नहीं आना चाहती थी। लेकिन इसके विरोध का जिम्मा आरएसएस ने संभाला।
2010-2011: समर्थन में नाटकीय बदलाव
भाजपा का रुख: 2010-2011 में 2011 की जनगणना पर लोकसभा चर्चा के दौरान, भाजपा नेताओं, जिसमें स्व. सुषमा स्वराज शामिल थीं, ने जाति जनगणना का समर्थन किया और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए सरकार पर इसे रोकने का आरोप लगाया। गोपीनाथ मुंडे और हुकुमदेव नारायण यादव जैसे ओबीसी नेता इस मुद्दे पर एकजुट थे। यह आरएसएस के विरोध के बावजूद बीजेपी में एक बड़ा बदलाव था, जो ओबीसी मतदाताओं को आकर्षित करने की राजनीतिक मजबूरी को दर्शाता था।
आरएसएस का रुख: आरएसएस ने विरोध जारी रखा। सुरेश जोशी ने दोहराया कि जाति जनगणना जातिगत पहचान को बढ़ावा देगी और सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचाएगी। हालांकि, नवंबर 2016 में संघ परिवार की एक बैठक में रुख में नरमी दिखी, जहां सदस्यों ने सहमति जताई कि यदि “सभी जातियों की गणना” पिछड़े और अगड़े जातियों के बीच टकराव से बचाए, तो यह स्वीकार्य हो सकता है।
2015 में संघ प्रमुख भागवत के विचार
आरएसएस के अंदर जाति जनगणना का विरोध तेज होता गया। इसकी शाखाओं में भी इस पर बात होने लगी। यह वो साल है जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर विवादित बयान दिया। उनका यह बयान बिहार चुनाव से ठीक पहले आया था और नतीजे आने पर इसे भाजपा की हार का एक कारण माना गया। आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव और अन्य आलोचकों ने संघ पर आरक्षण विरोधी और पिछड़ी जाति विरोधी होने का आरोप लगाया। आरएसएस अगड़ी जातियों का संगठन है। अगड़ी जातियां आरक्षण के खिलाफ रही हैं। हालांकि अब बीजेपी और आरएसएस का स्टैंड आरक्षण पर बदल चुका है। लेकिन अकेले में या जहां उन्हें लगता है कि कोई खतरा नहीं है, वो आरक्षण के खिलाफ बोलते हैं।
2015 के बिहार चुनाव के नतीजे ने बीजेपी और आरएसएस को बचाव मुद्रा में ला दिया। इसके बाद आरएसएस ने आरक्षण के समर्थन की बात स्पष्ट की, लेकिन जाति जनगणना पर अपनी सतर्कता बनाए रखी। 2019 में, भागवत के आरक्षण पर संवाद के आह्वान ने फिर विवाद पैदा किया, हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि जब तक जातिगत भेदभाव रहेगा, आरक्षण जारी रहना चाहिए।
भाजपा का रुख: भाजपा ने जाति जनगणना पर स्पष्ट रुख टाला, हिंदुत्व एजेंडे के जरिए हिंदू मतों को एकजुट करने पर ध्यान दिया। 2018 में एससी/एसटी अधिनियम को कमजोर करने की धारणा ने विवाद पैदा किया, जिसके बाद दलित समर्थन बनाए रखने के लिए नुकसान नियंत्रण किया गया।
2017ः आरएसएस की स्पष्ट असहमति
आरएसएस के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने जाति-आधारित आरक्षण के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बयान दिया। यह भी कहा कि इससे तो जातिवाद हमेशा कायम रहेगा। मनमोहन वैद्य का यह बयान जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आया था। इस बयान की कड़ी आलोचना हुई और इसे आरएसएस द्वारा जाति-आधारित नीतियों के प्रति अपने वैचारिक विरोध को बनाए रखने के रूप में देखा गया।
2018–2019 संघ-भाजपा की अस्पष्ट स्थिति
इस दौरान न तो भाजपा और न ही आरएसएस ने जाति जनगणना की मांग का स्पष्ट समर्थन किया। पार्टी ने खास तौर पर आम चुनाव प्रचार के दौरान कोई ठोस रुख अपनाने से परहेज किया। मौका पड़ने पर संघ के नेता इसके विरोध में बोलते थे। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन बयानों को रिपोर्ट नहीं कर रहा था। 2018 में तो केंद्र की बीजेपी सरकार ने एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने की कोशिश की। इसका दलित संगठनों ने जबरदस्त विरोध किया। उनके सड़क पर आने से मोदी सरकार को एससी-एसटी एक्ट कमजोर करने का बयान वापस लेना पड़ा।
2021-2023: संघ-बीजेपी की अनिच्छा और विपक्ष का बढ़ता दबाव
केंद्र की बीजेपी सरकार ने 2021-2023 में संसद में बार-बार कहा कि जनगणना में एससी/एसटी के अलावा जाति डेटा एकत्र करने की कोई योजना नहीं है। इसके लिए तकनीकी चुनौतियों का हवाला दिया गया। जुलाई 2021 में, गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने स्पष्ट रूप से कहा कि सरकार अन्य जातियों की जनसंख्या गणना नहीं करेगी। पार्टी ने कांग्रेस पर समाज को जाति के आधार पर बांटने का आरोप लगाया।
आरएसएस का रुख: दिसंबर 2023 में, आरएसएस के विदर्भ क्षेत्र प्रमुख श्रीधर गडगे ने जाति जनगणना का विरोध किया, यह कहते हुए कि यह कुछ लोगों को राजनीतिक लाभ देगा लेकिन राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाएगा। हालांकि, कुछ दिनों बाद, आरएसएस के प्रचार प्रमुख सुनील अंबेकर ने स्पष्ट किया कि यदि सामाजिक प्रगति और एकता के लिए उपयोग हो, तो आरएसएस जाति जनगणना के खिलाफ नहीं है, जो सशर्त समर्थन की ओर बदलाव था।
अमित शाह और मोदी के बयानों में विरोधाभास क्यों
नवंबर 2023 में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तो जाति जनगणना का समर्थन करते नज़र आ रहे थे। लेकिन पीएम मोदी की नज़र में सिर्फ चार जातियां थीं, जिनके उत्थान की जरूरत है। विश्लेषकों का कहना है कि यह विरोधाभास जानकर रखा गया। पीएम मोदी ने दिल्ली के एक कार्यक्रम में चार जातियों की बात कही थी। बाद में एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में मोदी ने इन चार जातियों की बात को बार-बार दोहराया। 30 नवंबर 2023 को मोदी ने जो कहा था, उसे पढ़िएः
सितंबर 2024: आरएसएस का सशर्त समर्थन
2 सितंबर 2024 को केरल के पलक्कड़ में एक समन्वय बैठक में, सुनील अंबेकर ने घोषणा की कि आरएसएस जाति जनगणना का सशर्त समर्थन करता है, बशर्ते इसका उपयोग केवल पिछड़े समुदायों के कल्याण के लिए हो, न कि राजनीतिक हथियार के रूप में। संघ के रुख में यह बदलाव महत्वपूर्ण था। क्योंकि विपक्षी दलों के अलावा बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के सहयोगी दल जेडीयू, लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) इसके लिए दबाव बढ़ाते जा रहे थे।। आरएसएस ने जाति को हिंदू समाज और राष्ट्रीय एकता के लिए संवेदनशील मुद्दा माना, लेकिन लोगो के कल्याण के लिए डेटा की जरूरत को स्वीकार किया। यानी एक तरह से संघ ने डेटा की आड़ लेकर इसे स्वीकार किया।
भाजपा का रुख: भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबद्धता से परहेज किया, लेकिन बिहार जैसे राज्य-स्तरीय जाति सर्वेक्षणों का समर्थन किया, जहां यह नीतीश की गठबंधन सरकार का हिस्सा है। पार्टी का सतर्क नज़रिया जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा देने की चिंताओं और सहयोगियों के दबाव को संतुलित करने को बताता है। क्योंकि बिहार के जाति सर्वेक्षण का मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचा था, जहां केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया था।
अप्रैल 2025: जाति जनगणना की पूर्ण स्वीकृति
30 अप्रैल 2025 को, पीएम मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आगामी जनगणना में जाति गणना को मंजूरी दी। उसने देरी के लिए उल्टा कांग्रेस को ही जिम्मेदार ठहराया। हालांकि ज्यादातर विश्लेषकों ने कहा कि इस फैसले के जरिए पीएम मोदी की ओबीसी पहचान को विपक्षी नैरेटिव का जवाब देने की कोशिश की गई है। कहा जा रहा है कि जाति जनगणना का फैसला मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की बैठक के बाद लिया गया। यह कदम विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस, से पहल छीनने और बिहार चुनावों से पहले जेडीयू, एलजेपी (रामविलास पासवान) की मांगों को पूरा करने की रणनीतिक कोशिश थी। क्योंकि मोदी सरकार केंद्रीय सेवाओं में लैटरल एंट्री लेकर आई थी। इसके जरिए आरक्षण को दरकिनार किया जा रहा था। नेता विपक्ष राहुल गांधी ने इस मुद्दे को जोरशोर से उठाया। केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने लैटरल एंट्री का विरोध कर दिया।
आरएसएस का रुख: 30 अप्रैल 2025 को, सुरेश भैय्याजी जोशी, जिन्होंने 2010 में जाति जनगणना का विरोध किया था, ने इस निर्णय का समर्थन किया, यह कहते हुए कि “देश के लिए जो आवश्यक हो, वह किया जाना चाहिए” और कल्याण पर ध्यान देने की बात कही। यह उनके पहले रुख से पूर्ण बदलाव था, जो आरएसएस के भाजपा की चुनावी रणनीति के साथ तालमेल को दर्शाता था।
एक्स पर जन भावना: एक्स पर पोस्ट ने भाजपा के बदलाव को उजागर किया, कुछ ने इसके पहले विरोध (जैसे इसे “अवैज्ञानिक” या “विभाजनकारी” कहने) का मजाक उड़ाया, जबकि अन्य ने आरएसएस के प्रभाव को नोट किया।
भाजपा और आरएसएस का जाति जनगणना पर रुख शुरुआती विरोध से सतर्क समर्थन और अप्रैल 2025 तक पूर्ण स्वीकृति तक विकसित हुआ है। लेकिन इसके लिए विपक्ष का दबाव ही काम कर रहा है। यह बदलाव चुनावी दबाव, विपक्षी अभियानों, सहयोगी दलों की मांगों और हिंदू एकता बनाए रखते हुए सामाजिक न्याय को भुनाने की जरूरत से प्रेरित लगता है। हालांकि इसे लेकर चुनौतियां कम नहीं हैं। जाति जनगणना होने के बाद तमाम प्रमुख जातियां आरक्षण में अपना हिस्सा मांगेंगी। लेकिन अगर यह आरक्षण पचास फीसदी से ज्यादा पहुंच गया तो दलित इसे अपने लिए खतरा मान सकते हैं। कुल मिलाकर अभी भी स्थिति साफ नहीं है।
बहरहाल, जाति जनगणना पर भाजपा और आरएसएस के रुख में बदलाव वैचारिक परिवर्तन से ज़्यादा राजनीतिक मजबूरियों से प्रेरित लगता है। ऐसा लगता है कि जनता की भावना, चुनावी दबाव और बढ़ती जाति-आधारित लामबंदी ने उनके रुख को रणनीतिक रूप से बदलने पर मजबूर कर दिया है।