सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु राज्यपाल मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले में राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की तीन महीने की समय-सीमा तय की थी। यह समय-सीमा केंद्र सरकार की अपनी ही गाइडलाइंस से ली गई थी, जैसा कि हाल के खुलासों से स्पष्ट हुआ है। 8 अप्रैल 2025 को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने तमिलनाडु में लंबित विधेयकों पर अनिश्चितकालीन देरी को समाप्त करने का प्रयास किया, जिसने राज्य और राज्यपाल के बीच संवैधानिक विवाद को जन्म दिया था।
तमिलनाडु विधानसभा ने नवंबर 2020 से अप्रैल 2023 के बीच 13 विधेयक पारित किए थे, जिनमें से 10 पर तत्कालीन राज्यपाल आर.एन. रवि ने सहमति देने से इनकार कर दिया था। इन विधेयकों को अनिश्चितकाल के लिए लंबित रखा गया, जिसके कारण तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। राज्य सरकार ने तर्क दिया कि राज्यपाल का यह कदम संवैधानिक प्रक्रिया को बाधित करता है और विधायिका की इच्छा को कमजोर करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए 8 अप्रैल 2025 को अपने 415 पेज के फैसले (तमिलनाडु बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल, 2025 INSC 481) में स्पष्ट किया कि राज्यपालों को विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक देरी करने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने न केवल राज्यपालों के लिए, बल्कि राष्ट्रपति के लिए भी समय-सीमा तय की, जो भारतीय संवैधानिक इतिहास में पहली बार थी।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस परदीवाला ने हाल ही में स्पष्ट किया कि तीन महीने की समय-सीमा केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय (MHA) द्वारा 2016 में जारी दो कार्यालय ज्ञापनों (Office Memoranda) पर आधारित थी। इन गाइडलाइंस में राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की तीन महीने की समय-सीमा निर्धारित की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इन गाइडलाइंस को अपनाते हुए कहा कि यह समय-सीमा राज्य विधेयकों पर देरी को रोकने के लिए आवश्यक है।
कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि यदि तीन महीने से अधिक की देरी होती है, तो इसके लिए वैध कारणों को दस्तावेज में दर्ज करना होगा और संबंधित पक्षों को सूचित करना होगा। इस फैसले ने यह सुनिश्चित किया कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रखा जा सकता।
हालांकि, इस फैसले के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए अनुच्छेद 143 के तहत एक राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference) भेजा। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि क्या न्यायपालिका को राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा तय करने का अधिकार है। यह संदर्भ तमिलनाडु मामले में कोर्ट द्वारा तय की गई तीन महीने की समय-सीमा को “थोपने” के केंद्र के दावे पर आधारित है।
राष्ट्रपति ने यह भी तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय-सीमा का उल्लेख नहीं है। इस संदर्भ ने संवैधानिक शक्तियों और न्यायिक हस्तक्षेप के बीच एक नया विवाद खड़ा कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने तमिलनाडु जैसे राज्यों में विधायी प्रक्रिया को सुचारू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जहां राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव आम हो गया था। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। यदि ऐसा नहीं होता, तो विधेयक को स्वीकृत माना जाएगा।
इसके अलावा, कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए उन विधेयकों को स्वीकृत घोषित किया, जिन्हें तमिलनाडु के राज्यपाल ने अनुचित रूप से लंबित रखा था। यह फैसला न केवल तमिलनाडु, बल्कि अन्य राज्यों के लिए भी एक मिसाल बन गया है, जहां राज्यपालों द्वारा विधेयकों को लंबित रखने की शिकायतें सामने आती रही हैं।
कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन को मजबूत करेगा, लेकिन राष्ट्रपति के संदर्भ ने इस मुद्दे को और जटिल बना दिया है। कुछ यूजर्स ने चिंता जताई कि यह विवाद संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव को बढ़ा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल 2025 का फैसला तमिलनाडु राज्यपाल मामले में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिसने विधेयकों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी और समयबद्ध बनाने की कोशिश की है। केंद्र की गाइडलाइंस को आधार बनाकर तय की गई तीन महीने की समय-सीमा ने राज्यपालों और राष्ट्रपति की जवाबदेही को बढ़ाया है। हालांकि, राष्ट्रपति के संदर्भ ने इस फैसले पर नए सवाल खड़े किए हैं, जिनका जवाब सुप्रीम कोर्ट को देना होगा। यह मामला संवैधानिक शक्तियों, न्यायिक हस्तक्षेप, और केंद्र-राज्य संबंधों पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकता है।