जनता दल (यू) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)-शासित और “अविकास” और बदहाल गवर्नेंस के लिए कुख्यात बिहार के “महामहिम” को अब सब कुछ ठीक लग रहा है लेकिन वही जब गुड गवर्नेंस के लिए देश भर में विख्यात गैर-भाजपा शासित केरल के महामहिम थे तो सब कुछ खराब था और वहाँ की सरकार को पद-पग पर उनके अवरोध का सामना करना पड़ता था. भाजपा के एक उपमुख्यमंत्री सेना को “यशस्वी” मोदी के चरणों में गिरा बताते हैं और दूसरा मंत्री सेना की प्रखर प्रवक्ता को लेकर, बकौल हाईकोर्ट “गटर छाप” टिप्पणी करता है तो पूरी पार्टी दोनों को बचाने खड़ी हो जाती है.
ये तीनों संवैधानिक पदों पर आसीन हैं और उनमें से एक संविधान की संरक्षण, अभिरक्षण और परिरक्षण की शपथ लिए है जबकि बाकी दोनों “शुद्ध अंतःकरण से” और “राग-द्वेष के बिना” की. क्या इन वोट के याचक रहनुमाओं ने गवर्नेंस में संवैधानिक मर्यादा की पालन की अपरिहार्य पूर्वशर्तों में से एक भी पूरी की है?
संविधान राज्यपाल को राज्य विधायिका द्वारा पारित किसी बिल पर यथाशीघ्र फैसला लेने को कहता है लेकिन अपने “दिल्ली आका” को खुश करने के लिए गैर-भाजपा शासित राज्यों के राज्यपाल इसे शब्द युग्म का मतलब लगते हैं “कोई समय सीमा नहीं” और फिर हर कदम पर अवरोध पैदा करते हैं.
लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने यथाशीघ्र का मतलब बताया है तो राष्ट्रपति के जरिये कोर्ट से 14 सवाल किये जाते हैं.
बाबा साहेब ने 4 नवम्बर, 1948 को संविधान सभा में ब्रिटिश इतिहासकार जॉर्ज ग्रोट को उधृत करते हुए भारतीय समाज के और गवर्नेंस में लगे लोगों के लिए “संवैधानिक मर्यादा” का सिद्धांत प्रतिपादित किया था. ग्रोट के अनुसार किसी सरकार के लिए जो शांति और स्वायत्तता की पोषक हो, संवैधानिक नैतिकता का पालन अपरिहार्य है, बाबा साहेब ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था कि हालांकि यह संविधान गवर्नेंस के व्यापक डिटेल्स देने में कुछ ज्यादा बड़ा हो गया है लेकिन इन डिटेल्स को कालांतर में सारहीन मान कर कम किया जा सकता है तब जबकि भारतीय “संवैधानिकत्व की संस्कृति” (कल्चरल ऑफ़ कानस्टिच्युशनलिज्म) को पूर्णतः अंगीकार कर लें. “भारत में फिलहाल संवैधानिक नैतिकता एक राष्ट्रीय भावना नहीं है. इसे पैदा (कल्टीवेट) करना पडेगा क्योंकि प्रजातंत्र भारत की जमीन में —जो प्रत्यक्ष रूप से गैर-प्रजातान्त्रिक है, में केवल टॉप ड्रेसिंग (पौधा उगने के बाद पानी देना) हीं है”.
राज्यपालों, केन्द्रीय और राज्य विधायिकाओं के पीठासीन अधिकारियों और अन्य संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों और नियामक और कानून की रक्षक संस्थाओं जैसे आईटी, ईडी, सीबीआई में बैठे लोगों की हल के कुछ वर्षों के आचरण से क्या बाबा साहेब का उपरोक्त कथन सही नहीं साबित हो रहा है? आखिर क्या वजह है जो राज्यपाल किसी गैर-भाजपा शासन में राज्य की चुनी सरकार के साथ शाश्वत द्वन्द में रहता है वहीँ भाजपा-शासित राज्य में जाने के बाद गलबहियां डाल लेता है? क्या वजह है सदन के बाहर राज्य सभा सभापति सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ किसी राजनीतिक दल के नेता से ज्यादा बोलने लगते हैं. किस “आका” को खुश करने के लिए यह सब किया जाता है?
राष्ट्रपति के 14 सवाल
राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) में प्रदत्त शक्तियों के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 बिन्दुओं पर राय माँगी है. चूंकि इस प्रावधान में “ कोर्ट राय दे सकती है” लिखा है लिहाज़ा राय देना बाध्यकारी नहीं है. राष्ट्रपति ऐसे किसी भी प्रश्न पर जो लोक-महत्व का है या हो सकता है, देश की सबसे बड़ी कोर्ट से यह राय मांगता (मांगती) है. आज तक 15 बार इस शक्ति का प्रयोग किया गया हालांकि दो बार कोर्ट ने राय नहीं दी. अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढांचा गिरने के बाद पूछा गया प्रश्न था “क्या राम-मंदिर-बाबरी मस्जिद ढांचे पर मस्जिद के पूर्व कोई हिन्दू मंदिर था?”. कोर्ट ने राय देने से इनकार करते हुए कहा “यह प्रश्न सिविल सूट में पहले से हीं कोर्ट्स में है लिहाज़ा इस पर फैसले की प्रक्रिया के बगैर राय देना सही नहीं होगा.
इस बार भी जिन 14 सवालों को पूछा गया है उनमें से अधिकांश पर कई राज्यों के वाद एससी में लंबित हैं. यह सच है कि मुख्य मुद्दा था तमिलनाडु राज्यपाल द्वारा विधानसभा द्वारा पारित और दुबारा भेजे गए बिल को संस्तुत न करने और फिर राष्ट्रपति के पास भेजने पर एससी की खंड पीठ का फैसला. राष्ट्रपति ने इसे “संविधान का मूलभूत प्रश्न मानते हुए एससी से पूछा है कि क्या खंड पीठ को ऐसे मामले संविधान पीठ भेजने की संस्तुति नहीं करनी चाहिए?”. खंड पीठ ने फैसले में अनुच्छेद 142 का हवाला देते हुए न केवल बिल को “पारित माना” बल्कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए फैसला करने की समयसीमा तय की और राज्यों को इसके उल्लंघन पर एससी आने को कहा.
केंद्र इस आदेश के खिलाफ अपील की जगह राष्ट्रपति के जरिये राय माँगी. यहाँ “संविधान के प्रावधान की व्याख्या का प्रश्न (सब्सटेंशिअल क्वेश्चन ऑफ़ लॉ)” एक अजीब व्यापक पहेली है. नागरिक के सड़क पर चलने के अधिकार से लेकर राज्यपाल का जानबूझ कर बिल पर दस्तखत न करना और केंद्र या राज्य विधायिकाओं का बहुमत के जोर पर बिल पारित करवाना भी संविधान की व्याख्या के दायरे में आता है.
महाराष्ट्र में उर्दू को संविधान की नज़रों में मराठी जैसा दर्जा देने का खंड पीठ का फैसला भी संविधान की व्याख्या माना जा सकता है. ऐसे में खंड पीठ का अस्तित्व कैसे रहेगा?