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    Home » ‘नया भारत’ इतना मोटा और बीमार क्यों हो रहा है?
    भारत

    ‘नया भारत’ इतना मोटा और बीमार क्यों हो रहा है?

    Janta YojanaBy Janta YojanaJune 1, 2025No Comments7 Mins Read
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    सुषमा स्वराज की बेटी बाँसुरी स्वराज को मैंने ‘नए भारत’ के बारे में हिंदी के बड़े-बड़े शब्दों को साइन कर्व के डिज़ाइन में बोलते देखा। वो युद्धोन्माद की भाषा में अपने लिए गर्व बटोरती पायी गईं। पर क्या वो असल में नए भारत के बारे में गंभीरता पूर्वक कुछ समझना जानना चाहती भी हैं? मेरे हिसाब से आज भारत जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उन पर बोलने और बताने वाले नेता मिलते ही नहीं। किसी और के शौर्य और किसी और की शहादत को अपने राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने वाले नेताओं की फौज जरूर तैयार हो चुकी है। ‘नया भारत’, जिसे आगे ले जाने का दारोमदार देश के युवाओं और बच्चों पर है, नेता लोग जरा उनकी स्थिति पर भी विचार कर लें, बाकि लोगों को भी करना चाहिए।  
    नया भारत मोटा और बीमार हो रहा है! अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) द्वारा स्कूल जाने वाले बच्चों के स्वास्थ्य पर किए गए एक अध्ययन के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली के स्कूली बच्चों में मोटापा और हाइपरटेंशन की दर बहुत ऊँची है। अध्ययन के अनुसार, निजी स्कूलों में मोटापा सरकारी स्कूलों की अपेक्षा 5 गुना अधिक है। जहाँ सरकारी स्कूलों में यह मात्र 4.48% है वहीं निजी स्कूलों में इसका फैलाव 24.02% है। इसके अलावा यह भी एक तथ्य है कि 6-19 वर्ष की आयु के 9.2% बच्चों में ट्रंकल मोटापा पाया गया। ट्रंकल मोटापा मतलब मोटापे का वह स्वरूप जिसमें वसा (फैट) पेट और उसके चारों तरफ़ जाकर जमा होता रहता है। अध्ययन में एक और तथ्य सामने आया जिसमें 13.4% बच्चे सामान्य रूप से मोटे पाये जिसमें फैट का जमाव बराबर रूप से पूरे शरीर में होता है।
    जहाँ तक हाइपरटेंशन का सवाल है तो अध्ययन के अनुसार, इस मामले में निजी और सरकारी स्कूलों में इसकी दर समान ही थी (7.4%), लेकिन सोचने  की बात यह है कि निजी स्कूल के छात्रों में सरकारी स्कूल के छात्रों की तुलना में हाई ब्लड शुगर होने की संभावना दोगुनी और मेटाबॉलिक सिंड्रोम की संभावना तीन गुना अधिक थी।
    मेटाबॉलिक सिंड्रोम एक ऐसी स्थिति है जिसमें एक साथ कई बीमारियों के लक्षण दिखाई देते हैं, जैसे – पेट की चर्बी, उच्च रक्तचाप (हाई ब्लडप्रेशर), उच्च रक्त शर्करा (हाई ब्लड शुगर), और खराब कोलेस्ट्रॉल (LDL, VLDL)। जब ये समस्याएँ एक साथ होती हैं, तो दिल की बीमारी, डायबिटीज और हृदयाघात (स्ट्रोक) का ख़तरा बहुत बढ़ जाता है। मेटाबॉलिक सिंड्रोम को “सिंड्रोम एक्स” या “इंसुलिन रेजिस्टेंस सिंड्रोम” भी कहा जाता है। इसके होने से शरीर की कोशिकाएँ इंसुलिन पर ठीक से प्रतिक्रिया नहीं करतीं और शरीर में शुगर लेवल असंतुलित हो जाता है। ये बीमारी ज़्यादातर गलत जीवनशैली के कारण होती है, जैसे- ज्यादा तली-भुनी और मीठी चीज़ें खाना, शारीरिक मेहनत न करना, लगातार वजन का बढ़ना आदि। अगर समय रहते ध्यान न दिया जाए, तो यह शरीर को गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है। इसलिए सही खानपान, नियमित व्यायाम, और वजन पर कंट्रोल रखना बहुत जरूरी है।
    उनके स्वास्थ्य पर न स्कूल ध्यान दे रहा है और न ही परिवार। ऊपर से एक अस्वस्थ शरीर के छात्र के पास उसका अपना स्मार्ट मोबाइल फ़ोन भी मौजूद है जिसमें उम्र से बेपरवाह सूचनाओं का प्रवाह है और ऐसी सूचनाएँ छात्रों के मन मस्तिष्क को नकारात्मक तरीक़े से प्रभावित भी कर रही हैं। छात्रों के हाथों में स्मार्ट मोबाइल रहने का सबसे बड़ा कारण परिवार नहीं बल्कि स्कूल सिस्टम है। जहाँ ‘पीपीटी पीढ़ी’ के शिक्षक और शिक्षिकाएं होमवर्क भी whatsapp जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर शेयर करते हैं, ज्यादातर होमवर्क इंटरनेट पर आधारित कर दिया गया है जिससे बच्चों को मोबाइल फ़ोन देना एक बड़ी मजबूरी बन गई है। अपने उम्र और संबंधित हॉर्मोन्स से प्रभावित ज़्यादतर छात्र इन मोबाइल फ़ोन पर सिर्फ़ होमवर्क ही नहीं करते, वो इसके अलावा जो कुछ भी अन्य काम करते हैं उससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर कोई अच्छा प्रभाव तो नहीं पड़ता है। लेकिन निजी स्कूल, जो मेरे हिसाब से लगभग तानाशाही के छोटे-छोटे केंद्र ही हैं और जिन्हें पैसे ऐंठने और शिक्षा प्रदान करने के बीच संतुलन करना आता ही नहीं, वो यह सब मानने को तैयार नहीं है।
    जबकि अध्ययन और शोध कुछ और ही कहते हैं। AIIMS का अध्ययन कहता है कि छात्रों में हाइपरटेंशन अत्यधिक है वहीं 2023 में Journal of Adolescent Health में प्रकाशित एक अध्ययन, यह साबित कर रहा है कि जो छात्र प्रतिदिन 3 घंटे से अधिक मोबाइल फोन का उपयोग करते हैं, उनमें हाइपरटेंशन का जोखिम उन छात्रों से 1.8 गुना अधिक बढ़ गया है जो 1 घंटे से कम समय तक मोबाइल का उपयोग करते थे। अध्ययन ने यह नोट किया कि स्क्रीन टाइम के दौरान स्ट्रेस हार्मोन (जैसे-कॉर्टिसोल) का स्तर बढ़ता ही है, जो ब्लड प्रेशर को प्रभावित करता है। इसके अलावा, लंबे समय तक स्क्रीन देखने से नींद की गुणवत्ता में कमी आती है, जो हाइपरटेंशन का एक अन्य और बड़ा कारक है।
    2022 में Education and Information Technologies जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च, में यह बात सामने आई कि अधिक स्मार्टफोन उपयोग करने वाले छात्रों की तुलना में कम उपयोग करने वाले छात्रों ने शैक्षणिक प्रदर्शन में बेहतर परिणाम दिखाए। अध्ययन ने यह भी नोट किया कि मोबाइल के अत्यधिक उपयोग से ध्यान भटकने, नींद में कमी, और सामाजिक रूप से सक्रिय रहने में परेशानी महसूस की गई।
    भारत में एक तरफ़ बच्चे मोटापे, डायबटीज और हाइपरटेंशन का शिकार हो रहे हैं तो युवाओं को होने वाले कैंसर के मामले भी खूब बढ़ रहे हैं। बेरोजगारी की समस्या इसे एक अलग ही वीभत्स डाइमेंशन दे रही है। अध्ययन बता रहे हैं कि भारत में युवा वयस्कों (आमतौर पर 50 वर्ष से कम) में कैंसर की घटनाएँ बढ़ रही हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) का अनुमान है कि कैंसर के मामले 2022 में 14.6 लाख से बढ़कर 2025 में 15.7 लाख हो जाएंगे, जो 12.8% की वृद्धि है। किशोर और युवा वयस्क (AYA) समूह (15–39 वर्ष) के लिए, राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम (NCRP) 2025 में 1,78,617 मामले होने का अनुमान है। 2024 के एक अध्ययन के अनुसार, कैंसर होने की दर 2022 में प्रति 1,00,000 पर 529.40 से बढ़कर 2031 तक 549.17 हो जाएगी। 
    क्या कभी अपने भाषणों में किसी जिम्मेदार प्रतिनिधि ने इन बीमारियों का ज़िक्र किया? क्या उन्हें अपने देश के युवाओं और बच्चों की फ़िक्र भी है! क्या इन्हें सिर्फ तथाकथित नए भारत के नाम पर नए तरीके से हर नए शहीद के बदले नया वोट चाहिए?
    मैंने देखा है जब बात अपने देश के लोगों को सुविधाएं देने की आती है तो सरकार के मंत्रियों के भाषणों का मौन, कान फोड़ डालता है। देश की 140 करोड़ आबादी के लिए केवल 700 कैंसर उपचार केंद्र हैं, और ये भी ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में ही हैं। राष्ट्रीय कैंसर ग्रिड के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 60% से अधिक कैंसर रोगियों को उचित सुविधाएँ मिलती ही नहीं है। भारत से शिक्षक ‘एक्सपोर्ट’ करने का शोर मचाने वाले प्रधानमंत्री इस बात पर गहरे मौन में रहते हैं कि आख़िर भारत में प्रति 2,000 कैंसर रोगियों पर सिर्फ़ 1 ऑन्कोलॉजिस्ट ही क्यों है? जबकि WHO के मानकों के अनुसार प्रत्येक 500 कैंसर रोगियों पर एक ऑन्कोलॉजिस्ट होना ही चाहिए। इसके अलावा राष्ट्रीय कैंसर, मधुमेह, हृदय रोग और स्ट्रोक की रोकथाम और नियंत्रण कार्यक्रम (NPCDCS) के तहत प्रमुख कैंसर के लिए स्क्रीनिंग कवरेज 5% से भी कम है। स्तन कैंसर में तो स्थिति और भी ख़राब है। केवल 2% महिलाओं के स्तन कैंसर के लिए वार्षिक स्क्रीनिंग होती है, जबकि विकसित देशों में यह 70% है।
    हालात बहुत बुरे हैं लेकिन उन्हें सत्ता में बने रहना है इसलिए इन बातों पर चर्चा नहीं करना है और न ही करने देना है। अगर ये नया भारत है तो फिर इस वाले भारत की सत्ता पर बैठे प्रतिनिधियों के बारे में लोगों को फिर से सोचना चाहिए। देश के जो प्रतिनिधि भारत को विकसित राष्ट्र का सपना दिखा रहे हैं, क्या वे मोटे मोटे अस्वस्थ स्कूली बच्चों, कैंसर और बेरोजगारी से जूझते युवाओं के भरोसे विकसित राष्ट्र का सपना दिखा रहे हैं, या यह भी एक नया धोखा है? लोगों को इस तरह के सपने बोने वाले नेताओं से सावधान रहने की जरूरत है। हर बार, जब जब किसी भाषण की सप्लाई की जाती है तो उसके पीछे भारत की एक बड़ी समस्या को छिपाने की साजिश की जाती है। भाषण की सप्लाई करने वाला नेता आगे बढ़ जाता है और देश पीछे चला जाता है। अगर यही नया भारत है तो पुराना भारत ही ठीक था।
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