भारत में दूसरों के प्रति उत्सुकता और सद्भाव अपराध बन गया है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर स्थित गुरु घासीदास विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) से संबद्ध 4 अध्यापकों के ख़िलाफ़ मुक़दमे और उनमें से एक की गिरफ़्तारी से ज़ाहिर है कि भारत में एक संगठन है जो इस बात पर आमादा है कि किसी भी तरह हिंदुओं को मुसलमानों के क़रीब न आने दिया जाए और उनके बारे में कुछ भी जानने न दिया जाए।
जब ख़बर पढ़ी कि घासीदास विश्वविद्यालय के एनएसएस के एक शिविर में कुछ अध्यापकों ने प्रतिभागियों से जबरन नमाज़ पढ़वाई तभी समझ में आ गया कि यह सिरे से झूठ है। बेहतर होता कि अख़बार लिखते कि नमाज़ पढ़वाने के इल्ज़ाम में 5 हिंदू अध्यापकों पर एफ़आईआर की गई है। हिंदू अध्यापकों पर आरोप है कि उन्होंने एक समुदाय की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाई, राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का काम किया। यहाँ तक कि उनपर ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से लोगों को इकट्ठा होने का भी आरोप है।
एनएसएस का शिविर था। योग के लिए प्रतिभागी एकत्र थे। मौक़ा ईद का भी था। प्रतिभागियों में कुल 3 मुसलमान थे। किसी ने पूछा नमाज़ कैसे पढ़ते हैं। मुसलमान प्रतिभागियों ने कहा कि नमाज़ के आसन प्रायः योग के आसनों की तरह के ही होते हैं। सत्र का संचालन करनेवाले ने कहा होगा कि क्या आप दिखला सकते हैं कि नमाज़ कैसे पढ़ते हैं। हो सकता है कि कुछ प्रतिभागियों ने नमाज़ के आसनों का अनुकरण किया हो। आप समझ सकते हैं कि 150 हिंदू छात्रों को कोई नमाज़ पढ़ने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। कोई मुसलमान अध्यापक अपने हिंदू छात्रों को यह करने को कहे, यह भी अकल्पनीय है। अगर वे मुसलमान हैं तो आरोप का एक आधार भी बनता है। लेकिन हिंदू अध्यापक हिंदू विद्यार्थियों को नमाज़ पढ़ने को कहेंगे, वे भी सब के सब मिलकर, इससे बेतुकी बात शायद ही हो।
शिविर ख़त्म हो जाने के एक पखवाड़े बाद इनमें से 3 छात्रों ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई कि उनके अध्यापकों ने उनसे ज़बरदस्ती नमाज़ पढ़वाई। पुलिस ने तत्परता के साथ इस शिकायत को एफ़आईआर में तब्दील कर लिया। बतलाया जाता है कि इस शिकायत के पीछे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का हाथ था। जो हो, पुलिस ने न सिर्फ़ अध्यापकों पर धार्मिक विद्वेष फैलाने, एक धार्मिक समूह की भावनाओं को चोट पहुँचाने जैसे आरोप लगाते हुए रिपोर्ट दर्ज की बल्कि एनएसएस के प्रभारी अध्यापक को गिरफ़्तार भी कर लिया। मज़े की बात यह है कि वे ‘घटना स्थल’ पर ख़ुद थे भी नहीं। यह तो भला हो अदालत का कि उसने उन्हें जमानत दे दी। लेकिन विश्वविद्यालय ने आनन-फ़ानन में उनसे न सिर्फ़ एनएसएस की ज़िम्मेदारियाँ ले लीं बल्कि उन्हें निलंबित भी कर दिया। विश्वविद्यालय ने यह क्यों किया?
ये अध्यापक अब अपनी सुरक्षा ख़ुद ही करने को मजबूर हैं। जिन छात्रों के लिए उन्होंने इतना वक़्त निकाला और जिनके लिए इतनी मेहनत की, उन्होंने इतनी भी ज़हमत मोल न ली कि सामने आकर सच बतलाएँ। शायद वे डर गए होंगे। कौन एबीवीपी के सामने खड़ा हो!
पुलिस ने बिना सोचे विचारे क्यों रिपोर्ट दर्ज की? विश्वविद्यालय ने अपने अध्यापकों को तुरत क्यों शास्ति दी? शेष अध्यापक समुदाय और विद्यार्थी समाज ख़ामोश क्यों रह गया? क्यों ये अध्यापक अकेले छोड़ दिए गए?
इस घटना से कई बातें पता चलती हैं। एक तो यह कि बौद्धिक कहे जानेवाले हमारे समाज में कितनी भीरुता है। दूसरे, हमारे नौजवान असत्य के सामने इतनी आसानी से घुटने टेक देते हैं। या हिंदुत्ववादियों का भय इतना अधिक है कि कोई मुँह नहीं खोलना चाहता। लेकिन शहर के एक संगठन ने तो आवाज़ उठाई। इसका मतलब यह इतना भी मुश्किल नहीं है।
इन सबके अलावा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब हमारे समाज और राज्यतंत्र पर एक ऐसी संगठित ताक़त इतनी हावी है कि वह पुलिस की मदद से अपराध का आविष्कार करवा सकती है। वह हिंदुत्ववादी ताक़त है। यही हमने अली ख़ान महमूदाबाद के मामले में देखा। जो अपराध उन्होंने किया नहीं, उसका आविष्कार किया गया और उसके आरोप में उन्हें गिरफ़्तार किया गया।
अपराध और अभियुक्त पैदा करने का एक अभियान सा इस देश में पिछले 11 सालों से चल रहा है। जैसा हमने कहा, हिंदुत्ववादी संगठन और पुलिस साथ मिलकर यह काम करते हैं। प्रायः इसका शिकार मुसलमान हुआ करते हैं। जैसे, इंदौर के एक ‘लॉ-कॉलेज’ के पुस्तकालय में एक किताब की मौजूदगी पर हिंदुत्ववादियों को एतराज हुआ और उसके लिए उस कॉलेज के प्राचार्य और दो अध्यापकों पर मुक़दमा दायर कर दिया गया। उनमें से एक की गिरफ़्तारी भी हुई और उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। ऐसे कई मामले हैं जिनमें मुसलमान अध्यापकों पर, वे स्कूल के हों या कॉलेज के, झूठे आरोप लगाए जाते हैं, उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया जाता है और फिर पुलिस उनके ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज करती है। कई मामलों में उनकी नौकरी चली जाती है।
इसके साथ दूसरी बात है ऐसी किसी भी गतिविधि का विरोध करना जिसमें हिंदुओं को मुसलमानों के क़रीब आने का मौक़ा मिले। या वे उनकी जीवन शैली, उनके धर्म, रीति रिवाज के बारे में कुछ जान सकें। बड़ौदा के एक स्कूल ने अपने विद्यार्थियों को मस्जिद दिखलाने का कार्यक्रम बनाया। तुरत हिंदुत्ववादी सक्रिय हो गए और उन्होंने स्कूल पर हिंदू बच्चों के इस्लामीकरण का आरोप लगाया। स्कूल ने अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया, हालाँकि कई बच्चे और अभिभावक यह चाहते थे। उनके साथ कुछ अध्यापक भी शामिल हो गए। मुझे पुणे की एक मित्र ने बतलाया कि ईद के मौक़े पर शीर खुरमा खिलाने के कार्यक्रम पर एतराज किया गया। झारखंड के एक स्कूल में सर्वधर्म प्रार्थना में इस्लामी इबादत पर हिंदुत्ववादी संगठन ने प्रदर्शन किया। एक स्कूल के प्रबंधक ने बतलाया कि भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने उनके स्कूल में गाई जानेवाली एक प्रार्थना पर नाराज़गी जतलाई। अभी हाल में आपने ख़बर पढ़ी होगी कि एक व्यायामशाला में मुसलमानों के आने पर हिंदुत्ववादियों ने विरोध प्रदर्शन किया और पुलिस ने भी व्यायामशाला के संचालक को चेतावनी दी कि वह किसी मुसलमान को न आने दे।
इन सारे प्रसंगों में, बिलासपुर समेत, हिंदू विद्यार्थियों को एतराज नहीं रहा है। आप अगर ध्यान दें तो स्कूल हों या कॉलेज, छात्र आम तौर पर विरोध नहीं कर रहे होते। कोई हिंदुत्ववादी संगठन सक्रिय होता है और फिर विरोध शुरू हो जाता है। एक अपराध का निर्माण कर लिया जाता है और अभियुक्त खोज लिए जाते हैं। फिर बाक़ी लोग भी उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं।
इसका असर उन अध्यापकों या प्रबंधकों पर तो पड़ता ही है जिनपर मुक़दमा होता है और दंडात्मक कार्रवाई होती है। उनसे आगे इसका असर फिर पूरे वातावरण पर पड़ता है। अभी कोई अध्यापक ऐसी कोई पहल नहीं करना चाहता जिसमें हिंदू मुसलमान साथ आएँ। मुसलमानों पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव कहीं गहरा है। उन्हें यह बतलाया जाता है कि उनसे किसी भी प्रकार का संसर्ग, वह उनकी प्रार्थना से हो या उनके रीति रिवाज या त्योहारों से, हिंदुओं के लिए अस्वीकार्य है। एक तरह से वे अछूत हैं। जो अध्यापक या छात्र उनके प्रति सहानुभूतिशील है, उसे नुक़सान उठाना पड़ सकता है। इस तरह मुसलमान अलग-थलग पड़ जाते हैं।
हिंदुत्ववादियों को यह क़बूल नहीं कि हिंदू अपने संकीर्ण दायरे से बाहर निकलें। वे उनके इर्द-गिर्द दीवारें खड़ी करके उनके भीतर उन्हें क़ैद कर देना चाहते हैं। उन दीवारों के भीतर मुसलमानों के बारे में तरह-तरह की भयानक कहानियाँ सुनाई जाती हैं। उन कहानियों को सुन-सुनकर वे मुसलमानों के क़रीब जाने से कतराने लगते हैं और उन्हें अपना दुश्मन मान बैठते हैं। हिंदुओं में यह मुसलमान विरोधी शत्रुता बनाए रखने के लिए हर वैसी गतिविधि को रोकना ज़रूरी है जिससे मुसलमान इंसान नज़र आने लगें।
मैं ऐसे अनेक हिंदू युवकों को जानता हूँ जो विश्वविद्यालय में आने के बाद जान पाए कि मुसलमान मनुष्य होते हैं। वे उनकी क्लास में साथ थे। वे उनके अध्यापक थे। परिसर में काम करनेवाले और प्रशासन के लोग थे। वे उन्हीं की तरह अच्छे और बुरे होते हैं। इनके संपर्क में आने के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि मुसलमानों के बारे में उनके ख़याल ग़लत थे। अगर ऐसे समझदार और संवेदनशील हिंदुओं की संख्या बढ़ने लगेगी तो फिर हिंदुत्ववादी राजनीति कैसे फलेगी-फूलेगी?