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    Home » कठघरे में मी लॉर्ड!
    भारत

    कठघरे में मी लॉर्ड!

    Janta YojanaBy Janta YojanaJune 7, 2025No Comments6 Mins Read
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    भारत की न्यायपालिका, जो लोकतंत्र का एक मज़बूत स्तंभ मानी जाती है, आज अपनी साख पर मंडराते संकटों से जूझ रही है। भ्रष्टाचार के आरोप, रिटायरमेंट के बाद जजों को मिलने वाली सरकारी नियुक्तियाँ, और कॉलेजियम सिस्टम की पारदर्शिता पर उठते सवालों ने जनता के भरोसे को डगमगाया है। हाल के कुछ घटनाक्रमों ने इन चिंताओं को और गहरा किया है।

    जस्टिस यशवंत वर्मा प्रकरण

    14 मार्च 2025 की होली की रात, दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर लगी आग ने एक सनसनीखेज खुलासा किया। आग बुझाने गई फ़ायर ब्रिगेड को वहाँ भारी मात्रा में जले हुए नोट मिले। इस घटना ने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े किए। जस्टिस वर्मा ने दावा किया कि यह नकदी उनकी या उनके परिवार की नहीं थी और उनके ख़िलाफ़ साज़िश रची जा रही है। लेकिन इस घटना ने जनता के बीच संदेह को जन्म दिया।
    सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस संजीव खन्ना ने तत्काल कार्रवाई करते हुए जस्टिस वर्मा के न्यायिक कार्य छीन लिए और तीन जजों की एक समिति गठित की। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने उनकी दिल्ली से इलाहाबाद हाई कोर्ट में तबादले की सिफारिश की, जिसे केंद्र सरकार ने मंजूरी दे दी। समिति ने अपनी जाँच रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी, और चर्चा है कि जस्टिस वर्मा दोषी पाए गए हैं, हालाँकि यह अभी कयास ही हैं। विपक्ष इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग कर रहा है, और ऐसी संभावना है कि केंद्र सरकार संसद के मानसून सत्र में उनके ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव ला सकती है।
    बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने इस मामले में एफ़आईआर दर्ज करने की मांग की, लेकिन अब तक कोई एफ़आईआर दर्ज नहीं हुई। यह मामला न्यायपालिका पर एक गहरा दाग बन गया है। अगर जले हुए नोट रिश्वत का हिस्सा हैं, तो यह साबित करता है कि भारत के न्यायालयों में इंसाफ़ का सौदा हो सकता है। यह स्थिति न केवल चिंताजनक है, बल्कि जनविद्रोह की वजह भी बन सकती है। स्वयं भारत के चीफ़ जस्टिस ने इस ख़तरे को रेखांकित किया है।

    चीफ़ जस्टिस गवई की चेतावनी

    14 मई 2025 को भारत के 52वें चीफ़ जस्टिस बने जस्टिस बी.आर. गवई ने हाल ही में यूनाइटेड किंगडम में एक गोलमेज सम्मेलन में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि जजों को बाहरी दबावों से मुक्त रहना चाहिए, क्योंकि अगर जनता का भरोसा टूटा, तो लोग भीड़ के न्याय की ओर रुख कर सकते हैं। 
    उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम की खामियों को भी स्वीकार किया, लेकिन यह भी जोर दिया कि इसका कोई विकल्प न्यायपालिका की स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं होना चाहिए। जस्टिस गवई ने रिटायरमेंट के बाद जजों द्वारा सरकारी पद स्वीकार करने पर गंभीर चिंता जताई। उन्होंने कहा, “जब जज रिटायरमेंट के बाद सरकारी पद स्वीकार करते हैं, तो जनता को लगता है कि उनके फ़ैसले भविष्य के इनाम को ध्यान में रखकर लिए गए थे।’ उन्होंने स्वयं फ़ैसला किया कि वह रिटायरमेंट के बाद कोई सरकारी पद नहीं लेंगे।

    न्यायाधीशों पर सवाल

    रिटायरमेंट के बाद जजों को सरकारी पद मिलने की परंपरा ने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं। आलोचकों का कहना है कि कुछ जज सरकार के पक्ष में फ़ैसले देते हैं ताकि रिटायरमेंट के बाद उन्हें बड़े पद मिलें। साथ ही कई जज विवादों के घेरे में रहे हैं, जैसे-
    जस्टिस रंजन गोगोई (2019 में रिटायर): 2020 में राज्यसभा सदस्य नामित हुए। उनके कार्यकाल में राममंदिर और अनुच्छेद 370 जैसे बड़े फैसले आए, जिससे सरकार का पक्ष मज़बूत हुआ। 2019 में उन पर एक सुप्रीम कोर्ट कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोप ने भी विवाद खड़ा किया था हालांकि उन्हें क्लीन चिट मिली। आरोप ख़ारिज करने वाली खंडपीठ का वे ख़ुद भी हिस्सा थे।
    जस्टिस अरुण मिश्रा (2020 में रिटायर): राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बने। उन पर एक विशेष औद्योगिक समूह के मामलों को अपनी बेंच में सुनने का आरोप लगा था।
    जस्टिस आदर्श कुमार गोयल (2018 में रिटायर): राष्ट्रीय हरित अधिकरण के अध्यक्ष बने। उनके एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने वाले फैसले का व्यापक विरोध हुआ।
    जस्टिस पी. सदाशिवम (2014 में रिटायर): केरल के राज्यपाल बने, जो किसी पूर्व CJI के लिए पहली ऐसी नियुक्ति थी।
    जस्टिस बेला त्रिवेदी: सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल ने उनके लिए विदाई समारोह तक आयोजित नहीं किया, जो असामान्य था।
    हालांकि, कुछ जजों ने इस परंपरा को तोड़ा। जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने स्पष्ट रूप से रिटायरमेंट के बाद कोई सरकारी पद स्वीकार करने से इनकार किया। जस्टिस जोसेफ को उनके कुछ फैसलों के कारण सरकार की नाराजगी का सामना करना पड़ा, और उनकी सुप्रीम कोर्ट नियुक्ति में भी देरी हुई।

    कॉलेजियम सिस्टम

    भारत में जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए कॉलेजियम सिस्टम लागू है, जिसमें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज शामिल होते हैं। यह सिस्टम सरकार को सिर्फ सिफारिश भेजता है, और राष्ट्रपति इसकी सलाह से बंधे होते हैं। कॉलेजियम की शुरुआत तीन महत्वपूर्ण जज केसों से हुई:
    • पहला जज केस (1981): सरकार की राय को प्राथमिकता दी गई, और CJI की सलाह बाध्यकारी नहीं थी।
    • दूसरा जज केस (1993): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि CJI की सलाह सर्वोपरि होगी, जिससे कॉलेजियम सिस्टम की नींव पड़ी।
    • तीसरा जज केस (1998): कॉलेजियम की संरचना और प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया, जिसमें CJI और चार वरिष्ठतम जज शामिल हुए।

    NJAC का असफल प्रयास

    2014 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) लागू किया, जिसमें सरकार और जजों की संयुक्त भूमिका थी। इसमें CJI, दो वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल थे। लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता था। इस फैसले ने सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच तनाव को और बढ़ा दिया।

    चार जजों की अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस

    12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों—जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ—ने तत्कालीन CJI दीपक मिश्रा के कार्यकलापों पर सवाल उठाते हुए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की। उन्होंने आरोप लगाया कि CJI कुछ मामलों को “पसंदीदा बेंच” को सौंप रहे थे, जिससे न्याय प्रणाली पर सवाल उठ रहे थे। उन्होंने चेतावनी दी कि लोकतंत्र खतरे में है। यह अभूतपूर्व कदम था, लेकिन बाद में जस्टिस गोगोई ख़ुद चीफ़ जस्टिस बने और प्रेस कान्फ्रेंस में उठाई गयी बातों को भुला दिया गया। उन्होंने राज्यसभा में भी ऐसा कोई सवाल नहीं उठाया।
    सुप्रीम कोर्ट ने NJAC को रद्द करने और चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित करने जैसे फैसलों से अपनी स्वतंत्र सत्ता का अहसास कराया है। लेकिन जस्टिस यशवंत वर्मा जैसे मामले, रिटायरमेंट के बाद नियुक्तियों का लालच, और कॉलेजियम सिस्टम की खामियाँ जनता के भरोसे को कमजोर कर रहे हैं। चीफ जस्टिस गवई की चिंताएँ और उनके द्वारा उठाए गए सवाल इस बात की ओर इशारा करते हैं कि न्यायपालिका को पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने की जरूरत है।
    न्यायपालिका लोकतंत्र का आधार है, लेकिन इसके सामने खड़े संकटों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। क्या भारत की न्यायपालिका इस संकट से उबर पाएगी? यह सवाल हर नागरिक के लिए विचारणीय है। समय है कि सुप्रीम कोर्ट ख़ुद कॉलेजियम सिस्टम में सुधार करे, रिटायरमेंट के बाद नियुक्तियों पर “कूलिंग ऑफ पीरियड” लागू करे और भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाये ताकि जनता का भरोसा बहाल हो और इंसाफ के मंदिर की मर्यादा बरक़रार रहे।
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