कुछ दिन पहले बस्तर के एक माओवादी कमांडर ने स्थानीय न्यूज़ चैनल बस्तर टॉकीज़ को एक लंबा इंटरव्यू दिया। उन्होंने वहां के हालात के बारे में बहुत खुलकर बात की। उनका मुख्य संदेश यही था कि माओवादी पार्टी सरकार के साथ शांति वार्ता के लिए तैयार है।बस्तर एक खूबसूरत जगह है जहाँ पुराने दिनों में आदिवासी गरीब लेकिन आज़ाद हुआ करते थे। मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन ने इसे “बेहद शांतिपूर्ण” बताया था। हाल ही में, एक अन्य मानवविज्ञानी मधु रामनाथ ने बस्तर के युद्ध क्षेत्र बनने से पहले के सामाजिक जीवन के बारे में एक सुन्दर किताब लिखी। बस्तर के आदिवासी स्वतंत्रता और समानता को संवैधानिक मूल्य बनने से बहुत पहले से महत्व देते थे।करीब चालीस साल पहले “पीपुल्स वार ग्रुप” के नक्सली तेलंगाना से बस्तर आए और वहां अपना ठिकाना बनाना शुरू किया। बस्तर के घने जंगल उनकी भूमिगत गतिविधियों के लिए अनुकूल इलाका था। बस्तर तेलंगाना की पुलिस की कार्रवाई से बचने का एक सुरक्षित स्थान भी था। धीरे-धीरे माओवादियों ने बस्तर में अपनी मौजूदगी बढ़ाई।बस्तर के आदिवासियों के लिए मार्क्स और माओ का कोई खास मतलब नहीं है। लेकिन उन्हें पता है कि वन विभाग और पुलिस द्वारा उन पर अत्याचार किए जाते हैं। स्थानीय व्यापारी और साहूकार भी उनका शोषण करते हैं, जिनमें से ज़्यादातर दूसरे राज्यों से आए लोग हैं। कई आदिवासी इस डर में भी रहते हैं कि उनकी जमीन खनन या अन्य परियोजनाओं के लिए छीन ली जाएगी। इसलिए, जब माओवादियों ने शोषकों पर लगाम लगाना और वंचितों की रक्षा करना शुरू किया तो उन्हें स्थानीय आदिवासियों से काफी समर्थन मिला। कई आदिवासी उनके दस्तों, समितियों या संगठनों में शामिल हो गए।उन दिनों बस्तर में कभी-कभार ही हिंसा होती थी। लेकिन 2005 में सरकार ने सलवा जुडूम नामक एक बहुत ही हिंसक माओवादी विरोधी अभियान शुरू किया। इस अभियान का नेतृत्व स्थानीय आदिवासियों के बीच भर्ती किए गए विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के साथ-साथ केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) जैसे अर्धसैनिक बलों ने किया था। माओवादियों की तलाश में सलवा जुडूम की भीड़ ने कई गाँवों में मारपीट, लूटपाट और हत्या जैसे कई अत्याचार किए। यह उत्पात करीब चार साल तक चला।हालांकि, सलवा जुडूम ने बस्तर में माओवादी आंदोलन को कुचला नहीं। इसके विपरीत, आंदोलन और मजबूत हो गया, क्योंकि कई आदिवासी राज्य को अपना दुश्मन मानने लगे। 2011 में, सुप्रीम कोर्ट ने एसपीओ पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन उसके बाद भी अलग-अलग नामों से माओवादी विरोधी अभियान जारी रहे। एसपीओ भी अलग-अलग नामों से जारी रहे, जैसे कि डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड। इन अभियानों के भयानक प्रभावों को बेला भाटिया की हाल ही में आई किताब इंडियाज फॉरगॉटन कंट्री में अच्छी तरह से दर्ज किया गया है।माओवादी भी निंदनीय हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं। किसी भी व्यक्ति पर पुलिस मुखबिर होने का संदेह होने पर, चाहे सही हो या गलत, उसे क्रूर तरीके से मारे जाने का जोखिम रहता है। माओवादियों के आईईडी ने कई निर्दोष ग्रामीणों की जान ले ली है। पिछले साल छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव से पहले माओवादियों ने कई स्थानीय नेताओं की हत्या भी कर दी थी।पिछले कुछ सालों में सुरक्षा बलों ने बस्तर में अनगिनत अर्धसैनिक शिविर बनाए हैं। कई जगहों पर स्थानीय लोगों ने शांतिपूर्ण तरीके से इन शिविरों का विरोध किया है। लेकिन शिविरों का विस्तार जारी रहा। माओवादी दस्तों को धीरे-धीरे छोटे इलाकों में धकेल दिया गया, मुख्य रूप से छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा के पास।अब सरकार इन इलाकों में भारी मात्रा में अर्धसैनिक बलों के साथ घुसकर उन सभी माओवादियों को मारना चाहती है जो आत्मसमर्पण करने से इनकार करते हैं। यदि ऐसा हुआ तो कई लोग अन्यायपूर्ण एवं अवैध तरीके से मारे जायेंगे। याद रखें, बस्तर में तथाकथित माओवादी मुख्य रूप से स्थानीय आदिवासी हैं जो बहुत ही मामूली हथियारों से अपनी जमीन और आजादी के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें सीधे मार डालना मानवाधिकारों का उल्लंघन है, और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन है। सरकार को इन अभियानों को रोककर शांति वार्ता के लिए सहमति देनी चाहिए।
माओवादी पार्टी शांति वार्ता के लिए तैयार है, सरकार का इनकार क्यों?
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