
Tree Woman Thimmakka
Tree Woman Thimmakka: भारत की मशहूर पर्यावरण संरक्षक और ‘ट्री वुमन’ के नाम से जानी जाने वाली सालूमरदा थिमक्का अब हमारे बीच नहीं रहीं। 114 वर्ष की उम्र में उनका बेंगलुरु के एक अस्पताल में निधन हो गया। जीवनभर पेड़ों को अपने बच्चों की तरह संवारने वाली थिमक्का ने हजारों पेड़ लगाकर कर्नाटक की धरती को हरा-भरा बनाया। साधारण ग्रामीण पृष्ठभूमि से उठकर उन्होंने अपने समर्पण, मेहनत और प्रकृति प्रेम से दुनिया को दिखाया कि एक व्यक्ति भी पर्यावरण में बड़ा बदलाव ला सकता है। पद्मश्री सम्मानित सालूमरदा थिमक्का पिछले कुछ समय से श्वसन संबंधी समस्याओं से जूझ रही थीं और बेंगलुरु के जयनगर स्थित अपोलो स्पेशलिटी अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें हृदय और फेफड़ों से जुड़ी गंभीर दिक्कतें थीं और उनकी नियमित जांच होती रहती थी। उनका इतना लंबा जीवन और प्रकृति के लिए समर्पण आने वाले समय में भी लोगों को प्रेरित करता रहेगा। आइए जानते हैं ‘ट्री वुमन’ सालूमरदा थिमक्का की जीवन यात्रा के बारे में विस्तार से –
थिमक्का का जन्म और शुरुआती जीवन
थिमक्का का जन्म 30 जून 1911 को कर्नाटक के तुमकुरु जिले के गुब्बी तालुका में हुआ था। ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाली थिमक्का ने औपचारिक शिक्षा भले ही न पाई हो, लेकिन जीवन की वास्तविक सीख उन्होंने प्रकृति से ली। उनका बचपन सादगी और कठिनाइयों से भरा था। शादी के बाद उन्होंने अपने पति के साथ सामान्य मजदूरी का काम किया। दांपत्य जीवन में संतान न होने का दुख उनके लिए बड़ा था, लेकिन जीवन में आई इस खाली जगह को भरने के लिए उन्होंने प्रकृति का रास्ता चुना।
‘सालूमरदा’ नाम कैसे मिला
थिमक्का को सालूमरदा नाम उनकी असाधारण उपलब्धि के कारण मिला। कन्नड़ भाषा में सालूमरदा का अर्थ है पेड़ों की पंक्ति। यह नाम उन्हें तब मिला जब उन्होंने अपने पति के साथ हुलिकल और कुदुर के बीच लगभग 4.5 किलोमीटर लंबे क्षेत्र में 385 बरगद के पेड़ लगाए। यह काम आसान नहीं था, क्योंकि उस समय पानी की उपलब्धता भी कम थी। पति-पत्नी हर दिन कई किलोमीटर दूर से पानी लाकर इन पौधों को सींचते थे। धीरे-धीरे ये पौधे बड़े होते गए और सड़क के किनारे एक पूरी हरियाली की लंबी पंक्ति खड़ी हो गई, जिसने थिमक्का को देशभर में पहचान दिला दी।
पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनका समर्पण
थिमक्का ने सिर्फ पेड़ लगाए नहीं, बल्कि उन्हें बच्चों की तरह पाला। संतानहीनता के दर्द को उन्होंने पर्यावरण सेवा में बदल दिया। उन्होंने बरगद के अलावा कई अन्य पेड़ भी लगाए और जीवनभर उनकी रक्षा की। उनके प्रयासों से कर्नाटक के राजमार्गों के किनारे 8,000 से अधिक पेड़ विकसित हो पाए। बरगद के उनके 384 पेड़ आज करीब 15 लाख रुपये मूल्य के माने जाते हैं और कर्नाटक सरकार उनका रखरखाव करती है। उन्होंने अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों और सीमित साधनों के बावजूद अपने दृढ़ निश्चय और प्रकृति के प्रति प्रेम से यह साबित किया कि एक छोटी सी शुरुआत किसी भी बड़े बदलाव की वजह बन सकती है।
सम्मान और मान्यता
थिमक्का के कार्यों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। उन्हें 2019 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें विभिन्न संस्थाओं और विश्वविद्यालयों की ओर से कई अन्य सम्मान भी मिले। साधारण ग्रामीण महिला से राष्ट्रीय प्रेरणा बनने तक का उनका सफर उनके समर्पण की मिसाल है। कई सामाजिक और पर्यावरणीय संगठन उन्हें ‘मदर ऑफ ट्रीज’ के रूप में सम्मानित करते रहे। उनके नाम पर स्कूल, पार्क और पर्यावरण कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जो उनकी कठिन मेहनत और उससे अर्जित विरासत को अमिट बनाते हैं।
अंतिम दिनों की स्वास्थ्य चुनौतियां
2023 से थिमक्का को श्वसन संबंधी समस्याएं बढ़ती गईं। बढ़ती उम्र और फेफड़ों की कमजोरी के कारण उन्हें अक्सर अस्पताल में भर्ती होना पड़ता था। अंतिम दिनों में उनकी हालत लगातार बिगड़ती चली गई और 114 वर्ष की आयु में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन के बाद कर्नाटक सरकार और कई पर्यावरण संगठनों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। मुख्यमंत्री ने उन्हें प्रकृति की सच्ची साधक बताते हुए कहा कि थिमक्का जैसी विभूतियां सदियों में एक बार जन्म लेती हैं।
थिमक्का की कहानी इस बात का प्रतीक है कि बदलाव की शुरुआत किसी बड़े पद या संसाधन से नहीं, बल्कि मन के छोटे-से संकल्प से भी की जा सकती है। उन्होंने जीवनभर पेड़ों को अपना परिवार माना और उनकी देखभाल में कोई कमी नहीं आने दी। आज उनके लगाए हजारों पेड़ सिर्फ पर्यावरण को समृद्ध नहीं कर रहे, बल्कि यह भी बताते हैं कि प्रेम, धैर्य और निरंतर परिश्रम से क्या हासिल किया जा सकता है।
भारत की यह ‘ट्री वुमन’ भले ही अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी हरियाली की दी हुई धरोहर आने वाली पीढ़ियों को छाया, हवा और प्रेरणा के साथ उनकी याद ताज़ा कराती रहेगी।


