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    Home » Barabar Ki Gufa Ka Itihas: बाराबर गुफाएँ, आजीविक संप्रदाय की एक मात्र निशानी, जिनकी वास्तुकला आज भी देखते बनती है
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    Barabar Ki Gufa Ka Itihas: बाराबर गुफाएँ, आजीविक संप्रदाय की एक मात्र निशानी, जिनकी वास्तुकला आज भी देखते बनती है

    Janta YojanaBy Janta YojanaApril 10, 2025No Comments9 Mins Read
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    Barabar Ki Gufa Ka Itihas (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    Barabar Ki Gufa Ka Itihas (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    Barabar Caves History in Hindi: बाराबर गुफाएँ, बिहार (Bihar) के जहानाबाद जिले (Jehanabad) में स्थित, भारत की सबसे प्राचीन शिलाचित्रित गुफाएँ हैं, जिनका निर्माण मौर्य साम्राज्य (322-185 ईसा पूर्व) के दौरान हुआ था। ये गुफाएँ अपनी उत्कृष्ट वास्तुकला, ऐतिहासिक महत्व, और धार्मिक संदर्भों के लिए प्रसिद्ध हैं। बाराबर गुफाएँ भारतीय इतिहास, धर्म, और वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये न केवल मौर्यकालीन कला और संस्कृति का प्रतीक हैं, बल्कि भारत की प्राचीन धार्मिक परंपराओं और संप्रदायों के अध्ययन के लिए भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

    बाराबर गुफाओं का परिचय, बाराबर पहाड़ी में चार प्रमुख गुफाएँ हैं:-

    सुदामा गुफा: यह गुफा सम्राट अशोक द्वारा 261 ईसा पूर्व में आजीविक संप्रदाय के साधुओं को समर्पित की गई थी। इसमें एक आयताकार मंडप और एक गोलाकार कक्ष है, जिसकी दीवारें अत्यंत चिकनी और पॉलिश्ड हैं।

    लोमस ऋषि गुफा: इस गुफा की विशेषता इसकी प्रवेश द्वार पर उकेरी गई हाथियों की पंक्ति है, जो लकड़ी की वास्तुकला की नकल करती है। यह गुफा अधूरी रह गई थी, लेकिन इसकी सजावट अद्वितीय है।

    कर्ण चौपर गुफा: यह एक साधारण आयताकार कक्ष है, जिसकी दीवारें पॉलिश्ड हैं। इसमें 245 ईसा पूर्व की एक अभिलेख भी मिली है।

    विश्वकर्मा गुफा: इसे “विश्वमित्र गुफा” भी कहा जाता है। इसमें दो आयताकार कक्ष हैं और यह भी आजीविक संप्रदाय को समर्पित है।

    इनके अलावा, पास की नागार्जुनी पहाड़ी में तीन अन्य गुफाएँ हैं, जो समान वास्तुकला और समयकाल की हैं।

    ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व (Barabar Caves Historical and Religious Significance)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    इन गुफाओं का उपयोग मुख्यतः आजीविक संप्रदाय के साधकों द्वारा ध्यान और साधना के लिए किया जाता था। सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ ने इन गुफाओं को आजीविकों को समर्पित किया था, जो उस समय जैन और बौद्ध धर्म के साथ प्रतिस्पर्धा करने वाला एक प्रमुख संप्रदाय था।

    बिहार के जहानाबाद जिले में स्थित बराबर गुफाएं भारत की सबसे पुरानी शिलाखंड (चट्टान काटकर बनाई गई) गुफाएं हैं। ये गुफाएं बोधगया से लगभग 40 मील की दूरी पर हैं और इनका निर्माण मौर्य सम्राट अशोक (Ashoka) द्वारा आजीविक संप्रदाय के तपस्वियों के लिए कराया गया था। इनका निर्माण विशाल ग्रेनाइट पत्थरों को काटकर किया गया है, और इनकी दीवारों पर गज़ब की चिकनाहट और कांच जैसी चमक देखने को मिलती है।

    वास्तुकला और निर्माण तकनीक

    बाराबर गुफाएँ ग्रेनाइट चट्टानों को काटकर बनाई गई हैं, जो उस समय की उन्नत निर्माण तकनीक को दर्शाती हैं। गुफाओं की दीवारों पर मौर्यकालीन पॉलिश (Mauryan polish) देखने को मिलती है, जिससे दीवारें चमकदार और चिकनी प्रतीत होती हैं। यह पॉलिशिंग तकनीक बाद में अशोक के स्तंभों में भी देखी गई है।इन गुफाओं की दीवारें अत्यंत चिकनी और पॉलिश की हुई हैं, जो मौर्य काल की उन्नत शिल्पकला को दर्शाती हैं। लोमस ऋषि गुफा की मुखाकृति उस समय की लकड़ी की वास्तुकला की नकल करती है, जिसमें हाथियों की एक पंक्ति स्तूपों की ओर जाती हुई उकेरी गई है। यह शैली बाद में महाराष्ट्र की अजंता और कार्ले गुफाओं में देखी गई।

    लोमस ऋषि गुफा का प्रवेश द्वार विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसमें लकड़ी की वास्तुकला की नकल करते हुए हाथियों की पंक्ति उकेरी गई है। यह उस समय की शिल्पकला और वास्तुकला की उत्कृष्टता को दर्शाता है।

    वर्तमान स्थिति और संरक्षण

    बाराबर गुफाएँ आज भी बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक हैं। हालांकि, समय के साथ इनकी संरचना पर प्रभाव पड़ा है, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) इनके संरक्षण और देखभाल में सक्रिय है।

    विशेषताएँ और ऐतिहासिक महत्व

    बराबर गुफाएं मौर्य काल की उत्कृष्ट वास्तुकला का उदाहरण हैं, जिनमें से अधिकांश का निर्माण सम्राट अशोक के शासनकाल (273–232 ईसा पूर्व) में हुआ था।

    ये गुफाएं आजीविक संप्रदाय के भिक्षुओं के ध्यान और साधना के लिए बनवाई गई थीं।

    गुफाओं की दीवारों पर अशोक और उनके उत्तराधिकारी दशरथ द्वारा लिखवाए गए ब्राह्मी लिपि में अभिलेख मौजूद हैं।

    गुफाओं में अधिकांशतः दो कक्ष होते हैं – एक बाहरी सभा-स्थान और एक भीतरी पूजा-गृह, जिसमें पहले कक्ष का उपयोग लोगों को इकट्ठा करने के लिए किया जाता था और भीतरी कक्ष में ध्यान या पूजा होती थी।

    गुफाओं की आंतरिक दीवारें अत्यंत चिकनी और चमकदार हैं, जिसके कारण इनमें एक विशेष प्रतिध्वनि प्रभाव (Echo effect) उत्पन्न होता है।

    इसका आंतरिक भाग पूरी तरह पॉलिश किया हुआ है और इसके चिकने पत्थरों के कारण इसमें एक अत्यंत प्रभावशाली प्रतिध्वनि अनुभव होती है।

    इसमें केवल एक ही कक्ष है जिसकी छत गुंबदनुमा है। कक्ष के भीतर एक उच्च मंच बना हुआ है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इसका उपयोग गुरुओं द्वारा अपने शिष्यों को उपदेश देने के लिए किया जाता होगा।

    गुफा के प्रवेशद्वार के दोनों ओर ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख मौजूद हैं, जिनमें “बोधिमूल” (ज्ञान का मूल) और “दरिद्र केंद्र” (गरीबों का स्थान) जैसे शब्द हैं।

    इस गुफा के बाहर एक शिवलिंग की आकृति और दो अधूरी मानवीय आकृतियाँ भी बनी हुई हैं, जिनके अर्थ को स्पष्ट रूप से पहचाना नहीं जा सका है।

    लोमस ऋषि गुफा (Lomas Rishi Cave)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    बराबर गुफाओं में सबसे अनोखी और विशिष्ट है लोमस ऋषि गुफा। इसका द्वार उस समय की लकड़ी की वास्तुकला की सुंदर नकल है, जिसमें हाथियों की कतार एक स्तूप की ओर बढ़ती दिखाई देती है। यह गुफा न केवल वास्तुकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसकी आंतरिक दीवारें इतनी चिकनी हैं कि उनमें शीशे जैसी चमक दिखाई देती है।

    करण चौपर गुफा (Karan Chaupar Cave)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    बराबर गुफाओं में प्रवेश करते समय करण चौपर गुफा सबसे पहले सामने आती है। यह गुफा खलाटिका पहाड़ी पर स्थित है और एक शिलालेख के अनुसार इसे सुपिया गुफा भी कहा गया है। इस गुफा का निर्माण सुदामा गुफा के निर्माण के सात वर्ष बाद कराया गया था और इसे सम्राट अशोक ने अपने 19वें शासन वर्ष में आजीविकों को समर्पित किया था।

    विश्वकर्मा गुफा (Vishwakarma Cave)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    विश्वकर्मा गुफा, बाराबर पहाड़ियों की अन्य तीन गुफाओं की भांति, एक ही पर्वतीय श्रृंखला पर स्थित है, किंतु यह थोड़ी दूरी पर एकांत में स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए चट्टानों को तराशकर बनाई गई सीढ़ियाँ उपयोग में लाई जाती हैं। इस गुफा का प्रवेश द्वार चौकोर और साफ-सुथरा है, जो एक विशाल खुले स्थान से जुड़ा हुआ है।

    एक ऐतिहासिक शिलालेख के अनुसार, जब किसी राजा को बारह वर्षों के लिए एक विशेष धार्मिक उद्देश्य हेतु पवित्र किया गया, तब उसकी कृपा से आजीविका संप्रदाय के अनुयायियों को इस गुफा का उपयोग करने की अनुमति दी गई। गुफा का प्रवेश क्षेत्र अद्वितीय शिल्पकला का उदाहरण है — विशेषकर दीवारों और छत के बीच के अंतराल तक बची हुई चिकनी पॉलिश इसे असाधारण बनाती है। सीधे जोड़े गए पत्थर, निर्माणकर्ताओं की दक्षता को प्रमाणित करते हैं।

    गुफा के भीतर की अल्प सज्जा यह संकेत देती है कि शायद निर्माण कार्य अधूरा रह गया था। दीवारों पर आज भी पत्थर काटने के खुरदरे निशान देखे जा सकते हैं, जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उस समय पत्थर को किस विधि से आकार दिया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी कालखंड में हुए सामाजिक परिवर्तन के कारण आजीवकों को इस गुफा से वंचित कर दिया गया, जैसा कि सुदामा गुफा में “आजीविका” शब्द के विरूपण से स्पष्ट होता है।गुफा के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र में बिखरे हुए पत्थर एक रहस्यमय और प्राचीन दृश्य प्रस्तुत करते हैं।

    सुदामा गुफा (Sudama Cave)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    सुदामा गुफा, लोमश ऋषि गुफा के बिल्कुल बगल में स्थित है और अपने आयताकार, सीधे कटे हुए प्रवेश द्वार के लिए प्रसिद्ध है। इस गुफा के आंतरिक भागों में अत्यधिक चमकदार पॉलिश की गई है, जिससे इसकी दीवारें दर्पण जैसी प्रतीत होती हैं। गुफा के भीतर की नीरसता के बावजूद इसकी चमक इसे विशिष्ट बनाती है।

    प्रवेश द्वार पर मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में एक शिलालेख अंकित है, जिसके अनुसार यह गुफा सम्राट अशोक द्वारा अपने शासन के 12वें वर्ष में आजीविक संप्रदाय के तपस्वियों के उपयोग हेतु समर्पित की गई थी। इसे “निगोहा गुफा” या “बरगद के वृक्ष के नीचे की गुफा” के नाम से भी जाना जाता है।

    गुफा के एक छोर पर एक छोटी कोठरी है, जिसमें संभवतः किसी समय एक मूर्ति स्थापित थी। इसके विपरीत दिशा में एक गुंबदाकार कक्ष है, जिसकी छत फूस की झोंपड़ी जैसी गोलाई लिए हुए है और जिसकी सतह पर भी चमकदार पॉलिश है। इस कक्ष में बना अर्धगोलाकार शीर्ष वाला प्रवेश द्वार अत्यंत सुंदर है।

    एक विशेष आकर्षण इस गुफा में उत्पन्न प्रतिध्वनि प्रभाव है, जहाँ आवाज़ गूंजते हुए लगभग तीन सेकंड तक सुनाई देती है। यह प्रभाव इसकी विशिष्ट संरचना और चिकनी पॉलिश के कारण संभव हो पाया है। सुदामा नाम से संबंधित एक लोककथा यह बताती है कि यह गुफा भगवान कृष्ण के कंजूस मित्र “सुदामा” के निवास स्थान के रूप में प्रसिद्ध थी, जो संभवतः स्थानीय लोक परंपरा का हिस्सा रही है।

    नागार्जुनी पहाड़ियों पर स्थित इन तीन गुफाओं को कई बार “नागार्जुनी गुफाएँ” भी कहा जाता है। इन सभी गुफाओं में समर्पण संबंधी शिलालेख पाए जाते हैं — बाराबर समूह की गुफाओं में “राजा पियादासी” (सम्राट अशोक) और नागार्जुनी समूह में “देवानामपिया दशरथ” (अशोक के पौत्र) के नाम से।ये शिलालेख तीसरी शताब्दी ई.पू. के हैं और मौर्य वंश की शाही परंपरा से संबंधित हैं।

    आजीविका संप्रदाय और गुफाओं का संबंध (Relation of Ajivika Sect and Caves)

    इन गुफाओं का ऐतिहासिक, धार्मिक और दार्शनिक महत्व अत्यधिक है। ये गुफाएँ आजीविका संप्रदाय के तपस्वियों के ध्यान और निवास के लिए बनाई गई थीं। इस संप्रदाय की स्थापना मक्खलि गोसाला ने की थी, जो जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के समकालीन थे।

    बौद्ध और जैन धर्म, दोनों में आजीविका संप्रदाय से अनेक समानताएँ मिलती हैं। यही कारण है कि इन गुफाओं में बाद में बौद्ध और हिंदू प्रभाव की रॉक-कट मूर्तियाँ और शिलालेख भी पाए गए हैं। इस स्थल का यह बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक स्वरूप इसे और अधिक विशिष्ट बनाता है। बाराबर और नागार्जुनी गुफाएँ न केवल भारत की सबसे पुरानी शिलालेखयुक्त गुफाएँ हैं, बल्कि वे धार्मिक सहिष्णुता, वास्तुकला की बारीकी और मौर्यकालीन संस्कृति की झलक भी प्रस्तुत करती हैं। इन गुफाओं में आज भी वह आध्यात्मिक और स्थापत्य सौंदर्य विद्यमान है, जो प्राचीन भारत के ज्ञान, साधना और निर्माण-कौशल का प्रतीक है।

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