
Bihar Election 2025
Bihar Election 2025
Bihar Election 2025: बिहार की हवा में एक बार फिर से चुनावी खुमार घुलने लगा है। गांव-गांव में चाय की दुकानों पर राजनीतिक चर्चाएं फिर से गरम हो गई हैं। खेतों में हल चलाते किसान से लेकर शहर की गलियों में ठेले लगाते युवाओं तक, हर कोई जानना चाहता है—2025 के चुनाव में किसका पलड़ा भारी रहेगा? कौन सा नेता केवल वादों की पोटली लेकर आ रहा है और कौन जनता की नब्ज को सही मायनों में पहचान रहा है? बिहार की सियासत कभी जातीय समीकरणों पर खेली जाती थी, फिर रोजगार और शिक्षा की बातें भी उठीं, लेकिन क्या इस बार वाकई कोई बड़ा मुद्दा चुनाव की दिशा तय करेगा? या फिर एक बार फिर चेहरे, जाति और गठबंधन ही निर्णायक होंगे?
बेरोजगारी: युवा मतदाताओं की सबसे बड़ी कसक
बिहार का युवा वर्ग इस चुनाव में सबसे ज्यादा मुखर है। लाखों डिग्रीधारी नौजवान नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन (BPSC) की भर्तियों में देरी, पेपर लीक की घटनाएं और आरक्षण पर मचे घमासान ने इस पीढ़ी में गहरा असंतोष पैदा किया है। तमाम राजनीतिक दल अब युवाओं को अपने पक्ष में करने के लिए ‘रोजगार क्रांति’ का वादा कर रहे हैं। बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में ‘हर घर नौकरी योजना’ का जिक्र किया है, तो वहीं महागठबंधन (RJD, Congress और वाम दल) ने ‘नौकरी अधिकार कानून’ लाने की बात कही है। तेजस्वी यादव फिर से 10 लाख सरकारी नौकरियों का राग अलाप रहे हैं, वही पुराना वादा जिसे 2020 में उन्होंने बड़े दमखम से उठाया था, लेकिन सत्ता में ना आने की वजह से उसे अमल में नहीं ला सके।
गरीबी और महंगाई: रसोई से लेकर राशन कार्ड तक की चिंता
बिहार की गरीब जनता के लिए महंगाई सबसे बड़ा मुद्दा है। LPG सिलेंडर के दाम, राशन वितरण में गड़बड़ियां और मनरेगा भुगतान में देरी जैसे मुद्दों ने आम जनता को त्रस्त कर दिया है। मोदी सरकार द्वारा दिए गए फ्री राशन की स्कीम इस बार का चुनावी टर्निंग पॉइंट हो सकती है। बीजेपी इसे बड़ी सफलता बताकर जनता के बीच जा रही है, जबकि विपक्ष आरोप लगा रहा है कि इससे सिर्फ वोट खरीदे जा रहे हैं।
जातीय जनगणना बनाम विकास मॉडल
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, 2025 का चुनाव जातीय जनगणना और उसके बाद बनने वाली नीतियों को लेकर भी गरम है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में कराई गई जातिगत गणना ने बिहार की राजनीति को एक नई दिशा दी है। विपक्ष इसे सामाजिक न्याय का आधार बता रहा है, जबकि बीजेपी इस मुद्दे पर कंफ्यूजन में है। एक ओर RJD इस आंकड़े के आधार पर पिछड़ों को ज्यादा प्रतिनिधित्व देने की बात कर रही है, वहीं बीजेपी इस पर स्पष्ट स्टैंड लेने से बच रही है। हालांकि अब धीरे-धीरे भाजपा भी EBC (अति पिछड़ा वर्ग) को साधने में जुट गई है। इससे स्पष्ट है कि जाति की राजनीति अभी भी बिहार में पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, बल्कि नए स्वरूप में लौट रही है।
महिलाओं का मोर्चा: ‘लाड़ली बहनों’ को कौन जीतेगा?
मध्यप्रदेश की तरह बिहार में भी महिलाओं को साधने की होड़ शुरू हो गई है। बीजेपी ने संकेत दिए हैं कि यदि वह सत्ता में लौटती है तो गरीब महिलाओं को सालाना सहायता राशि दी जाएगी। नीतीश कुमार की सरकार पहले ही जीविका समूह के जरिए महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है। RJD इस वर्ग को भावनात्मक अपील के जरिए जोड़ने की कोशिश कर रही है, खासकर मुस्लिम और दलित महिलाओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए। लेकिन क्या ये प्रयास महिलाओं के वोट को निर्णायक बना पाएंगे, ये देखने लायक होगा।
अब तक कौन दिखा आगे? जनता किससे है खुश?
अगर अभी की बात करें तो बीजेपी और JDU का गठबंधन एक बार फिर साथ आ चुका है और मोदी-नीतीश की जोड़ी जनता के बीच पुरानी यादें ताज़ा कर रही है। नीतीश कुमार, जिन्होंने कई बार पाला बदला, अब बीजेपी के साथ स्थायित्व का दावा कर रहे हैं। दूसरी ओर तेजस्वी यादव की सभाओं में युवाओं की भीड़ उमड़ रही है, लेकिन केवल भीड़ चुनाव नहीं जीतती। उन्हें अब तक बिहार में विपक्षी गठबंधन का मजबूत चेहरा माना जा रहा है, लेकिन जनता के मन में यह सवाल अभी भी है कि क्या तेजस्वी वाकई बिहार को चला सकते हैं? जनता के बीच जो भावना सबसे ज्यादा उभरकर आ रही है, वो है—“अब बात करनी है काम की, नाम की नहीं।” अगर कोई दल बेरोजगारी, स्वास्थ्य और शिक्षा के ठोस रोडमैप के साथ सामने आता है, तो बाज़ी पलट सकती है।
जनता की जुबान पर सवाल: जाति बनाम विकास
बिहार का मतदाता अब सिर्फ जाति नहीं देख रहा, वह पूछ रहा है—किस नेता ने मेरे बच्चे को नौकरी दी? कौन सी सरकार अस्पताल लेकर आई? कौन-सा दल सिर्फ भाषण देता रहा और कौन वास्तव में ज़मीन पर उतरा? 2025 का बिहार चुनाव तय करेगा कि राज्य की राजनीति में असली बदलाव आया है या सब कुछ पहले जैसा ही है। अब देखना ये है कि चुनावी रंग में कौन सच्चाई का रंग घोल पाता है—और कौन जनता को एक बार फिर सपनों का झुनझुना पकड़ाकर वोट ले जाता है।
अंतिम फैसला जनता के हाथ में
बिहार की गली-गली में शोर है, पर सच्ची आवाज़ उस मतदाता की है जो चुपचाप वोट देने जाएगा। इस बार पेट का सवाल है, रोजगार की तड़प है, बच्चों की शिक्षा की चिंता है। अगर राजनीतिक दल इन मुद्दों पर नहीं टिके तो ये चुनाव सिर्फ सत्ता का फेर नहीं, जनादेश का प्रहार भी हो सकता है। बिहार 2025 का चुनाव सिर्फ एक सियासी मुकाबला नहीं है, यह इस बात का इम्तिहान है कि जनता ने लोकतंत्र को कितना समझा है और नेता अब भी जनता को कितना समझते हैं।