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    राजनीति

    Bihar Election 2025: बिहार में कांग्रेस का ‘रील कैप्टन’ कौन? राहुल या कोई और? अपने ही भ्रमजाल में फंसी कांग्रेस

    Janta YojanaBy Janta YojanaMay 17, 2025No Comments6 Mins Read
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    Bihar Election 2025

    Bihar Election 2025

    Bihar Election 2025: बिहार की मिट्टी कभी कर्पूरी ठाकुर के समाजवाद की गवाही देती थी, तो कभी लालू यादव की सियासी चालों की कसौटी बनती थी। यहां की राजनीति का ताप बाकी देश से अलग चलता है। जब देश भर में लहरें चल रही होती हैं, तब बिहार अपनी लीक खुद तय करता है। और अब, जब 2025 की विधानसभा चुनावी बिसात बिछने लगी है, तो हर पार्टी अपनी चालें तेज कर रही है। लेकिन इस पूरे सियासी महाभारत में एक पार्टी है जो खुद अपने ही भ्रमजाल में उलझी दिखाई देती है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस। सवाल यह नहीं कि कांग्रेस कितनी सीटें जीतेगी, बल्कि सवाल यह है कि बिहार में कांग्रेस की कमान किसके हाथ में है? और असली कैप्टन कौन है राहुल गांधी या कोई और?

    जी हां, यह वही कांग्रेस है जिसने कभी बिहार से केंद्र की सत्ता तक का रास्ता तय किया था। यह वही कांग्रेस है जिसने देश की आजादी से लेकर इमरजेंसी तक और मंडल-कमंडल राजनीति के दौर में भी अपनी जड़ें बिहार में बचाए रखीं। लेकिन आज की कांग्रेस, बिहार में न केवल हाशिये पर है बल्कि भीतरघात और नेतृत्व के संकट से जूझ रही है। यह संकट इतना गहरा है कि अब पार्टी के भीतर ही यह सवाल उठने लगा है “क्या राहुल गांधी वाकई बिहार में कांग्रेस को नेतृत्व दे सकते हैं या पार्टी को किसी और स्थानीय चेहरे की जरूरत है?”

    अंदर ही अंदर सुलग रही है बगावत की चिंगारी

    कांग्रेस के भीतर एक बड़ा तबका मानता है कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और सोशल मीडिया इमेज बिल्डिंग बिहार जैसे राज्य में काम नहीं करती। वहां राजनीति अब भी ‘खाट पंचायत’, जातीय गणित और जमीनी पकड़ के दम पर लड़ी जाती है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर यह कह चुके हैं कि बिहार में कांग्रेस की हालत एक ऐसे बेबस दर्शक की है, जो न तो खुद लड़ पा रहा है और न ही गठबंधन में सम्मान पा रहा है। वर्तमान में बिहार में कांग्रेस RJD के नेतृत्व वाले महागठबंधन का हिस्सा है। लेकिन पिछले कुछ महीनों से यह गठबंधन भी दरारों से भरता दिख रहा है। तेजस्वी यादव की बढ़ती महत्वाकांक्षा और कांग्रेस को मिलने वाली ‘मामूली सीटें’ पार्टी के भीतर असंतोष को हवा दे रही हैं।

    राहुल गांधी बनाम ‘स्थानीय नेतृत्व’ का घमासान

    बिहार कांग्रेस के कुछ युवा नेता राहुल गांधी के सोशल मीडिया-प्रेरित आंदोलन और दिल्ली से चलाए जा रहे ‘रीमोट कंट्रोल’ नेतृत्व को समर्थन देते हैं। लेकिन दूसरी ओर, पार्टी के पुराने, क्षेत्रीय और जमीनी नेता चाहते हैं कि बिहार में कोई स्थानीय ‘चेहरा’ पार्टी की कमान संभाले। इनमें से कुछ नेताओं ने यह भी सुझाव दिया है कि अगर पार्टी तेजस्वी यादव के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने जा रही है, तो कांग्रेस को बिहार में अपनी स्वतंत्र पहचान छोड़ देनी चाहिए और यह बात उन्हें मंजूर नहीं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी बिहार की राजनीति को वास्तव में समझ पा रहे हैं? क्या वो वहां के जातीय समीकरण, क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा और ग्रामीण मतदाता की सोच से तालमेल बैठा पा रहे हैं?

    पर्दे के पीछे चल रही है ‘कैप्टन’ की लड़ाई

    सूत्रों की मानें तो राहुल गांधी की टीम और बिहार कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के बीच भीतर ही भीतर एक खामोश जंग चल रही है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “दिल्ली में बैठकर बिहार की राजनीति नहीं समझी जा सकती। यहां अभी भी लोग जात और पंचायत की बातें करते हैं, इंस्टाग्राम रील नहीं देखते।” इन नाराज नेताओं में से कुछ ऐसे भी हैं जो चाहते हैं कि पूर्व केंद्रीय मंत्री अशोक चौधरी जैसे पुराने नेताओं को फिर से सक्रिय किया जाए, जबकि कुछ नेता पप्पू यादव जैसे बाहरी, मगर लोकप्रिय चेहरे को पार्टी में शामिल कर उन्हें नेतृत्व सौंपने की वकालत कर रहे हैं। यह मांग राहुल गांधी के खेमे को असहज करती है।

    क्या प्रियंका गांधी बन सकती हैं ‘रील कैप्टन’?

    कुछ हलकों में यह भी चर्चा है कि बिहार में राहुल गांधी की बजाय प्रियंका गांधी को सक्रिय किया जाए, क्योंकि उनमें जमीनी राजनीति से जुड़ने की क्षमता ज्यादा है। यूपी में असफल प्रयोग के बावजूद, प्रियंका की छवि बिहार में कुछ तबकों के बीच ‘फ्रेश’ है। खासकर महिला मतदाताओं और मुस्लिम समुदाय में उन्हें लेकर सकारात्मक भावनाएं देखी गई हैं। लेकिन सवाल वही है क्या कांग्रेस इस प्रयोग के लिए तैयार है? और क्या खुद प्रियंका गांधी यह जोखिम उठाना चाहेंगी?

    सोशल मीडिया बनाम सच्चाई

    राहुल गांधी की टीम सोशल मीडिया पर उन्हें एक मज़बूत, मुखर नेता के रूप में पेश कर रही है जो युवाओं, बेरोजगारी, संविधान और धर्मनिरपेक्षता की बात करता है। लेकिन बिहार की जमीनी राजनीति में अभी भी चौपाल, पंचायत और जातीय समीकरण की पकड़ सोशल मीडिया से कहीं ज़्यादा मजबूत है। कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने बताया, “हम सोशल मीडिया पर कुछ भी पोस्ट करें, गांव में लोग पूछते हैं कि ‘बिजली कब आएगी, नौकरी कौन देगा, और जात कौन की है?’ इस पर कोई जवाब नहीं है।”

    गठबंधन में सम्मान या अलग राह?

    कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा संकट यह है कि वह न RJD के साथ बराबरी पर है, न भाजपा के सामने एक मजबूत विपक्ष की तरह खड़ी है। सीट शेयरिंग के मामले में कांग्रेस को 2020 में मात्र 70 सीटें मिली थीं, जिनमें से उसने सिर्फ 19 सीटें जीतीं। इस बार भी हालात कुछ खास अलग नहीं दिखते। ऐसे में पार्टी के भीतर एक बड़ा वर्ग यह मांग कर रहा है कि कांग्रेस को बिहार में ‘अपने दम पर लड़ने की तैयारी करनी चाहिए।’ हालांकि, इसके लिए संगठन, संसाधन और स्थानीय नेटवर्क की भारी कमी है, जिससे पार्टी नेतृत्व घबराया हुआ है।

    क्या कांग्रेस खुद से लड़ेगी या खुद को ही हराएगी?

    बिहार में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा संकट भाजपा या RJD नहीं, बल्कि उसका खुद का नेतृत्व और दिशा है। राहुल गांधी को ‘रील कैप्टन’ की भूमिका से बाहर निकलकर ‘ग्राउंड कैप्टन’ बनना होगा वरना पार्टी के कार्यकर्ता, मतदाता और नेता सब यही पूछते रह जाएंगे कि *”बिहार में कांग्रेस का असली नेता कौन है?” यह लड़ाई सिर्फ चुनाव जीतने की नहीं, अस्तित्व बचाने की है। और सवाल अब यह है कि कांग्रेस इसे समय रहते समझेगी या बिहार की राजनीति में एक और इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएगी एक भूली हुई विरासत की तरह।

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