
Bihar Election 2025
Bihar Election 2025
Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति में जाति एक हकीकत नहीं, एक शक्ति है। यह वह धुरी है जिस पर सियासत के सारे पहिए घूमते हैं। यहां हर चुनाव में नेता नहीं, जातियां उम्मीदवार तय करती हैं। हर गली, हर पंचायत और हर विधानसभा में किस जाति का वर्चस्व है ये जानना किसी भी पार्टी के लिए उतना ही जरूरी होता है जितना उम्मीदवार का नाम। ऐसे में जब बिहार सरकार ने ‘जाति आधारित जनगणना’ का ऐलान किया, तो सियासत की ज़मीन जैसे हिल उठी। यह सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं है। यह बिहार की राजनीति, सामाजिक संतुलन और सत्ता समीकरणों को पूरी तरह बदल देने वाला फैसला हो सकता है। सवाल ये है क्या ये कदम सामाजिक न्याय की ओर बढ़ाया गया साहसिक कदम है या एक सोचा-समझा चुनावी पैंतरा? और सबसे अहम सवाल इससे किसे फायदा होगा और किसकी सियासत डगमगाएगी?
जाति आधारित जनगणना की मांग कैसे बनी आंदोलन
जाति आधारित जनगणना की मांग कोई नई नहीं है। पिछड़े वर्गों के नेताओं का तर्क है कि बिना सही आंकड़ों के न तो नीतियां बन सकती हैं और न ही संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण हो सकता है। केंद्र सरकार जहां इससे कन्नी काटती रही, वहीं बिहार की सियासत ने इसे हाथों-हाथ लिया। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव दोनों ने इसे ‘सामाजिक न्याय की आधारशिला’ बताया और मिलकर इसे लागू भी कराया। यह वही क्षण था जब विरोधियों को अहसास हुआ कि ‘गिनती की सियासत’ शुरू हो चुकी है।
गणना से ज्यादा गिनती का गणित: कौन है इस राजनीति का मास्टर?
इस पूरी कवायद में सबसे बड़ा लाभ उन्हें होने की संभावना है जो पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित वर्गों से आते हैं। तेजस्वी यादव जैसे नेता, जो खुद OBC वर्ग से हैं, इस पूरी प्रक्रिया को सामाजिक प्रतिनिधित्व की क्रांति बता रहे हैं। उनका तर्क है अगर OBC की आबादी 50% से ज्यादा है, तो उनके लिए आरक्षण की सीमा भी बढ़नी चाहिए, योजनाओं में हिस्सेदारी भी। इसी के समानांतर, नीतीश कुमार इस मुद्दे पर अपने पुराने सामाजिक न्याय वाले अवतार में लौटते दिखे। उनके लिए ये मुद्दा राजनीतिक पुनर्जीवन का मौका है। बीजेपी से अलग होकर खुद को फिर से ‘पिछड़ों के नेता’ के रूप में पेश करना उनके लिए राजनीतिक संजीवनी जैसा हो सकता है।
कौन हो सकता है नुकसान में?
जाति आधारित जनगणना से सबसे ज्यादा दबाव बीजेपी पर है। पार्टी ने हमेशा जातीय राजनीति से ऊपर राष्ट्रवाद, विकास और संगठन की बात की है। लेकिन बिहार जैसे राज्य में जातीय आंकड़ों के सार्वजनिक होने का मतलब है पार्टी की ‘मोदी ब्रांड’ रणनीति को अब जातीय आंकड़ों के समुंदर में खुद को तैरना होगा। इसके अलावा सवर्ण वर्ग से आने वाले कुछ नेता और दल इस पहल को ‘नवसंविधान’ का खतरा मान रहे हैं। उनका डर यह है कि इससे सामाजिक ध्रुवीकरण और आरक्षण की नई मांगों का तूफान उठ सकता है, जिससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी।
क्या कहती है जनगणना?
बिहार सरकार द्वारा जारी आंकड़ों में सामने आया कि OBC और EBC की आबादी लगभग 63% से भी ज्यादा है। यह आंकड़ा सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के लिए एक राजनीतिक हथियार बन गया। अब विपक्ष मांग कर रहा है कि इस आधार पर आरक्षण की सीमा 50% से बढ़ाकर 65-70% की जाए। इसका सीधा असर सिर्फ नौकरियों और शिक्षा में नहीं, बल्कि सत्ता के बंटवारे और सीटों की टिकट वितरण तक दिखेगा।
राजनीतिक दलों की स्थिति: कौन, कहां खड़ा है?
आरजेडी (तेजस्वी यादव): पूरी ताकत से समर्थन में। इसे वे ‘सामाजिक बदलाव की शुरुआत’ मानते हैं।
जेडीयू (नीतीश कुमार): खुद को इसका जनक बता रहे हैं। इसे अपना राजनीतिक पुनर्जन्म मान रहे हैं।
बीजेपी: असहज लेकिन पूरी तरह विरोध में नहीं। फिलहाल ‘विकास बनाम जाति’ की बहस को हवा दे रही है।
कांग्रेस और वाम दल:समर्थन में, लेकिन तेजस्वी के नेतृत्व से असहज।
सवर्ण संगठनों और कुछ क्षेत्रीय दलों: विरोध में। इसे ‘राजनीति को जातीय कटघरों में बांधने’ की साजिश बताते हैं।
क्या इससे बदलाव आएगा?
जनता अब सवाल कर रही है गिनती से जिंदगी बदलेगी या सिर्फ सत्ता के चेहरे? क्या OBC या EBC की संख्या जान लेने से उन्हें स्कूल, अस्पताल और नौकरी मिल जाएगी? या ये एक नया वोट बैंक बनाने का टूल है? विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इस डेटा के आधार पर नीतियों में बदलाव, विकास योजनाओं में संतुलन और प्रशासनिक प्रतिनिधित्व में भागीदारी बढ़ती है, तो यह ऐतिहासिक बदलाव हो सकता है।
गिनती से इंकलाब या सत्ता का नया समीकरण?
जाति आधारित जनगणना बिहार में सिर्फ एक सरकारी प्रक्रिया नहीं है, यह राजनीति के डीएनए को बदलने वाली घटना है। यह तेजस्वी यादव को ‘युवा नेता’ से न्याय के प्रतीक में बदल सकती है। यह नीतीश कुमार को एक बार फिर पिछड़ों के मसीहा के रूप में स्थापित कर सकती है और यह भाजपा को एक नई रणनीति गढ़ने पर मजबूर कर सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है क्या यह गिनती सामाजिक न्याय का रास्ता खोलेगी या वोटों की नई सियासी लूट की शुरुआत करेगी?