
Hathila Shah Baba Dargah Shareef History and Intresting Facts
Hathila Shah Baba Dargah Shareef History and Intresting Facts
Hathila Baba Dargah Shareef History: भारत एक विविधताओं से भरा देश है जहां धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताएं सदियों से एक साथ पनपती रही हैं। उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में स्थित हठीले शाह की दरगाह, जिसे गाजी सैय्यद सालार मसूद की मजार के रूप में भी जाना जाता है, इसी धार्मिक सह-अस्तित्व का सशक्त उदाहरण है। हर साल जेठ महीने में यहां आयोजित होने वाला रौजा मेला, न केवल धार्मिक श्रद्धा का केंद्र होता है बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता की अनोखी मिसाल भी पेश करता है। लेकिन अब इस पर प्रतिबंध लग चुका है। अब यहां जेठ माह में लगने वाली रौनकें अब बेजार हो चुकी हैं। आइए जानते हैं हठीले शाह उर्फ गाजी मियां के इतिहास, किंवदंतियों, मेले के सांस्कृतिक महत्व, और वर्तमान विवादों के बारे में विस्तार से –
गाजी सैय्यद सालार मसूद कौन थे
गाजी सैय्यद सालार मसूद एक गजनवी सेनापति थे, जिन्हें 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में हुए मुस्लिम अभियानों के साथ जोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि वे महमूद गजनवी के भांजे थे और उनके नेतृत्व में भारतीय उपमहाद्वीप में कई अभियानों में भाग लिया। वह एक कुशल योद्धा के साथ-साथ धार्मिक भावना से परिपूर्ण युवा थे। मात्र 16 वर्ष की आयु में ही वे युद्ध क्षेत्र में मारे गए और उनकी कब्र बहराइच में बनवाई गई।

इतिहास और मजार की स्थापना
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार 1034 ईस्वी में सालार मसूद की मृत्यु के बाद उनकी कब्र बहराइच में बनवाई गई। उनकी मृत्यु सुहेलदेव नामक एक स्थानीय राजा के साथ युद्ध में हुई मानी जाती है। यह स्थल बाद में धार्मिक आस्था का केंद्र बन गया। गाजी मियां जब महमूद गजनवी के अभियान के साथ भारत आए, तो उन्होंने उत्तर भारत में कई इलाकों से होकर सैन्य अभियान चलाया। गोंडा, बहराइच और बलरामपुर जैसे क्षेत्र इस मार्ग का हिस्सा माने जाते हैं।

ऐसा माना जाता है कि गोंडा क्षेत्र में उन्होंने कुछ समय विश्राम किया या सैन्य पड़ाव डाला। स्थानीय जनश्रुतियों में उनके सहयोगियों की मजारें भी गोंडा और आस-पास देखी जाती हैं। 1250 ईस्वी में दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने यहां (बहराइच) एक भव्य मजार का निर्माण करवाया, जिससे इस स्थल की मान्यता और अधिक बढ़ गई। इस मजार की बनावट और स्थापत्य कला उस काल के इस्लामी स्थापत्य का सुंदर उदाहरण है, जिसमें संगमरमर, हरे पत्थर और नक्काशीदार मेहराबों का उपयोग हुआ है।
हठीले शाह नाम की उत्पत्ति और इससे जुड़ी मान्यताएं
हठीले शाह नाम दरअसल सालार मसूद के भक्तों द्वारा श्रद्धा के साथ दिया गया एक उपनाम है। ‘हठीले’ का अर्थ होता है अडिग या ज़िद्दी, और यह इस बात की ओर संकेत करता है कि कैसे सालार मसूद अपने धार्मिक विश्वासों और सिद्धांतों पर अडिग रहे, भले ही उन्हें अपने जीवन की आहुति देनी पड़ी। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, वे एक दिव्य शक्तियों से युक्त संत थे, जिनकी मजार पर मत्था टेकने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसलिए, समय के साथ, उनकी मजार एक सूफी दरगाह के रूप में विख्यात हो गई।

हर साल जेठ महीने में लगने वाला यह मेला उत्तर भारत के सबसे बड़े धार्मिक मेलों में गिना जाता है। इसकी शुरुआत बाराबंकी के देवा शरीफ से गाजी मियां की ‘बारात’ के रूप में होती है, जो बहराइच पहुंचती है। यह धार्मिक यात्रा कई किलोमीटर लंबी होती है और इसमें हजारों की संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं। इस मेले में झूले, दुकाने, सूफी संगीत और कव्वालियों का दौर चलता था। हिंदू मुस्लिम सभी धर्म के लोग यहां चादर चढ़ाकर मन्नत मांगते हैं। वहीं हिंदू महिलाएं नारियल और चुनरी चढ़ाकर प्रार्थना करती हैं।
हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक
इस मेले की सबसे अनोखी बात यह है कि इसमें भाग लेने वाले श्रद्धालुओं में बड़ी संख्या हिंदू समुदाय की होती है। 2000 के दशक में किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि मेले में आने वाले अधिकांश आगंतुक हिंदू होते हैं। यह धार्मिक आयोजन इस बात का उदाहरण है कि कैसे भारत की मिट्टी में गंगा-जमुनी तहज़ीब ने एक ऐसा वातावरण बनाया है जहां धार्मिक सीमाएं धुंधली हो जाती हैं और केवल आस्था और श्रद्धा की प्रधानता होती है।
किंवदंतियां और विवाद
हालांकि गाजी मियां को एक दिव्य संत के रूप में मान्यता मिली है, किंवदंतियों में राजा सुहेलदेव को भी एक योद्धा के रूप में महिमामंडित किया गया है। कुछ कथाओं में सुहेलदेव को एक ऐसे हिंदू राजा के रूप में चित्रित किया गया है जिसने एक मुस्लिम आक्रमणकारी के खिलाफ साहसिक युद्ध लड़ा। परंतु कुछ विद्वान इन दावों को ऐतिहासिक साक्ष्यों से पुष्ट नहीं मानते। वर्तमान समय में कुछ हिंदू संगठनों ने सुहेलदेव को ‘हिंदू अस्मिता’ का प्रतीक बताते हुए गाजी मियां को ‘विदेशी आक्रमणकारी’ के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। इससे दरगाह और मेले की छवि पर भी प्रभाव पड़ा है।

वर्तमान स्थिति और प्रतिबंध
रौजा मेले पर प्रशासनिक और राजनीतिक कारणों से प्रतिबंध लगाए गए हैं। इसकी प्रमुख वजह है धार्मिक ध्रुवीकरण और सुरक्षा कारण। स्थानीय प्रशासन मेले के दौरान किसी प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा न हो, इसके लिए पहले भी पुलिस बल की भारी तैनाती की जाती थी। हठीले शाह (गाजी सैय्यद सालार मसूद) की दरगाह पर लगने वाले पारंपरिक जेठ मेले पर 2025 में प्रतिबंध लगाया गया है। इससे पहले, 2024 में भी मेले के आयोजन को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ था, लेकिन उस वर्ष मेला आयोजित हुआ था। इस प्रकार, 2025 में यह पहला वर्ष है जब प्रशासन ने आधिकारिक रूप से मेले की अनुमति देने से इनकार किया है।
स्थानीय लोग, विशेष रूप से व्यापारी वर्ग और धार्मिक श्रद्धालु, इस प्रतिबंध से आहत हुए हैं। उनका मानना है कि यह मेला न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है बल्कि इससे जुड़ी आर्थिक गतिविधियां भी उनके जीवनयापन का साधन थीं। हठीले शाह की दरगाह के मेले में आने वालों का दायरा सिर्फ बहराइच या गोंडा तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक अंतर-जनपदीय और अंतर-राज्यीय श्रद्धालु परंपरा थी। यह मेले की सांस्कृतिक समरसता और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है।
लोग मनोकामना पूर्ति, संतान प्राप्ति, बीमारी से मुक्ति, और उर्स के अवसर पर चादर चढ़ाने के उद्देश्य से आते थे। कई परिवार पीढ़ियों से यह परंपरा निभाते आ रहे थे।प्रशासन ने संकेत दिया है कि भविष्य में स्थिति सामान्य होने पर मेले के आयोजन की अनुमति दी जा सकती है। स्थानीय लोगों और दरगाह प्रबंधन समिति ने भी आशा व्यक्त की है कि आने वाले वर्षों में मेला पुनः आयोजित किया जाएगा।
आर्थिक और सामाजिक प्रभाव
रौजा मेले का स्थानीय समाज और अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ता था। स्थानीय व्यापार में होटल, रेहड़ी-पटरी, मिठाई की दुकानें, कपड़े और खिलौनों की दुकानें सभी को मेले से आमदनी होती थी। हस्तशिल्प और कला को बढ़ावा मिलने के साथ मेले में क्षेत्रीय लोककला, नृत्य और संगीत को मंच मिलता था। यहां बाहर से आने वाले लोग आसपास के पर्यटन स्थलों का भी भ्रमण करते थे, जिससे पर्यटन को भी बल मिलता। हठीले शाह की दरगाह और उससे जुड़ा रौजा मेला एक ऐसा सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयोजन रहा है जिसने वर्षों से भारत की सांप्रदायिक सद्भावना को मज़बूती दी है। भले ही इतिहास के कुछ पहलू विवादास्पद हों, लेकिन इस स्थल की महत्ता स्थानीय जनमानस के लिए अत्यधिक है।
आज जब देश धार्मिक ध्रुवीकरण की चुनौतियों से जूझ रहा है, ऐसे आयोजनों की पुनर्स्थापना और संरक्षण की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक है। यह न केवल हमारी साझा सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने में मददगार साबित होगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाएगा कि भारत की आत्मा उसकी विविधता और समरसता में निहित है।