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    Home » History of Nalanda Vishwavidyalaya: मुगलों की आंखों में तिनके सा खटकता था यह विश्वविद्यालय, खुन्नस में असंख्य बेशकीमती पांडुलिपियों को कर दिया था भस्म
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    History of Nalanda Vishwavidyalaya: मुगलों की आंखों में तिनके सा खटकता था यह विश्वविद्यालय, खुन्नस में असंख्य बेशकीमती पांडुलिपियों को कर दिया था भस्म

    By January 15, 2025No Comments10 Mins Read
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    Nalanda Vishwavidyalaya (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    Nalanda University History: धर्म, शिक्षा, योग, परम्परा लगभग हर क्षेत्र में आदिकाल से अव्वल रहने वाले भारत को अनगिनत खूबियों के चलते सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक काल से बिहार (Bihar) के राजगीर में आज से कई सौ साल पहले सन् 450 ईस्वी में स्थापित हुए नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। जिसकी स्थापना गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त प्रथम (Kumaragupta I) ने की थी। तब यह भारत में उच्च शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण और दुनिया भर में प्रसिद्ध केंद्र के तौर पर स्थापित था। अपनी स्थापना के बाद लगभग 700-800 सालों तक प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय देश-दुनिया में ज्ञान की अलख जगाता रहा है।

    शिक्षा के इस मंदिर को महान सम्राट हर्षवर्द्धन के साथ ही समय-समय पर पाल शासकों का भी संरक्षण प्राप्त होता रहा है। वहीं, अब मुगल शासकों द्वार नष्ट किए जा चुके इस नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda Vishwavidyalaya) की तर्ज पर ही बिहार, राजगीर में एक नया नालंदा विश्वविद्यालय बनाया गया है। आधिकारिक रूप से इसकी स्थापना 25 नवंबर, 2010 को ही हो गई थी। इससे पहले नालंदा विश्वविद्यालय के फिर से उद्धार का प्रस्ताव तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने साल 2006 में बिहार की विधानसभा में रखा था।

    साल 2016 में ही प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों को संयुक्त राष्ट्र विरासत स्थल घोषित किया जा चुका है। नालंदा विश्वविद्यालय पर तीन बार आक्रमण हुआ था। परन्तु सबसे विनाशकारी हमला 1193 में हुआ था। परिणामस्वरूप सबसे प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय जल कर नष्ट हो गया। बिहार में पटना से करीब 90 किलोमीटर और बिहार शरीफ से करीब 12 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण में आज भी इस प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय के खंडहर पाए जाते हैं। राजगीर जिले (Rajgir) में स्थित इस विश्वविद्यालय की दीवारों के अवशेष ही इतने चौड़े हैं कि इन पर ट्रक तक चलाया जा सकता है। वैसे खुदाई में यहां 1.5 लाख वर्ग फुट में नालंदा विश्वविद्यालय के निशान मिले हैं पर माना जाता है कि यह पूरे विश्वविद्यालय का केवल 10 प्रतिशत हिस्सा ही है। आइये जानते हैं कि कैसे नालंदा विश्वविद्यालय का पतन हुआ और इसके पीछे क्या कारण थे-

    नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास (Nalanda Vishwavidyalaya Ka Itihas)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    प्राचीन भारत में नालंदा विश्वविद्यालय उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्व विख्यात केन्द्र था। यह दुनिया का सबसे पुराने विश्वविद्यालय (World’s Oldest University) में से एक है। इसकी स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी और महेन्द्रादित्य के खिताब को अपनाया था। यह विश्वविद्यालय पटना, वर्तमान बिहार राज्य से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास स्थित है। महायान बौध धर्म के इस विश्वविद्यालय में हीनयान बौद्ध धर्म के साथ अन्य धर्मों की शिक्षा दी जाती थी और अनेक देशों के छात्र पढ़ने आते थे। यहां तक कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहां लगभग साल भर शिक्षा ली थी। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

    दोनों सातवीं शताब्दी में भारत के दौरे पर आए और अपने देश लौटने के बाद नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में विस्तार से लिखा। इन दोनों चीनी यात्रियों ने नालंदा को विश्व का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय बताया था। इस विश्वविद्यालय की खासियत थी कि यहां पर सभी काम लोकतान्त्रिक प्रणाली (Democratic System) से होते थे। हर फैसला सभी की सहमति से लिया जाता था, जिसके लिए संन्यासियों के साथ शिक्षक और छात्र भी अपने विचार रखते थे।

    ऐसी थी नालंदा विश्वविद्यालय की आंतरिक संरचना (Internal Structure of Nalanda University)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda Vishwavidyalaya) विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। उस समय इसमें तकरीबन 10,000 विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। वहीं लगभग 27,000 से भी अधिक शिक्षकों का स्टाफ था। इसमें शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यार्थी भारत के अलावा दुनिया के विभिन्न देशों से भी आते थे। प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों से पता चलता है कि पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा था। इसमें प्रवेश के लिए एक मेन गेट था। इसके भीतर उत्तर से दक्षिण की ओर कतार में मठ थे और उनके सामने कई भव्य स्तूप और मंदिर बनाए गए थे। इन मंदिरों में भगवान बुद्ध की सुंदर मूर्तियां स्थापित थीं, जो नष्ट हो चुकी हैं।

    खास बात यह है कि नालंदा विश्वविद्यालय के संस्थापक कुमारगुप्त हिंदू थे, फिर भी नालंदा में बौद्ध धर्म को प्रश्रय मिला था। इतिहासकार बताते हैं कि नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों से पता चलता है कि यह स्थापत्य कला का एक अद्भुत नमूना था। इसमें 300 कमरे और सात बड़े-बड़े कक्ष थे। इसमें काफी बड़ा पुस्तकालय था, जिसका नाम धर्म गूंज था, जिसका मतलब है सत्य का पर्वत। नौ मंजिला इस पुस्तकालय में तीन हिस्से थे, जिन्हें रत्नरंजक, रत्नोदधि और रत्नसागर नामों से जाना जाता था। यहां पर एक समय में तीन लाख से भी अधिक किताबें होती थीं। अभिलेखों के अनुसार, नालंदा विश्वविद्यालय को आक्रमणकारियों ने तीन बार नष्ट किया था। लेकिन केवल दो बार ही इसको पुनर्निर्मित किया गया।

    रहना-खाना और पढ़ना, सबकुछ मुफ्त था

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    इस विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों में इतिहास की कई हस्तियां शामिल हैं, जिनमें महान सम्राट हर्षवर्धन, पाल वंश के शासक धर्मपाल, वसुबन्धु, धर्मकीर्ति, आर्यवेद और नागार्जुन के नाम शामिल हैं। इस विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए विद्यार्थियों का चयन मेरिट के आधार पर किया जाता था। इस विश्वविद्यालय की खूबी थी कि यहां पढ़ने वाले छात्रों की रहने खाने की व्यवस्था के साथ पढ़ाई निशुल्क होती थी। किसी भी तरह का शुल्क नहीं देना होता था। एक समय में यहां 10 हजार से ज्यादा विद्यार्थी पढ़ाई करते थे, जिनके लिए 2700 से ज्यादा अध्यापक नियुक्त रहते थे। यहां भारत के अलावा कोरिया, जापान, तिब्बत, चीन, ईरान, इंडोनेशिया, ग्रीस, मंगोलिया समेत कई अन्य देशों के छात्र भी पढ़ने के लिए आते थे। यहां इकोनॉमिक्स, मेडिसिन समेत साहित्य, ज्योतिष शास्त्र, साइकोलॉजी, एस्ट्रोनॉमी, कानून, विज्ञान, युद्धकौशल, इतिहास, गणित, आर्किटेक्चर, लैंग्वेज साइंस जैसे कई विषयों की छात्र शिक्षा हासिल करते थे।

    शिक्षा के मंदिर को इस शासक ने किया अग्नि के हवाले (Nalanda University Destroyed By Khilji)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    पूरी दुनिया में शिक्षा के लिहाज से सबसे एडवांस माने जाने वाले नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda Vishwavidyalaya) को मुगलों द्वारा एक या दो बार नहीं बल्कि तीन पर नष्ट करने की पुर जोर कोशिश की गई। पहला विनाश स्कंदगुप्त (455-467 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान हूण शासक मिहिरकुल ने 5वीं शताब्दी में किया था। लेकिन स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों ने पुस्तकालय की मरम्मत करवाई और एक बड़ी इमारत के साथ सुधार दिया था। दूसरा विनाश 7वीं शताब्दी की शुरुआत में गौदास ने किया था। इस बार, बौद्ध राजा हर्षवर्धन (606-648 ईस्वी) ने विश्वविद्यालय की मरम्मत करवाई थी।

    तीसरा और सबसे विनाशकारी हमला 1193 में हुआ, जब तुर्क शासन कुतुबुद्दीन ऐबक (Qutb ud-Din Aibak) का सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी (Ikhtiyar al-Din Muḥammad Bakhtiyar Khalji) और उसकी सेना ने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) को नष्ट कर किया था। इतिहास के जानकार बताते हैं कि साल 1193 में बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय पर आक्रमण किया और यहां पर आग लगवा दी थी।

    तब नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखी किताबें ही कई सप्ताह तक जलती रहीं और आग नहीं बुझ पाई थी। इस आक्रमण के दौरान नालंदा में काम करने वाले इस आग में करीब 9 मिलियन पांडुलिपियां जलकर राख हो गई थीं। इतिहासकारों का मानना है कि बख्तियार खिलजी ने भारत से बौद्ध धर्म, ज्ञान और आयुर्वेद की जड़ों को खत्म करने का फ़ैसला किया था।

    बख्तियार खिलजी और उसकी तुर्की सेना ने नालंदा के हज़ारों धार्मिक विद्वानों और भिक्षुओं को भी जलाकर मार दिया था। ऐसा माना जाता है धार्मिक ग्रंथों के जलने के कारण भारत में एक बड़े धर्म के रूप में उभरते हुए बौद्ध धर्म को सैकड़ों वर्षों तक का झटका लगा था और तब से लेकर अब तक यह पूर्ण रूप से इन घटनाओं से नहीं उबर सका है।

    बख्तियार खिलजी की खिसियाहट बनी नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने की वजह

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    नालंदा विश्वविद्यालय तीसरा प्रहार सह नहीं सका और पूरी तरह से नष्ट हो गया। इसके पीछे मुगल शासक बख्तियार खिलजी की बहुत बड़ी खिसियाहट थी। असल में बख्तियार खिलजी ने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था। एक बार वह काफी बीमार पड़ा। उसने अपने हकीमों से काफी इलाज करवाया मगर वह ठीक नहीं हो सका और मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया। इसी दौरान किसी ने उसको सलाह दी कि वह नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को दिखाए और इलाज करवाए तो शायद उनका जीवन बच सकता है। परन्तु कट्टर पंथी खिलजी इसके लिए कतई तैयार नहीं था। उसे अपने इस्लाम धर्म को मानने वाले हकीमों पर ज्यादा भरोसा था। वह यह मानने को तैयार नहीं था कि भारतीय वैद्य उसके हकीमों से ज्यादा ज्ञानी और बुद्धिमान हैं।

    लेकिन अपनी जान बचाने के लिए उसको नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को बुलवाना पड़ा। जिनके आने पर बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के सामने एक बेतुकी सी शर्त रखी और कहा कि मैं उनके द्वारा दी गई किसी भी प्रकार की औषधि नहीं खाऊंगा। बिना दवा दिए ही आचार्य राहुल श्रीभद्र उनके रोग को ठीक करें। वैद्यराज ने सोच कर उसकी शर्त मान ली और कुछ दिनों के बाद वो खिलजी के पास एक कुरान लेकर पहुंचे और कहा कि इस कुरान की पृष्ठ संख्या इतने से इतने तक पढ़ लीजिये तो आप स्वस्थ हो जायेंगे। बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के बताए अनुसार, कुरान को पढ़ा और वह कुछ दिनों के भीतर पूरी तरह से स्वस्थ हो गया था।

    ऐसा कहा जाता है कि राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पन्नों पर एक दवा का लेप लगा दिया था, वह थूक के साथ उन पन्नों को पढ़ता गया और ठीक होता चला गया।�खिलजी इस बात को जानने के बाद खिसियाहट से भर गया और बदला लेने के लिए परेशान रहने लगा। उसको यह बात बहुत ज्यादा तकलीफ दे रही थी कि एक भारतीय विद्वान और शिक्षक को उनके हकीमों से ज्यादा ज्ञान कैसे है। फिर उसने देश से ज्ञान, बौद्ध धर्म और आयुर्वेद की जड़ों को नष्ट करने का फैसला लिया। परिणाम स्वरूप खिलजी ने नालंदा के महान पुस्तकालय में आग लगा दी और लगभग 9 मिलियन पांडुलिपियों को जला दिया।

    इस बात का जिक्र तबाकत-ए-नासिरी, फारसी इतिहासकार ’मिनहाजुद्दीन सिराज’ द्वारा रचित पुस्तक में भी किया गया है। जिसके अनुसार मुहम्मद ग़ोरी की भारत विजय तथा तुर्की सल्तनत के आरम्भिक इतिहास की लगभग 1260 ई. तक की जानकारी मिलती है। मिनहाज ने अपनी इस कृति को ग़ुलाम वंश के शासक नसीरूद्दीन महमूद को समर्पित किया था। उस समय मिनहाज दिल्ली का मुख्य क़ाज़ी था। इस पुस्तक में ’मिनहाजुद्दीन सिराज’ ने नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में भी बताया है कि खिलजी और उसकी तुर्की सेना ने हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को जला कर मार दिया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि बौद्ध धर्म का विस्तार हो। वह इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना चाहता था। नालंदा की लाइब्रेरी में उसने आग लगवा दी, सारी पांडुलिपियों को जला दिया और कई महीनों तक आग जलती रही थीं।

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