
India Unique Festivals and Fairs
India Unique Festivals and Fairs
India Top 10 Unique Festivals: भारत विविधताओं का देश है – यहाँ हर कोने में एक अलग संस्कृति, भाषा, परंपरा और त्योहार देखने को मिलता है। जहाँ होली, दिवाली, ईद, और क्रिसमस जैसे बड़े पर्वों के बारे में सभी जानते हैं, वहीं भारत के कुछ कोनों में ऐसे भी मेले और त्योहार मनाए जाते हैं जो अत्यंत अनोखे, रहस्यमयी और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होते हैं, लेकिन अधिकांश लोग उनसे परिचित नहीं होते। ये आयोजन न केवल धार्मिक विश्वासों से जुड़े होते हैं बल्कि कई बार वे स्थानीय जीवनशैली, कृषि, प्रकृति और लोकविश्वासों का प्रतिनिधित्व भी करते हैं।
इस लेख में हम भारत के कुछ ऐसे अनसुने और अनोखे मेलों और त्योहारों की चर्चा करेंगे, जो भले ही मुख्यधारा की सुर्खियों से दूर हैं, लेकिन उनके महत्व, उत्सवधर्मिता और अनोखी परंपराओं के कारण ये अद्भुत हैं।
1. झूलेलाल जयंती – सिंधी समुदाय का विशेष पर्व

झूलेलाल जयंती, जिसे चेटीचंड के नाम से भी जाना जाता है, सिंधी समुदाय का एक अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व है। यह त्योहार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है और इसे सिंधी नववर्ष की शुरुआत के रूप में भी देखा जाता है। इस दिन सिंधी समाज भगवान झूलेलाल के जन्मोत्सव को श्रद्धा और उल्लास से मनाता है, जिन्हें सिंधु नदी के देवता और वरुण देव के अवतार के रूप में पूजा जाता है। राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में, जहाँ सिंधी जनसंख्या अधिक है, वहाँ इस पर्व को बड़े उत्सव के रूप में मनाया जाता है। झूलेलाल की प्रतिमा को रथ पर सजाकर नगर भ्रमण कराया जाता है, भक्तजन सिंधु भाषा में भजन-कीर्तन करते हैं और नदियों में दीप प्रवाहित कर जल देवता को नमन करते हैं। इस पर्व में पारंपरिक वेशभूषा, स्वादिष्ट व्यंजन, और मंदिरों व घरों में विशेष पूजा की जाती है। झूलेलाल जयंती न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह सिंधु सभ्यता और सिंधी संस्कृति की गहराई से जुड़ी हुई एकता, भाईचारे और सांस्कृतिक गौरव का भी उत्सव है।
2. भगोरिया मेला – आदिवासी प्रेम का मेला (मध्य प्रदेश)

भगोरिया मेला मध्य प्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर जिलों में हर वर्ष होली से ठीक पहले आयोजित होने वाला एक अद्वितीय आदिवासी उत्सव है, जिसे भील और भिलाला जनजातियाँ बड़े उत्साह से मनाती हैं। यह मेला केवल एक पारंपरिक आयोजन नहीं, बल्कि प्रेम और स्वतंत्रता का जीवंत प्रतीक है। इसे “प्रेम मेला” भी कहा जाता है क्योंकि यह आदिवासी युवाओं के लिए प्रेम और विवाह की सामाजिक स्वीकृति का अवसर प्रदान करता है। पारंपरिक और रंगीन वेशभूषा में सजे-धजे युवक-युवतियाँ इस मेले में भाग लेते हैं, जो आदिवासी संस्कृति की जीवंतता और सौंदर्य को दर्शाता है। यदि कोई युवक किसी युवती को पसंद करता है और युवती भी सहमत होती है, तो वे एक-दूसरे को गुलाल लगाकर अपने प्रेम और विवाह की सहमति व्यक्त करते हैं। यह परंपरा आदिवासी समाज की सहजता, स्वाभाविक प्रेम और सामाजिक स्वतंत्रता का प्रतीक है। भगोरिया मेला न केवल एक उत्सव है, बल्कि यह आदिवासी जीवन दर्शन, उनके मेलजोल और संस्कृति की गहराई का भी सशक्त परिचायक है।
3. थिमिथी उत्सव – आग पर चलने वाला उत्सव (तमिलनाडु)

थिमिथी, जिसे तमिल में “थीमिथि” कहा जाता है, दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु में द्रौपदी अम्मन मंदिरों में मनाया जाने वाला एक साहसिक और आध्यात्मिक त्योहार है। यह परंपरा कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल के कुछ क्षेत्रों में भी देखने को मिलती है। थिमिथी में श्रद्धालु जलती हुई आग की लपटों पर नंगे पांव चलते हैं, जो भक्ति, संकल्प और आत्मबल का एक अद्वितीय प्रदर्शन है। इस अनुष्ठान को महाभारत की उस घटना से जोड़ा जाता है जब द्रौपदी ने अन्याय के विरुद्ध अपनी आस्था और साहस को अग्नि के समक्ष प्रस्तुत किया था। यद्यपि महाभारत में इस परीक्षा का वर्णन भिन्न है, फिर भी थिमिथी को द्रौपदी के साहस, त्याग और भक्ति का प्रतीक माना जाता है। श्रद्धालुओं का मानना है कि यदि उनकी आस्था सच्ची हो तो अग्नि उन्हें छू भी नहीं सकती। यह त्योहार न केवल धार्मिक समर्पण का प्रतीक है, बल्कि यह समुदाय में एकता, साहस और सांस्कृतिक पहचान की भावना को भी गहराई से उजागर करता है।
4. करनी माता मेला – चूहों वाला मंदिर (राजस्थान)

राजस्थान के बीकानेर जिले के देशनोक गांव में स्थित करणी माता मंदिर अपनी अनोखी धार्मिक मान्यताओं और अद्वितीय परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर विशेष रूप से उन हजारों चूहों के कारण जाना जाता है जो यहाँ खुलेआम विचरण करते हैं और जिन्हें ‘काबा’ अर्थात् पवित्र आत्माएं माना जाता है। श्रद्धालुओं का विश्वास है कि इन चूहों में करणी माता के अनुयायियों की आत्माएं निवास करती हैं, इसलिए उन्हें दूध, प्रसाद और अन्य खाद्य सामग्री अर्पित की जाती है। करणी माता को राजस्थान में शक्ति और संरक्षण की देवी के रूप में पूजा जाता है, और यह मंदिर उनकी भक्ति और श्रद्धा का एक प्रमुख केंद्र है। यहाँ हर वर्ष दो बार – एक बार नवरात्रि में और दूसरी बार चैत्र मास में – भव्य मेलों का आयोजन होता है, जिनमें दूर-दराज़ से श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुँचते हैं। इन मेलों के दौरान मंदिर में विशेष पूजन, आरती और भंडारे आयोजित किए जाते हैं, जो इस स्थल के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को और भी सशक्त बनाते हैं।
5. जेट लांदिंग मेला – मेघालय का बादलों वाला पर्व

जेट लांदिंग मेला मेघालय के जयंतिया हिल्स क्षेत्र में मनाया जाने वाला एक प्रमुख पारंपरिक उत्सव है, जिसे विशेष रूप से जयंतिया जनजाति द्वारा आयोजित किया जाता है। यह मेला प्रकृति, जलवायु और समुदाय की समृद्ध परंपराओं का प्रतीक है तथा नई फसल के स्वागत और वर्षा ऋतु के आगमन के रूप में उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। इस मेले की सांस्कृतिक विशेषताएं लोकनृत्य, पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों की ध्वनि, और स्थानीय व्यंजनों की विविधता में दिखाई देती हैं, जो इस आयोजन को जीवंत और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाती हैं। यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह त्योहार खासी जनजाति का नहीं है, क्योंकि खासी और जयंतिया दोनों मेघालय की प्रमुख जनजातियाँ होने के बावजूद, उनके सांस्कृतिक पर्व अलग-अलग होते हैं। जेट लांदिंग मेला, जयंतिया समाज की प्रकृति के प्रति आस्था, सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर का एक सुंदर उदाहरण है, जिसे पीढ़ियों से उत्सव और परंपरा के रूप में संजोया गया है।
6. तियोहार – खोंगजोम दिवस (मणिपुर)

खोंगजोम दिवस हर वर्ष 23 अप्रैल को मणिपुर में उस ऐतिहासिक युद्ध की स्मृति में मनाया जाता है, जो 1891 में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया था। खोंगजोम युद्ध मणिपुरी वीरों के अदम्य साहस, बलिदान और स्वतंत्रता के प्रति उनके समर्पण का प्रतीक है। इस युद्ध में मणिपुर के योद्धाओं ने ब्रिटिश सेना के विरुद्ध वीरतापूर्वक संघर्ष किया, जो राज्य की अस्मिता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ा गया एक निर्णायक युद्ध था। खोंगजोम दिवस पर राज्यभर में कार्यक्रमों का आयोजन कर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है, और उनकी वीरता का सम्मान किया जाता है। यह दिन न केवल इतिहास की स्मृति है, बल्कि युवाओं को देशभक्ति, स्वराज और बलिदान के आदर्शों से परिचित कराने का भी माध्यम है। खोंगजोम युद्ध मणिपुर की स्वतंत्रता संग्राम गाथा का गौरवशाली अध्याय है, जो आज भी वहां के लोगों के साहस, संघर्ष और आत्मगौरव को जीवंत बनाए हुए है।
7. कुड्डल संगम मेला – बसवेश्वर का आदर्श (कर्नाटक)

बसव जयन्ती भगवान बसवेश्वर, जिन्हें श्रद्धा से बसवन्ना भी कहा जाता है, की स्मृति में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व है। यह वीरशैव धर्म के प्रवर्तक माने जाते हैं, जिन्होंने सामाजिक समरसता, जातिविहीन समाज और आध्यात्मिक समर्पण का संदेश दिया। यह पर्व मुख्यतः कर्नाटक और महाराष्ट्र के वीरशैव समुदायों में बड़े उत्साह से हर वर्ष मनाया जाता है। बसव जयन्ती के दिन भजन-कीर्तन, संतों की संगोष्ठियाँ, धार्मिक प्रवचन और वीरशैव सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के कार्यक्रम आयोजित होते हैं। कर्नाटक के प्रसिद्ध तीर्थस्थल कुडल संगम में इस दिन लाखों श्रद्धालु भगवान बसवेश्वर के दर्शन और पूजा के लिए एकत्र होते हैं। यह दिन केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार, आध्यात्मिक जागरूकता और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है, जो बसवन्ना के विचारों को आज भी जीवंत बनाए हुए है।
8. बस्तर दशहरा – सबसे लंबा दशहरा (छत्तीसगढ़)

बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में मनाया जाने वाला एक अनूठा और अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है, जो लगभग 75 दिनों तक चलता है इस प्रकार यह भारत का सबसे लंबा चलने वाला पर्व माना जाता है। यह भव्य आयोजन देवी दंतेश्वरी को समर्पित है, जो बस्तर क्षेत्र की कुलदेवी और आदिवासी समुदाय की आराध्य देवी मानी जाती हैं। बस्तर दशहरा पारंपरिक दशहरे से भिन्न है, क्योंकि इसमें रामलीला या रावण दहन नहीं होता, बल्कि पूरी आस्था देवी की शक्ति और आदिवासी परंपराओं पर केंद्रित होती है। इस दौरान विभिन्न जनजातियाँ पारंपरिक वाद्ययंत्रों, नृत्यों, भव्य झांकियों और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से अपनी श्रद्धा प्रकट करती हैं। यह पर्व बस्तर की सांस्कृतिक विविधता, धार्मिक आस्था और जनजातीय जीवनशैली का जीवंत प्रतीक है, जो सामाजिक एकता और सांस्कृतिक गर्व की भावना को भी मजबूत करता है।
9.मवेशी मेला – सोनपुर मेला (बिहार)

सोनपुर मेला, जिसे हरिहर क्षेत्र मेला या स्थानीय भाषा में ‘छत्तर मेला’ भी कहा जाता है, हर साल कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर बिहार के सोनपुर में, गंगा और गंडक नदियों के संगम पर आयोजित होता है। यह मेला धार्मिक, सांस्कृतिक और व्यावसायिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। एशिया के सबसे बड़े पशु मेलों में शामिल यह आयोजन ऐतिहासिक रूप से हाथी, घोड़े, बैल, गाय और ऊँट जैसे जानवरों की खरीद-बिक्री के लिए प्रसिद्ध रहा है। हालांकि वर्तमान में हाथियों की बिक्री पर कानूनी प्रतिबंध है, फिर भी वे प्रदर्शनी के रूप में मेले की शोभा बढ़ाते हैं। मेले में पारंपरिक झूले, लोकनाट्य, सर्कस, सांस्कृतिक कार्यक्रम, थिएटर शो और कपड़ों का विशाल बाजार भी लगता है, जो इसे और अधिक जीवंत और रंगीन बनाते हैं। इसका ऐतिहासिक गौरव भी कम नहीं – चंद्रगुप्त मौर्य, अकबर और वीर कुँवर सिंह जैसे शासक यहां से पशुओं की खरीदारी कर चुके हैं, जो इस मेले की ऐतिहासिक महत्ता को दर्शाता है।
10. मेडरू फेस्टिवल – नागालैंड का कृषि पर्व
नागालैंड की अंगामी जनजाति द्वारा मनाया जाने वाला मेडरू पर्व एक पारंपरिक कृषि उत्सव है, जो फसल की बुआई से पहले मनाया जाता है। यह मार्च के महीने में मनाया जाता है और इसमें लोग ईश्वर से अच्छी फसल की प्रार्थना करते हैं।
पारंपरिक गीत, नृत्य, लोक वेशभूषा और सामूहिक भोज इस उत्सव का हिस्सा होते हैं। यह पर्व न केवल कृषि आधारित संस्कृति को सम्मान देता है बल्कि जनजातीय जीवनशैली को भी उजागर करता है।