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    Home » Rajasthan Ki Aahad Sabhyata: हड़प्पा सभ्यता से मिलती-जुलती राजस्थान की आहड़ संस्कृति, ताम्रपाषाण सभ्यता जो अभी भी गुम है
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    Rajasthan Ki Aahad Sabhyata: हड़प्पा सभ्यता से मिलती-जुलती राजस्थान की आहड़ संस्कृति, ताम्रपाषाण सभ्यता जो अभी भी गुम है

    Janta YojanaBy Janta YojanaApril 17, 2025No Comments8 Mins Read
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    Rajasthan Ki Aahad Sabhyata Ka Itihas

    Rajasthan Ki Aahad Sabhyata Ka Itihas

    Rajasthan Ki Aahad Sabhyata Ka Itihas: जब हम हड़प्पा सभ्यता (Indus Valley Civilisation) की बात करते हैं, तो अक्सर राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले (Hanumangarh, Rajasthan) के कालीबंगा स्थल (Kalibangan) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि राजस्थान में ही ऐसी 100 से अधिक पुरातात्विक साइटें हैं, जो एक अन्य प्राचीन सभ्यता आहड़ संस्कृति से जुड़ी हुई हैं? ये स्थल मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, यानी मेवाड़ क्षेत्र में फैले हुए हैं, जिसमें उदयपुर, बांसवाड़ा, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जैसे जिले शामिल हैं।

    आहड़ संस्कृति (Aahad Civilization)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    आहड़ संस्कृति, भारत की प्रारंभिक ताम्रपाषाण संस्कृतियों (Chalcolithic Cultures) में से एक मानी जाती है। यह संस्कृति मुख्य रूप से कृषि आधारित थी और इसका उद्भव लगभग 3000 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व के बीच हुआ माना जाता है। इस संस्कृति के केंद्र मेवाड़ क्षेत्र में थे, जहां पुरातात्विक दृष्टि से अनेक समृद्ध स्थल पाए गए हैं।

    विशेषज्ञों के अनुसार, यह संस्कृति न केवल अपने समय की एक विकसित जीवनशैली को दर्शाती है, बल्कि यह हमें यह भी दिखाती है कि राजस्थान जैसे क्षेत्र में जलवायु, नदी तंत्र, और स्थानीय संसाधनों के सहारे किस तरह मानव सभ्यता ने अपने जीवन को आकार दिया।

    स्थलों की विविधता और बनास नदी की भूमिका

    अब तक की गई पुरातात्विक खुदाइयों से पता चलता है कि आहड़ संस्कृति के लगभग 111 स्थल अब तक खोजे जा चुके हैं। इनमें से अधिकांश स्थल बनास नदी घाटी में स्थित हैं। यह नदी राजस्थान के कई भागों से होकर बहती है और आगे जाकर पूर्वी राजस्थान में चंबल नदी की सहायक नदी बन जाती है।

    बनास नदी (Banas River) के किनारे उपजाऊ भूमि और जलस्रोतों की उपलब्धता के कारण ही यहाँ एक समृद्ध कृषि संस्कृति का विकास हुआ। इसी कारण कई बार आहड़ संस्कृति को “बनास संस्कृति” (Banas Sanskriti) भी कहा जाता है। यह नाम इस तथ्य को दर्शाता है कि सभ्यता नदियों के किनारे ही पनपती है, जैसे कि सिंधु घाटी की सभ्यताएँ।

    ‘आहड़’ से नामकरण का महत्व (Importance Of Naming With ‘Aahad‘)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    इस संस्कृति का नामकरण ‘आहड़’ स्थल पर आधारित है, जहां इस संस्कृति के अवशेष सबसे पहले खोजे गए थे। यह स्थल राजस्थान के उदयपुर जिले (Udaipur) में स्थित है। पुरातात्विक परंपरा के अनुसार, किसी भी प्राचीन संस्कृति का नाम प्रायः उसी स्थान पर आधारित होता है, जहां उसकी पहचान सबसे पहले हुई हो। इस परंपरा से उस स्थान की विशिष्टता और पहचान बनी रहती है। ‘आहड़’ नाम सिर्फ़ एक भौगोलिक संकेत नहीं है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक प्रतीक बन चुका है जो हमें उस काल के जीवन, समाज और संस्कृति की झलक प्रदान करता है।

    क्यों महत्वपूर्ण है आहड़ संस्कृति (Why is Aahad Culture Important?)

    आहड़ संस्कृति (Ahar Culture) का महत्व इस बात में निहित है कि यह भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीनतम कृषि सभ्यताओं (Oldest Agricultural Civilizations) में से एक थी। यह संस्कृति यह प्रमाणित करती है कि हड़प्पा जैसी महान सभ्यताओं के समानांतर राजस्थान के क्षेत्र में भी एक समृद्ध और संगठित सामाजिक व्यवस्था अस्तित्व में थी।

    इस संस्कृति के पुरातात्विक अवशेष, जैसे– मिट्टी के बर्तन, ताम्र उपकरण, अनाज संग्रहण के भंडार, घरों की संरचना– यह सब बताते हैं कि यहाँ के लोग न केवल कृषि-कुशल थे, बल्कि वे तकनीकी और सामाजिक रूप से भी विकसित थे।

    राजस्थान के उदयपुर जिले (Udaipur) में स्थित आहड़ एक छोटा-सा ऐतिहासिक शहर (Ahar) है, जो इसी नाम की आहड़ नदी के पश्चिमी तट पर बसा हुआ है। यह स्थल आधुनिक उदयपुर शहर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन काल में आहड़ को ‘अतपुर’ या ‘आगतपुर’ कहा जाता था। प्राचीन जैन साहित्य और 10वीं शताब्दी के सोमेश्वर मंदिर के अभिलेखों में इस नगर का उल्लेख मिलता है, जिससे इसकी प्राचीनता प्रमाणित होती है।

    तकनीकी रूप से उन्नत, कृषि-आधारित सभ्यता

    खुदाई से प्राप्त सामग्री इस बात की पुष्टि करती है कि आहड़ क्षेत्र में एक तांबा उपयोग करने वाली उन्नत सभ्यता विकसित हुई थी, जो मुख्यतः कृषि और पशुपालन पर आधारित थी। यहाँ से प्राप्त तांबे के औज़ार, मिट्टी के बर्तन, सरकारी या सार्वजनिक भवनों के अवशेष और अन्य वस्तुएं इस बात का प्रमाण हैं कि यह संस्कृति न केवल आर्थिक रूप से सशक्त थी, बल्कि सामाजिक और तकनीकी दृष्टि से भी काफी विकसित थी।

    खेती, पशुपालन और धातु-शिल्प का समृद्ध चित्र

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    पुरातत्वीय साक्ष्यों के अनुसार, आहड़ की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से खेती पर आधारित थी। खुदाई में धान की खेती, पालतू जानवरों जैसे – बैल, सूअर, कुत्ते, भेड़ और बकरी की हड्डियाँ मिली हैं। इसके अलावा, शिकारी जीवन के संकेत भी मिले हैं, जैसे– हिरण, जंगली सूअर आदि की हड्डियाँ। 

    यहां से तांबे की बनी वस्तुएं जैसे– सपाट कुल्हाड़ियाँ, अंगूठियां और चूड़ियां, तार और ट्यूब भी मिली हैं। एक स्थान पर तांबे की तलछट और राख से भरा गढ्ढा मिला, जिससे यह संकेत मिलता है कि वहाँ तांबे को पिघलाने का काम किया जाता था।

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    टेराकोटा और अन्य कलात्मक वस्तुएं

    आहड़ से मिली वस्तुओं में टेराकोटा की अनेक कलाकृतियाँ भी शामिल हैं, जैसे:-

    मनके

    चूड़ियां और झुमके

    जानवरों की छोटी मूर्तियाँ

    पत्थर, शंख और अस्थि से बनी सजावटी वस्तुएं

    एक विशेष प्रकार का राजावर्त नग (lapis lazuli) से बना मनका भी मिला है, जो इस बात की ओर संकेत करता है कि यहां व्यापारिक संपर्क संभवतः उत्तर-पश्चिम भारत या मध्य एशिया से भी थे।

    बर्तन कला में विविधता

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    आहड़ संस्कृति की एक और विशिष्ट विशेषता है यहाँ के मिट्टी के बर्तनों की विविधता। खुदाई में कम से कम आठ प्रकार के बर्तन मिले हैं। इनमें सबसे विशिष्ट हैं–

    काले और लाल रंग के बर्तन, जिन पर सफेद पॉलिश की गई थी।

    भूरा रंग लिए हुए बर्तन

    मोटे और महीन किनारों वाले भंडारण पात्र

    काले-लाल बर्तनों की विशिष्टता और निर्माण तकनीक

    आहड़-बनास संस्कृति की सबसे प्रमुख विशेषताओं में से एक थी—सफेद पॉलिश वाले काले-लाल रंग के बर्तन, जो इस संस्कृति की पहचान बन गए। ये बर्तन एक विशेष उलटी तकनीक (inverted firing technique) से बनाए जाते थे। इस प्रक्रिया में बर्तनों को उलटा रखकर पकाया जाता था जिससे वह हिस्सा जो हवा के संपर्क में नहीं आता था, काला हो जाता था, जबकि खुले हिस्से लाल रंग में बदल जाते थे। बाद में इन पर सफेद रंग की सजावटी डिज़ाइन बनाई जाती थी। यह तकनीकी दक्षता आहड़ के कारीगरों की उच्च शिल्पकला का प्रमाण है।

    आहड़ संस्कृति के अन्य प्रमुख पुरातात्विक स्थल 

    आहड़ संस्कृति का विस्तार केवल आहड़ तक सीमित नहीं था। इसके अन्य प्रमुख केंद्र थे:-

    गिलुण्ड (राजसमंद ज़िला)

    बालाथल (उदयपुर ज़िला)

    ओझियाना (भीलवाड़ा ज़िला)

    गिलुण्ड:

    यहां 1950 के दशक और 1960 के प्रारंभ में खुदाई की गई। बाद में दक्कन कॉलेज (पुणे) और पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय की टीम ने मिलकर गहराई से खुदाई की. यहां की वास्तुकला भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक विशाल सार्वजनिक भवन मिला है जिसकी दीवारें उत्कृष्ट मिट्टी से बनी थीं। भवन में मिट्टी के सौ से अधिक सांचे, भट्टियां, जली हुई ईंटें और मिट्टी के भंडारण पात्र भी मिले हैं। ये अवशेष इस क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों और सामाजिक संगठन की पुष्टि करते हैं।

    बालाथल:

    यह स्थल आहड़ संस्कृति के अध्ययन में अत्यंत महत्वपूर्ण है। 1994 में खुदाई आरंभ हुई थी. यहां से मिली सामग्री से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में मिश्रित अर्थव्यवस्था थी। यहां से मिले इंद्रगोप (कार्नेलियन) और राजवर्त (लैपिज़ लैज़ुली) जैसे उपरत्न यह दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र के हड़प्पा और बदख़्शां (अफ़ग़ानिस्तान) जैसे क्षेत्रों से व्यापारिक संबंध थे। खासकर, यहां के कार्नेलियन मनके गुजरात के हड़प्पा संस्कृति से बहुत मिलते-जुलते हैं।

    ओझियाना:

    इस स्थल की खुदाई में टेराकोटा की बैलों की मूर्तियाँ बड़ी संख्या में मिली हैं, जिन्हें “ओझियाना बैल” कहा जाता है। ये मूर्तियाँ आकार और रंग में विविध हैं – कुछ प्राकृतिक शैली में हैं, तो कुछ शैलीबद्ध। इनके धार्मिक अनुष्ठानों या उत्सवों में उपयोग का अनुमान लगाया गया है। इसके अलावा यहां गाय की टेराकोटा मूर्तियाँ भी पाई गईं हैं, जो उपासना परंपरा की ओर संकेत करती हैं।

    आहड़ संस्कृति की सामाजिक संरचना और अर्थव्यवस्था

    आहड़ सभ्यता की खुदाई के समय का दृश्य (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    आहड़ सभ्यता की खुदाई के समय का दृश्य (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

    यहां से प्राप्त औजारों, बर्तनों और कलाकृतियों की विविधता से स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियां और मानक उत्पादन प्रणाली विकसित हो चुकी थीं। मिट्टी के बर्तनों की कम-से-कम आठ प्रकार की किस्में पाई गई हैं, जिनमें से काले और लाल रंग के बर्तन, सफेद पॉलिश के साथ, सबसे विशिष्ट हैं।

    हालांकि शहरी संगठन की दृष्टि से आहड़ संस्कृति सिंधु सभ्यता जितनी विकसित नहीं थी, लेकिन इसकी कृषि, धातुकर्म और व्यापारिक संबंधों ने भारतीय उपमहाद्वीप की सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    बर्तनों में विविधता आहड़ की वस्तु संस्कृति की विशेषता है। यहां बर्तनों की कम से कम आठ क़िस्में मिली हैं। काले और लाल रंग के बर्तन आहड़ संस्कृति की विशिष्टता है।बर्तनों की अन्य क़िस्मों में काले और लाल रंग का बर्तन जिस पर सफ़ेद रंग की पॉलिश है, भूरा बर्तन, चमड़े के बर्तन आदि शामिल हैं.आहड़-बनास संस्कृति न केवल राजस्थान की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक थी, बल्कि यह भारत की धातु युगीन सभ्यताओं में भी अग्रणी रही। इसके पुरातात्विक साक्ष्य हमें उस युग की तकनीकी दक्षता, सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक समृद्धि की झलक देते हैं। यह संस्कृति आज भी शोध और अध्ययन का प्रमुख विषय बनी हुई है। आशा की जाती है कि आने वाले वर्षों में आहड़ संस्कृति के और भी स्थल उजागर होंगे, जो राजस्थान और भारत के प्राचीन इतिहास को और भी स्पष्ट करेंगे।

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