Rani Lakshmibai Ka Jivan Parichay Hindi: भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। इनमें महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे प्रसिद्ध नेता शामिल हैं। तो वही सरदार पटेल और तात्या टोपे जैसे नायक भी हैं, जिन्होंने अपने संघर्ष और बलिदान से भारतीय स्वतंत्रता की नींव रखी। और उन्ही नामों में से एक नाम रानी लक्ष्मीबाई ( Rani Lakshmi Bai) का है।
भारत के इतिहास की सबसे साहसी और प्रेरणादायक नायिकाओं में से एक रानी लक्ष्मीबाई , 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक अहम् और महत्वपूर्ण किरदार हैं। जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपनी देशमूमि के लिए ख़ुशी – ख़ुशी शहीद हो गईं। वह न केवल भारतीय इतिहास का गौरव है बल्कि देशभक्ति और वीरता का अद्भुत उदाहरण भी है।
आज न्यूज ट्रैक के जरिये हम इस वीरांगना के बारे में जानने की कोशिश करेंगे!
कैसा था झाँसी की रानी का प्रारंभिक जीवन ?
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को वाराणसी (जो पहले बनारस के नाम से जाना जाता था) में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका तांबे था। प्यार से उन्हें मनु के नाम से बुलाया जाता था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे और उनकी माता का नाम भागीरथी सापरे (भागीरथी बाई) था। उनके माता-पिता महाराष्ट्र राज्य के रत्नागिरी जिले के गुहागर तालुका के तांबे गांव से थे।
रानी लक्ष्मीबाई केवल 5 वर्ष की थीं, जब उनकी माता का निधन हो गया था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत तांबे पेशवा बाजीराव द्वितीय के अधीन एक सैन्य कमांडर के तौर पर बिथूर जिले में स्थित थे। तथा कल्याणप्रांत के युद्ध में भी उन्होंने एक कमांडर तौर पर कार्य किया। रानी लक्ष्मीबाई को उनके घर पर ही पढ़ने और लिखने की शिक्षा दी गई थी।तथा उन्हें उनके बचपन के दोस्त नाना साहिब और शिक्षक तांत्या टोपे के साथ शूटिंग, घुड़सवारी, तलवारबाजी और मल्लखम्ब जैसे युद्ध कौशल भी सिखाए गए थे। अन्य बच्चों की तुलना में रानी लक्ष्मीबाई अधिक स्वतंत्र और सशक्त थीं।
झाँसी की रानी बनने का सफर
मई 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ महज 14 साल की उम्र में मणिकर्णिका तांबे का विवाह हुआ। और इस तरह रानी लक्ष्मीबाई झांसी की रानी बन गईं। शादी के बाद ही उनका नाम बदलकर मणिकर्णिका से लक्ष्मीबाई रखा गया ।
सितंबर 1851 में, रानी लक्ष्मीबाई ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम दमोदर राव रखा गया। लेकिन दुर्भाग्यवश उनके बेटे का चार महीने की आयु में एक दीर्घकालिक बीमारी से निधन हो गया। जिसके बाद ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारी की उपस्थिति में महाराज गंगाधर राव ने उनके चचेरे भाई के बेटे आनंद राव को गोद लिया था। महाराज की मृत्यु से एक दिन पहले ही, आनंद राव का नाम बदलकर दमोदर राव रखा गया। महाराज ने एक पत्र के माध्यम से उनके बच्चे को सम्मान के साथ रखने का तथा झांसी का शासन उनकी विधवा रानी लक्ष्मीबाई को, उनके जीवनकाल के लिए सौंपने का निर्देश दिया था।
ब्रिटिश का क़ब्ज़ा
21 नवंबर, 1853 में महाराज गंगाधर राव की मृत्यु बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी के तहत लाप्स के सिद्धांत को लागू किया। इसके परिणामस्वरूप उनके दत्तक पुत्र का अस्वीकार करते हुए, दमोदर राव के सिंहासन पर बैठने का अधिकार नकारा गया और 27 फरवरी, 1854 को झांसी राज्य पर अंग्रेजों ने अधिकार की घोषणा की।
झाँसी के लिए संघर्ष
जब रानी लक्ष्मीबाई को इसकी जानकारी दी गई, तो उन्होंने “मैं अपनी झांसी नहीं दूँगी” का उद्घोष किया। 7 मार्च, 1854 को झाँसी पर अंग्रेजों ने कब्ज़ा कर लिया। तथा रानी लक्ष्मीबाई को 60,000 रुपये वार्षिक पेंशन देने का प्रस्ताव देते हुए महल और किले को छोड़ने का आदेश दिया गया। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के इस आदेश का विरोध करते हुए झांसी की रक्षा के लिए संघर्ष जारी रखा।
1857 का संग्राम
1857 का विद्रोह, जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह था। 10 मई, 1857 को मेरठ से विद्रोह शुरू हुआ, जो दिल्ली, झांसी, कानपुर और लखनऊ तक फैल गया।
विद्रोह की खबर जब झांसी पहुंची, तो रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों से अपनी और राज्य की रक्षा के लिए सैनिकों की मदद मांगी। ब्रिटिश राज ने रानी को किले और राज्य से बाहर जाने का आदेश दिया, जिसे रानी ने नकारा और युद्ध की तैयारी की।
रानी लक्ष्मीबाई ने क़िले की दीवारों पर तोपे लगवाई , जिनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन और नालदार प्रमुख थीं। रानी ने अपने महल की सोने-चांदी की वस्तुएं तोप के गोले बनाने के लिए दे दीं। रानी ने किले को मजबूत बनाने के लिए हर कदम उठाया और युद्ध की पूरी तैयारी की।
अंग्रेज़ों ने झांसी किले को घेर लिया, यही से झाँसी के युद्ध का प्रारंभ हुआ। अंग्रेजो ने लगातार आठ दिनों तक तोपों से झाँसी के किले पर गोले बरसाए, लेकिन क़िला नहीं जीत सके। रानी की घेराबंदी देख अंग्रेज भी दंग रह गए। रानी और उनकी प्रजा ने दृढ़ संकल्प लिया कि वे अपनी जान देकर भी क़िले की रक्षा करेंगे। अंत में, अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज़ ने कूटनीति से किले की घेराबंदी तोड़ दी। उन्होंने झांसी के एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह से हाथ मिलाया और सरदार दूल्हा सिंह ने क़िले का दक्षिणी द्वार अंग्रेजो के लिए खोल दिया। जिसके बाद अंग्रेज किले के अंदर लूटपाट तथा हिंसा के रूप में खूब विध्वंस किया।
रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों का डटकर सामना किया। रानी ने रणचण्डी का रूप धारण किया और घोड़े पर सवार होकर शत्रु पर खूब आक्रमण किया। रानी के साथ उनके वीर सैनिक भी अंग्रेज़ों पर टूट पड़े और शौर्य का परिचय दिया। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूंज उठी। हालांकि रानी और उनके सैनिकों की संख्या अंग्रेज़ों से कम थी। जिसके कारण अंग्रेज़ों ने रानी को चारों ओर से घेर लिया और अपनी जान बचाने के लिए रानी को क़िला छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा।
रानी का पलायन
दामोदर राव को अपनी पीठ पर बिठाकर, रानी लक्ष्मीबाई अपने घोड़े बादल पर सवार होकर किले से कूद पड़ीं। इस कूद में वह और उनके बेटे दामोदर राव बच गए। लेकिन घोड़ा मारा गया। रानी अपने बेटे के साथ रात के समय पहरेदारों से घिरी हुई बच निकलने में सफल रहीं।उनके साथ योद्धाओं का एक समूह था, जिसमें खुदा बख्श बशारत अली (कमांडेंट), गुलाम गौस खान, दोस्त खान, लाला भाऊ बख्शी, मोती बाई, सुंदर-मुंदर, काशी बाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह जैसे वीर शामिल थे।
झांसी से पलायन के बाद रानी लक्ष्मीबाई सबसे पहले कालपी पहुँचीं। वहां उन्होंने तात्या टोपे और अन्य विद्रोही नेताओं के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की योजना बनाई। कालपी में, रानी लक्ष्मीबाई ने सेनाओं का नेतृत्व किया और शहर की रक्षा करने की कोशिश की। हालांकि, ब्रिटिश सेना ने 22 मई, 1858 को कालपी पर हमला किया, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई की सेना को एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियो ने ग्वालियर का रुख किया जहां उन्होंने मराठा सेनाओं के साथ मिलकर एक अंतिम प्रयास किया।
ग्वालियर का युद्ध
1858 में रानी लक्ष्मीबाई और उनके सहयोगियों द्वारा ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ा गया ग्वालियर का युद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण युद्धों में से एक था। जो ग्वालियर के किले में लड़ा गया था।
झांसी से पलायन के बाद रानी लक्ष्मीबाई कालपी से होते हुए तात्या टोपे और राव साहब के साथ ग्वालियर पहुंचीं। ग्वालियर तब ब्रिटिशों के अधीन नहीं था और इसीलिए रानी लक्ष्मीबाई ने मराठा सैनिकों की सहायता से किले पर कब्जा करने का प्रयास किया।
रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने बिना किसी बड़ी चुनौती के 1858 में ग्वालियर शहर पर नियंत्रण हासिल कर लिया। नाना साहब को मराठा प्रभुत्व के पेशवा के रूप में तथा राव साहब को ग्वालियर का गवर्नर (सुबे़दार) नियुक्त किया गया।रानी ने ग्वालियर की रक्षा के लिए विद्रोही सेनाओं का नेतृत्व करने का निर्णय लिया।
अंग्रेजों को इसकी जानकारी मिली और ब्रिटिश सेना के जनरल रोज़ ने 16 जून, 1858 को ग्वालियर पर हमला किया। जनरल रोज़ की सेना ने पहले मोरार पर कब्जा किया और फिर ग्वालियर शहर पर हमला किया। 17-18 जून, 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में रानी लक्ष्मीबाई और ब्रिटिश सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ। हालांकि रानी लक्ष्मीबाई ने वीरतापूर्वक ग्वालियर की किलेबंदी की और ब्रिटिश सेना का मुकाबला किया। लेकिन ब्रिटिश सेना की शक्ति के तुलना में रानी लक्ष्मीबाई के सेना की संख्या कम थी।
हालांकि रानी और उनके सैनिक बहादुरी से अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध लड़ते रहे।
रानी की वीरगति और ग्वालियर पर कब्ज़ा
18 जून, 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में रानी ने ब्रिटिश सैनिकों से अंतिम संघर्ष किया। रानी ने घुड़सवार की वर्दी पहन रखी थी और अपने सैनिकों का नेतृत्व कर रही थीं। लेकिन लड़ाई के दौरान रानी लक्ष्मीबाई पर ब्रिटिश सैनिकों ने हमला किया और गंभीर रूप से घायल हो गई और उन्होंने वीरगति प्राप्त की। उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों के हाथों में न पड़ने के लिए पास के साधु को अपना अंतिम संस्कार करने का निर्देश दिया।
रानी लक्ष्मीबाई के निधन के बाद ब्रिटिश सेना ने 20 जून,1858 को ग्वालियर किले पर कब्जा कर लिया।
ब्रिटिश सेना की प्रतिक्रिया
जनरल ह्यूरोज़ ने अपनी रिपोर्ट में रानी लक्ष्मीबाई पर टिप्पणी करते हुए रानी लक्ष्मीबाई को “सभी विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक” बताया। उन्होंने कहा, “रानी लक्ष्मीबाई सुंदर, साहसी और चतुर थीं और भारतीय विद्रोह के सबसे प्रमुख प्रतीकों में से एक थीं।”