
Raulane Sauni, A Festival of Mysteries: भारत की धरती पर हिमाचल पर्वत पर बसे गांव अपनी अनोखी परम्पराओं के चलते किसी अजूबे से कम नहीं हैं। वहीं हिमालयप्रदेश की बर्फीली चोटियों, देवदार की वादियों और शांत पहाड़ी गांवों के बीच इन दिनों एक ऐसा अनोखा उत्सव मनाया जा रहा है, जो जितना रहस्यमयी है उतना ही आकर्षक भी। किन्नौर में रौलाने उत्सव की धूम पूरे नवंबर माह को जीवंत कर देती है। यह वह समय है जब स्थानीय लोग, बच्चे, बुजुर्ग और पर्यटक सभी मिलकर एक ऐसी परंपरा का हिस्सा बनते हैं, जिसकी जड़ें सदियों पुरानी आस्था से जुड़ी हैं। अगर आप हिमाचल घूमने का प्लान बना रहें हैं या इस समय इसी यात्रा पर हैं, तो रौलाने उत्सव में आपको जरूर शामिल होना चाहिए। ये उत्सव किन्नौर की संस्कृति के सबसे अनोखे रूप से परिचित करवाता है। आइए जानते हैं रौलाने उत्सव से जुड़े इतिहास के बारे में –
रौलाने उत्सव का इतिहास और मान्यताओं से जुड़ा महत्व
रौलाने उत्सव की शुरुआत किन्नौर की देव-परंपराओं और लोकविश्वासों से जुड़ी है। किन्नौर को ‘देवभूमि’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां की संस्कृति में देवताओं, प्राकृतिक शक्तियों और परियों का विशेष स्थान रहा है। बहुत पुरानी मान्यता है कि शीत ऋतु की शुरुआत के वक्त रौलाने सौणी यानी दिव्य पारियां अपने महलों से निकलकर गांवों में आती हैं। ये परियां लोगों को आशीर्वाद देती हैं और गांवों की रक्षा करती हैं। इन्हीं परियों के स्वागत, सम्मान और रहस्य को बनाए रखने के लिए यह उत्सव सदियों से मनाया जाता रहा है। बुजुर्गों का कहना है कि इस उत्सव की शुरुआत इतनी प्राचीन है कि इसका वास्तविक काल ज्ञात ही नहीं है। यह पर्व किन्नौर की सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक एकता और लोकविश्वासों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है।
रौलाने उत्सव कब तक मनाया जा रहा है?
रौलाने उत्सव हर साल नवंबर में मनाया जाता है। इस वर्ष भी उत्सव पूरे जोश और उमंग के साथ शुरू हो चुका है और 27 नवंबर तक चलता जाएगा। यह वह अवधि है जब गांवों में लगातार नृत्य-गीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम और अनोखी पारंपरिक गतिविधियां होती रहती हैं। जिनमें स्थानीय लोगों के साथ-साथ पर्यटक भी खुशी-खुशी शामिल होते हैं। इस पर्व की यह जादुई अनुभूति आपको किन्नौर की संस्कृति से गहराई से जोड़ देती है।
रौलाने उत्सव कहां आयोजित होता है?
यह उत्सव हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत जिले किन्नौर में मनाया जाता है। इसका प्रमुख आयोजन स्थल नागिन नारायण मंदिर है। जो यहां की आस्थाओं और देव-परंपराओं का केंद्र माना जाता है। मंदिर के आसपास के क्षेत्र में गांवों के लोग इकट्ठा होते हैं और पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुनों के बीच सजधज कर निकलते हैं। इस अद्भुत माहौल के बीच पूरा परिसर देखने लायक दृश्य बन जाता है। देवदारों से घिरी घाटी, लकड़ी से बने पारंपरिक घर और मंत्रोच्चार का वातावरण इस उत्सव की दिव्यता को और बढ़ा देता है।
रौलाने उत्सव में क्या-क्या होता है?
इस उत्सव की सबसे खास परंपरा है दो पुरुषों का दूल्हा और दुल्हन बनकर आना। इन्हें ‘रौला’ (दूल्हा) और ‘रौलाणे’ (दुल्हन) कहा जाता है। लेकिन यह साधारण विवाह जैसा कार्यक्रम बिल्कुल नहीं होता। इन दोनों को सिर से पांव तक भारी पारंपरिक किन्नौरी वेशभूषा, झूमर, रंग-बिरंगी झालरों और चांदी-सोने के आभूषणों से सजाया जाता है। उनकी पहचान छिपाने के लिए उनके चेहरे को मोटे ऊनी कपड़ों से बने मुखौटों से पूरी तरह ढका जाता है। यह सजावट इतनी कलात्मक होती है कि सामने खड़ा व्यक्ति भी नहीं जान पाता कि अंदर कौन है। लोकगीतों की धुनों पर गांववाले नाचते-गाते हैं और दूल्हा-दुल्हन के रूप में आए ये दो पुरुष पूरे दिन उत्सव की रस्में निभाते हैं। कई जगह आपको ‘पुंदलु’ अवतार में लोग भी दिखेंगे, जो भेड़-बकरियों की खाल पहनकर आते हैं और परंपरागत जीवनशैली तथा प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक माने जाते हैं। पूरा माहौल रंग, संगीत, लोकगाथाओं और रहस्य से भर जाता है।
रौलाने उत्सव में चेहरा ढककर क्यों आते हैं?
इस परंपरा का सबसे अनोखा और रहस्यमय पहलू यही है कि इस उत्सव में शामिल लोगों का चेहरा ढका रहता है। स्थानीय मान्यता है कि परियां अपना चेहरा कभी नहीं दिखातीं, इसलिए उनके स्वागत और प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व में शामिल लोग भी अपना चेहरा छिपाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे परियों का पवित्र रहस्य बना रहता है और गांव की रक्षा के लिए उनका आशीर्वाद मिलता है। ‘रौला’ और ‘रौलाणे’ के रूप में सजे पुरुष चेहरा ढके हुए विवाह जैसी सभी रस्में निभाते हैं। ये प्रथा किन्नौर संस्कृति में एक आध्यात्मिक और सामुदायिक संदेश का प्रतीक मानी जाती है। गांव वालों के बीच यह परंपरा संस्कृति, भावनाओं और आस्था का प्रतीक है।
उत्सव के अंतिम दिन क्या होता है?
रौलाने उत्सव का अंतिम दिन पूरे गांव के लिए सबसे शुभ माना जाता है। इस दिन पूरा समुदाय, महिलाएं, बच्चे और उत्सव के लिए सजाए गए दोनों जोड़े सब मिलकर नागिन नारायण मंदिर में सामूहिक पूजा करने जाते हैं। यह पूजा गांव की शांति, समृद्धि और कुशल-क्षेम के लिए की जाती है। दूल्हा-दुल्हन के रूप में आए दोनों प्रतीकात्मक पात्र गांववालों के साथ मंदिर में प्रवेश करते हैं, जहां देवताओं से आशीर्वाद लिया जाता है। पूजा के बाद लोकनृत्य, गीत और सामूहिक भोज के साथ यह उत्सव सम्पन्न होता है।
रौलाने उत्सव सिर्फ एक पर्व नहीं बल्कि किन्नौर की उस अनूठी विरासत का उत्सव है जहां रहस्य, लोककला, संगीत, नाच, प्राकृतिक सौंदर्य और सामुदायिक एकता सब एक साथ देखने को मिलते हैं। अगर आप हिमाचल की यात्रा कर रहे हैं, तो यह उत्सव सबसे यादगार अनुभव बन कर आपको बार-बार किन्नौर लौटने के लिए मजबूर करेगा।


