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    Home » Saraswati Nadi Ka Rahasya: विलुप्त होने के बावजूद अस्तित्व में बनी रहने वाली रहस्यमयी धारा
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    Saraswati Nadi Ka Rahasya: विलुप्त होने के बावजूद अस्तित्व में बनी रहने वाली रहस्यमयी धारा

    By February 3, 2025No Comments9 Mins Read
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    Saraswati River History and Mystery (Photo Credit – Social Media)

    Saraswati River History and Mystery:�भारत का इतिहास केवल इसकी सभ्यताओं और साम्राज्यों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके प्राकृतिक और सांस्कृतिक प्रतीकों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। इस इतिहास में एक ऐसी नदी का जिक्र आता है, जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अभिन्न हिस्सा रही, लेकिन अब विलुप्त हो चुकी है। यह नदी न केवल पौराणिक कथाओं में प्रमुखता से स्थान रखती है, बल्कि इसके किनारे पर लिखे गए वेद और अन्य ग्रंथ इसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से महान बनाते हैं।

    इस नदी के किनारे महाभारत(Mahabharat) जैसा ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया,जिसने धर्म और अधर्म के बीच की लड़ाई को दर्शाया। ऋग्वेद जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी इस नदी का उल्लेख मिलता है, जो यह प्रमाणित करता है कि यह नदी भारतीय सभ्यता के प्रारंभिक समय से ही अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। लेकिन आज, समय के प्रवाह में यह नदी विलुप्त हो चुकी है, और इसके नाम और अस्तित्व अब केवल ऐतिहासिक और पौराणिक ग्रंथों तक ही सिमित रह गए है।

    सरस्वती नदी(Saraswati River History) भारतीय पुराणों और वेदों में एक पवित्र और विशेष स्थान रखती है। इसे न केवल एक नदी के रूप में देखा गया है, बल्कि एक देवी के रूप में पूजनीय माना गया है। पुराणों के अनुसार, सरस्वती नदी आज भी प्रवाहित हो रही है, लेकिन यह अदृश्य हो चुकी है। विज्ञान के दृष्टिकोण से यह माना जाता है कि यह नदी सैकड़ों साल पहले पृथ्वी पर मौजूद थी और भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण विलुप्त हो गई।

    सरस्वती नदी के अदृश्य हो जाने के बावजूद, इसका महत्व भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास में अमिट है। यह वेदों और ग्रंथों की रचना का केंद्र रही, और इसकी पूजा ज्ञान, कला और शिक्षा की देवी के रूप में की जाती है।

    एक सदी से भी अधिक समय से इतिहासकार और वैज्ञानिक सरस्वती नदी के निशान खोज रहे है।इस लेख में हम इस विलुप्त नदी के ऐतिहासिक, पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व को विस्तार से जानेंगे और इसके अदृश्य हो जाने के कारणों को समझने की कोशिश करेंगे।

    सरस्वती नदी के पौराणिक साक्ष�

    आज भले ही सरस्वती नदी विलुप्त हो चुकी हो, लेकिन प्राचीन ग्रंथपुराण में इस नदी का उल्लेख मिलता है।सबसे पहले सरस्वती नदी का उल्लेख प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में मिलता है।ऋग्वेद में इसे ‘सर्वश्रेष्ठ माँ, नदी, और देवी’ कहा गया है। इसके तट पर रहकर ऋषियों ने वेदों की रचना की और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया, जिससे यह विद्या और ज्ञान की देवी के रूप में पूजनीय बनी।

    ऋग्वेद में सरस्वती को नदी देवी के रूप में वर्णित किया गया है, तो वही ब्राह्मण ग्रंथों में इसे वाणी और बुद्धि की देवी माना गया। उत्तर वैदिक काल में इसे विद्या की अधिष्ठात्री देवी और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में सम्मानित किया गया।

    वैदिक साहित्य में सरस्वती नदी के विलुप्त होने का उल्लेख मिलता है। इसके उद्गम स्थल को ‘प्लक्ष प्रस्रवण’ कहा गया है, जो यमुनोत्री के पास स्थित है। इसके सूखने का उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में किया गया है।

    यजुर्वेद में पाँच नदियाँ सतलुज, रावी, व्यास, चेनाब, और दृष्टावती का संगम सरस्वती नदी में होने का उल्लेख है। वी. एस. वाकणकर के अनुसार, इन नदियों के संगम के अवशेष राजस्थान के बाड़मेर या जैसलमेर के पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते हैं।

    वाल्मीकि रामायण में भरत के कैकय देश से अयोध्या लौटते समय सरस्वती और गंगा नदियों को पार करने का उल्लेख है। महाभारत के शल्यपर्व में सरस्वती नदी के तटवर्ती तीर्थों का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिनकी यात्रा बलराम ने की थी। यहाँ पर सरस्वती नदी के विनशन नामक स्थान पर लुप्त हो जाने का भी उल्लेख है।

    सरस्वती नदी के तट पर पीलीबंगा, कालीबंगा और लोथल जैसे 5500-4000 साल पुराने शहर मिले हैं, जहाँ यज्ञ कुण्डों के अवशेष पाए गए हैं। यह महाभारत के वर्णन को प्रमाणित करता है।

    श्रीमद्भागवत और कालिदास के ‘मेघदूत’ में भी सरस्वती का उल्लेख किया गया है। सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की कई नदियों को इसका नाम दिया गया, और पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी इसका उल्लेख ‘हरहवती’ के रूप में मिलता है।

    सरस्वती नदी के ऐतिहासिक साक्ष

    सरस्वती नदी के तट पर हड़प्पा सभ्यता के अनेक अवशेष पाए गए हैं, जो प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग हैं। इस क्षेत्र में 2600 से अधिक बस्तियों के प्रमाण मिले हैं, जिनमें प्रमुख स्थल पीलीबंगा, कालीबंगा, राखीगढ़ी और लोथल शामिल हैं। इन स्थलों पर यज्ञ कुण्ड और अन्य अवशेष मिले हैं, जो वैदिक कालीन संस्कृति से जुड़े होने के संकेत देते हैं। इसके अतिरिक्त, सरस्वती नदी के विलुप्त मार्ग की पहचान सतलुज और घग्गर-हकरा नदियों के साथ की गई है, जो यह दर्शाती है कि यह क्षेत्र न केवल सिंधु घाटी सभ्यता का केंद्र था, बल्कि वैदिक परंपराओं का भी पोषक रहा। इन खोजों से स्पष्ट होता है कि सरस्वती नदी का तट प्राचीन सभ्यताओं और सांस्कृतिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र था।

    सरस्वती नदी के भौगोलिक और वैज्ञानिक साक्ष :- इसरो और पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार, उपग्रह चित्रों और भूवैज्ञानिक सर्वेक्षणों ने सरस्वती नदी के प्राचीन प्रवाह मार्ग को चिह्नित किया है, जो हरियाणा से राजस्थान और गुजरात के कच्छ तक जाता है। घग्गर-हकरा नदी को सरस्वती नदी का अवशेष माना जाता है, जिसका प्रवाह राजस्थान के मरुस्थल में लुप्त हो गया। सिद्धपुर (गुजरात) सरस्वती नदी के तट पर स्थित है, जहाँ बिंदुसर नामक एक सरोवर है, जिसे महाभारत के ‘विनशन’ स्थान के रूप में पहचाना जा सकता है। यह नदी कच्छ में गिरती है, लेकिन कई स्थानों पर लुप्त हो जाती है। ‘सरस्वती’ का अर्थ है ‘सरोवरों वाली नदी’, जो इसके द्वारा छोड़े गए सरोवरों से प्रमाणित होता है।

    सरस्वती नदी के ऐतिहासिक और भूगर्भीय विवरण

    उद्गम स्थल:- महाभारत के अनुसार, सरस्वती नदी हरियाणा के यमुनानगर के पास शिवालिक पहाड़ियों के नीचे आदिबद्री नामक स्थान से निकलती थी। वर्तमान में आदिबद्री से बहने वाली नदी पतली धारा के रूप में बहती है, जिसे सरस्वती माना जाता है।

    प्राचीन महत्व :- वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार, सरस्वती नदी के किनारे ब्रह्मावर्त और कुरुक्षेत्र जैसे ऐतिहासिक स्थल स्थित थे। नदी के सूखने पर जहां-जहां पानी गहरा था, वहां अर्धचंद्राकार तालाब और झीलें बन गईं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर और पेहवा में ऐसे अर्धचंद्राकार सरोवर मौजूद हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि इस क्षेत्र में कभी एक विशाल नदी बहा करती थी।

    उद्गम का वैज्ञानिक आधार :- भारतीय पुरातत्व परिषद् के अनुसार, सरस्वती का उद्गम उत्तराखंड के रूपण हिमनद (ग्लेशियर) से होता था, जिसे अब सरस्वती ग्लेशियर कहा जाता है।रूपण ग्लेशियर से जल आदिबद्री तक पहुंचकर सरस्वती नदी का प्रवाह बनाता था।

    भूकंप और भूगर्भीय बदलाव :- भूगर्भीय शोध के अनुसार, इस क्षेत्र में भीषण भूकंप आए, जिससे जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए ।इसके परिणामस्वरूप, सरस्वती का जल प्रवाह बाधित हुआ और नदी धीरे-धीरे सूख गई।

    दृषद्वती नदी का इतिहास :- वैदिक काल में दृषद्वती नदी सरस्वती की सहायक नदी थी, जो हरियाणा से होकर बहती थी। भूकंप के कारण दृषद्वती की दिशा बदल गई और यह उत्तर तथा पूर्व की ओर बहने लगी। यही दृषद्वती बाद में यमुना नदी के रूप में जानी गई।

    यमुना नदी का परिवर्तन :- यमुना पहले चंबल की सहायक नदी थी। भूकंप के बाद इसका प्रवाह बदलकर यह गंगा में मिलने लगी। सरस्वती नदी का जल भी यमुना में मिलने लगा, जिससे यमुना के जल में सरस्वती की उपस्थिति मानी जाती है।

    प्रयागराज में संगम का मिथक :- यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी, लेकिन भूकंपों के प्रभाव से जब जमीन ऊपर उठी, तो सरस्वती का पानी यमुना में समा गया, और इस प्रकार सरस्वती यमुना से जा मिली। यही कारण है कि प्रयागराज को तीन नदियों के संगम के रूप में माना गया है, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती वहां गुप्त रूप से बहती है। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि सरस्वती नदी विलुप्त हो चुकी है और वास्तव में कभी प्रयागराज तक नहीं पहुंची थी।

    शोधों के अनुसार सरस्वती नदी का अस्तित्व शास्त्र, पुराण और विज्ञान द्वारा स्वीकारा गया है। करीब 5,500 साल पहले यह नदी हिमालय से निकलकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात से होती हुई 1,600 किमी तक बहती थी और अंत में अरब सागर में समा जाती थी।

    श्राप या वरदान क्या है सरस्वती के विलुप्त होने का कारन

    शास्त्रों के अनुसार, सरस्वती नदी एक श्राप के कारण विलुप्त हो गई और अब यह दिखाई नहीं देती। ऋषि दुर्वासा, जो अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे, सरस्वती नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। कहा जाता है कि नदी की तेज़ धाराओं ने उनकी ध्यान-साधना में बाधा डाली। इससे क्रोधित होकर दुर्वासा ऋषि ने सरस्वती को श्राप दे दिया कि वह धरती से विलुप्त हो जाए और अदृश्य हो जाए। इस कारण सरस्वती नदी भूमिगत हो गई और आज भी अदृश्य रूप में प्रवाहित मानी जाती है। वहीं, एक और कथा के अनुसार इस नदी को एक वरदान प्राप्त था, जिसके कारण वह विलुप्त होने के बावजूद अस्तित्व में बनी रही। इसी वरदान के कारण प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम माना जाता है, हालांकि सरस्वती नदी कभी भी दृश्य रूप में नहीं दिखाई देती।�

    तीर्थों में सरस्वती की मान्यता

    हालाँकि सरस्वती नदी अदृश्य हो गई है, लेकिन हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, वह गंगा और यमुना से मिलकर प्रयागराज में त्रिवेणी संगम में प्रवाहित होती है।

    वैज्ञानिक और पौराणिक संबंध

    पौराणिक कथाएँ श्राप को इसकी वजह बताती हैं, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि सरस्वती नदी वास्तव में कभी अस्तित्व में थी, लेकिन जलवायु परिवर्तन और भौगोलिक बदलावों के कारण यह सूख गई। माना जाता है कि यह नदी हरियाणा, राजस्थान और गुजरात से होकर बहती थी और अंत में अरब सागर में मिलती थी। चाहे यह किसी श्राप का प्रभाव हो या प्राकृतिक कारणों का परिणाम, लेकिन आज भी सरस्वती नदी ज्ञान, पवित्रता और आध्यात्मिकता का प्रतीक मानी जाती है। और यह नदी अपने अस्तित्व में बनी हुई है।

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