
Sawan Kanwar Yatra Culture
Sawan Kanwar Yatra Culture
Sawan Kanwar Yatra Culture: सावन लगते ही पूरी प्रकृति खिल उठती है। हर ओर हरियाली छा जाती है। महिलाएं हरी चुड़ियां और हरी साड़ी पहनकर सावन की बौछारों का आंन्नद लेती हैं। लोग पूरी श्रद्धा भाव से कांवड़ यात्रा (Kanwar Yatra) निकालते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि भारत में एक ऐसा गांव है जहां सावन के पवित्र माह में पूरे 5 दिनों के लिए शादीशुदा महिलाएं अपने वस्त्रों का त्याग कर देती हैं। इन पाँच दिनों में न तो पति-पत्नी आपस में संवाद करते हैं और न ही एक-दूसरे के समीप आते हैं। हालांकि, अब महिलाएं शरीर पर एक पतला कपड़ा पहनती हैं। यह परंपरा दशकों से चली आ रही है और गांव में इस विचित्र परंपरा का पालन पूरे श्रद्धा भाव से किया जाता हैं।
हिमालय की गोद में बसा हिमाचल प्रदेश का एक छोटा-सा गांव पीणी, देखने में तो सुंदर और साधारण दिखता है लेकिन इन दिनों यह अपनी असाधारण परंपरा के लिए जाना जा रहा है। सावन आते ही यहाँ की वादियाँ श्रद्धा और तपस्या की एक विलक्षण गाथा सुनाने लगती हैं। मणिकर्ण घाटी के इस दिव्य ग्राम में श्रावण मास के आगमन के साथ ही आरंभ होती है एक अनूठी परंपरा, जो आज भी आधुनिकता की आँधी में अडिग खड़ी है वह परंपरा है निर्वसन व्रत।

इसलिए निभाई जाती है परंपरा
सावन में निर्वस्त्र रहने की इस प्रथा को लेकर गांव में मान्यता है कि अगर कोई महिला इस परंपरा का पालन नहीं करती है, तो उसके साथ कोई अनहोनी हो सकती है। उसे कुछ ही दिनों में कोई अशुभ खबर सुनने को मिलती है या उसके साथ कोई बुरी घटना हो जाती है। गाँव में ऐसे उदाहरणों की कहानियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई जाती हैं, जिनमें असमय मृत्यु, बीमारी या आपदा को इस व्रत-भंग से जोड़ा जाता है। इन पांच दिनों में पति-पत्नी आपस में बातचीत भी नहीं करते और एक-दूसरे से पूरी तरह दूर रहते हैं।
पुरुषों को भी करना होता है पालन
वहीं इस दौरान पुरुषों को भी शराब और मांस का सेवन करना बिल्कुल मना है। स्थानीय लोगों का मानना है कि अगर स्त्री या पुरुष दोनों में से किसी ने भी इस परंपरा को सही से नहीं निभाया तो उनके देवता नाराज हो जाएंगे।
इस प्रथा के पीछे हैं ‘लाहुआ घोंड देवता’
इस परंपरा के पीछे एक पुरानी कहानी है। कहा जाता है कि बहुत समय पहले इस गांव में राक्षसों का आतंक था। तब राक्षस गांव में की सबसे सुंदर कपड़े पहनी महिला को उठा ले जाते थे। इसी संकट से गांव को मुक्त कराने ‘लाहुआ घोंड देवता’ प्रकट हुए। उन्होंने राक्षसों का संहार कर गांव को अभयदान दिया। उनके प्रति कृतज्ञता स्वरूप यह व्रत आरंभ हुआ, जिसमें महिलाएँ अपने सौंदर्य और आभूषणों का त्याग कर नैतिक शुद्धता और समर्पण का प्रदर्शन करती हैं।