
Marbat Tradition History: भारत विविधताओं का देश है। यहाँ हर क्षेत्र, हर राज्य और हर शहर की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। महाराष्ट्र का नागपुर शहर भी अपनी एक ऐतिहासिक परंपरा के लिए लोकप्रिय है जो देशभर में अपनी पहचान बना चुका है – मारबत उत्सव । यह उत्सव नागपुर के लोगों की आस्था, संस्कृति और सामाजिक चेतना से जुड़ा हुआ है। हर साल भाद्रपद महीने में मनाया जाने वाला यह पर्व बुराई पर प्रहार और अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है। इस लेख में मारबत उत्सव क्या है, इसका इतिहास, इसे मनाने का तरीका, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व और वर्तंमान में इसके स्वरुप पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।
मारबत उत्सव क्या है?
मारबत उत्सव नागपुर की एक पुरानी और लोकप्रिय परंपरा है जो बैलपोला के दूसरे दिन मनाई जाती है। इस परंपरा का उद्देश्य बुराई पर अच्छाई की जीत है । इस परंपरा के तहत बुराई को भगाने के लिए काली और पीली मारबत नामक पुतलों का दहन किया जाता है। यह एक सांस्कृतिक त्योहार है जो सामाजिक मुद्दों के प्रति असंतोष और बुरी आत्माओं को दूर भगाने की किसानों की एक पौराणिक प्रथा से जुड़ा है।
काली और पिली मारबत
मारबत उत्सव का मुख्य आकर्षण मिट्टी, गन्ने, कपड़े, काठ और बाँस जैसी सामग्रियों से बनाई गई विशालकाय पुतलियाँ होती हैं। इन पुतलों को ‘मारबत’ कहा जाता है जो समाज में फैली बुराइयों, रोगों और नकारात्मक शक्तियों का प्रतीक माने जाते हैं। इनमें प्रमुख रूप से दो प्रकार की मारबत निकलती हैं जिनमें काळी मारबत और पिवळी मारबत इनका समावेश है । इनमे काळी मारबत(काले रंग की) जो दुर्भावना और नकारात्मक शक्तियों का प्रतीक है तथा पिवळी मारबत (पीले रंग की) जो महामारी, आपदा और बीमारियों का प्रतिनिधित्व करती है। इसके अलावा इस इस अनूठी परंपरा का एक विशेष आकर्षण और भी होता है जिसे ‘बडगे’ या ‘बड़ग्या’ कहा जाता है । ‘बडगे’ या ‘बड़ग्या’ नामक पुतलों के जरिये सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर व्यंग्यात्मक संदेश दिया जाता है। इन सभी पुतलों की भव्य शोभायात्रा पूरे शहर में निकाली जाती है और अंत में उनका दहन किया जाता है, जो बुराई के अंत और सकारात्मक ऊर्जा के स्वागत का प्रतीक माना जाता है।
मारबत उत्सव का इतिहास
मारबत उत्सव का इतिहास 19वीं सदी से जुड़ा है। इस परंपरा की शुरुवात 1881 से नागपुर में हुई थी । उस दौर में लोग महामारियों, बीमारियों और अन्य आपदाओं को नकारात्मक शक्तियों का परिणाम मानते थे। इनसे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने मिट्टी की बड़ी मूर्तियाँ बनाकर उन्हें नगरभर में घुमाया और अंत में उनका दहन किया ताकि बुराइयाँ और रोग नगर से बाहर हो जाएँ। धीरे-धीरे यह परंपरा केवल धार्मिक अनुष्ठान न रहकर एक विशाल सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव का रूप ले चुकी है, जो आज भी नागपुर के पुराने मोहल्लों और खास समुदायों में पूरे श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। बैलपोला के 4 दिन पहले इन पुतलियों की यानि पिली और काली मारबत की स्थापन की जाती है । फिर बैलपोला के दूसरे दिन शहर में इन मारबत का जुलूस निकला जाता है। इनमे काली मारबत को बुराई का प्रतिक माना जाता है तथा पिली मारबत को देवी के रूप में पूजा जाता है ।
भोसले राजवंश संबंध
मारबत उत्सव की शुरुआत नागपुर में वर्ष 1881 से मानी जाती है। कहा जाता है कि काली मारबत का संबंध भोसले राजवंश से जुड़ा है । अंग्रेजों के समय नागपुर के राजघराने के भोसले राजा की बहन बकाबाई ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया था। उसके विरोध में काली मारबत निकाली गई। इसके कुछ वर्षों बाद, 1885 में पीली मारबत की परंपरा शुरू हुई जिसका उद्देश्य उस समय शहर में फैली बीमारियों और महामारियों से मुक्ति पाना था।वहीं, महाभारत में भी पीली मारबत का उल्लेख मिलता है। समय के साथ इस उत्सव का मूल संदेश और भी गहरा होता गया। इसका प्रमुख उद्देश्य समाज से नकारात्मकता, बुराइयों, भ्रष्टाचार और अन्याय को दूर करना है, साथ ही लोगों में सद्भाव, जागरूकता और कल्याण की भावना को बढ़ावा देना भी इसका लक्ष्य रहा है।
मारबत बनाने की कला
मारबत उत्सव में तैयार किए जाने वाले पुतले पूरी तरह पारंपरिक और देसी अंदाज़ में बनाए जाते हैं। इनके निर्माण में बाँस, लकड़ी, कपड़ा, मिट्टी, कागज और गन्ने जैसी प्राकृतिक सामग्रियों का इस्तेमाल होता है। कलाकार इन्हें रंग-बिरंगे कपड़ों, आभूषणों और चेहरे की विविध भाव-भंगिमाओं से सजाते हैं जिससे हर साल उनकी रचनात्मकता का नया रूप सामने आता है। खासतौर पर ‘बडगे’ पुतले सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर व्यंग्य करते हुए कलाकारों की अनूठी प्रतिभा और संवेदनशीलता को उजागर करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया से नागपुर के कारीगरों को अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर मिलता है।
उत्सव कैसे मनाया जाता है?
मारबत उत्सव की तैयारियाँ भाद्रपद मास की अमावस्या से कई दिन पहले ही शुरू हो जाती हैं जब मोहल्लों में मारबत और बडगे बनाने का कार्य आरंभ होता है। अमावस्या के दिन पूरे शहर में ढोल-ताशों, बैंड-बाजों, गीत-संगीत और जयकारों के बीच भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है, जो देखने लायक होती है। इस दौरान खासतौर पर ‘बडगे’ पुतले समाज में फैली बुराइयों, भ्रष्टाचार, राजनीति और समसामयिक मुद्दों पर व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं। यात्रा के समापन पर इन पुतलों का दहन या विसर्जन किया जाता है जो बुराई के नाश और अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है।
मारबत उत्सव का सामाजिक महत्व
मारबत उत्सव केवल आस्था तक सीमित नहीं बल्कि यह समाज को जागरूक करने वाला एक अनोखा पर्व भी है। पहले इसे बीमारियों और महामारियों को दूर करने का प्रतीक माना जाता था वहीं आज यह सामाजिक चेतना और एकता को मजबूत बनाने का माध्यम बन चुका है। मोहल्लों और समुदायों के लोग मिलकर पुतले तैयार करते हैं, जिससे आपसी सहयोग और भाईचारे की भावना गहरी होती है। साथ ही, यह परंपरा स्थानीय कलाकारों और कारीगरों को अपनी कला दिखाने का मंच देती है और लोक संस्कृति को संरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाती है।
विवाद और आलोचना
मारबत उत्सव को लेकर समय-समय पर आलोचनाएँ और विवाद भी सामने आते रहे हैं। विशेषकर तब जब ‘बडगे’ पुतलों में किसी राजनीतिक या व्यक्तिगत चरित्र पर व्यंग्य किया जाता है, जिससे विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है। वहीं, पुतलों के दहन या विसर्जन से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी उठाई जाती है। कई लोगों का मानना है कि यह उत्सव अब व्यावसायिक रूप ले चुका है और इसमें पहले जैसा धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व धीरे-धीरे कम हो रहा है। इसके बावजूद, मारबत उत्सव नागपुर की सांस्कृतिक धरोहर और पहचान के रूप में आज भी उतने ही जोश और उत्साह के साथ मनाया जाता है।


