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    Home » इंदिरा ने 1971 में POK पर ज़ोर दिया होता तो बांग्लादेश न बनता!
    भारत

    इंदिरा ने 1971 में POK पर ज़ोर दिया होता तो बांग्लादेश न बनता!

    Janta YojanaBy Janta YojanaMay 23, 2025No Comments7 Mins Read
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    पहलगाम हमले के बाद भारत ने सैन्य अभियान शुरू किया लेकिन चार दिन में ही सीज़फ़ायर की घोषणा हो गयी। अचानक हुए इस ऐलान ने उन लोगों को ख़ासतौर पर निराश किया जो मान कर चल रहे थे कि इस बार पीएम मोदी पीओके को आज़ाद कराके ही मानेंगे। ऊपर से अमेरिकी राष्ट्रपति की इस टिप्पणी ने निराशा और बढ़ा दी कि ट्रेड बंद करने की धमकी देकर उन्होंने सीज़फ़ायर कराया। इस बीच, सोशल मीडिया पर इंदिरा गांधी को याद किया जाने लगा। 1971 के युद्ध में दिखाये गये उनके साहस की तुलना मोदी जी से की जाने लगी।

    ये वही इंदिरा गाँधी हैं जिन्हें कोसने में बीजेपी और आरएसएस ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन सोशल मीडिया पर वे अचानक छा गयीं। मीम्स और पोस्टों में 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की आंखों में आंखें डालने वाली इंदिरा को याद किया जाने लगा, यह बताते हुए कि वर्तमान नेतृत्व अमेरिकी दबाव के सामने झुक गया। बीजेपी आईटी सेल को यह बर्दाश्त कैसे होता। लिहाज़ा पलटवार करते हुए ये दावा किया जाने लगा कि इंदिरा गांधी ने 1971 में 93,000 युद्धबंदियों के बदले पीओके को आजाद कराने का मौका गवाँ दिया था। लेकिन क्या यह इतना सरल था?

    1971 युद्ध की पृष्ठभूमि

    1947 में भारत के बँटवारे के बाद अस्तित्व में आये पाकिस्तान के दो हिस्से थे— पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश)। लेकिन पाकिस्तान का द्विराष्ट्रवाद बंगाली संस्कृति और भाषा को स्वीकार नहीं कर सका। दिसंबर 1970 में हुए पाकिस्तानी आम चुनाव में शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान में 167 में से 160 सीटें जीतकर राष्ट्रीय संसद में बहुमत हासिल किया। यह जीत उन्हें पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने का हकदार बनाती थी। लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान के सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व, खासकर जनरल याह्या खान और जुल्फिकार अली भुट्टो, इसे बर्दाश्त नहीं कर सके।

    25 मार्च 1971 को पाकिस्तानी सेना ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ शुरू किया, जिसमें बंगाली नागरिकों, बुद्धिजीवियों और अवामी लीग समर्थकों पर क्रूर दमन किया गया। शेख मुजीब को गिरफ्तार कर पश्चिमी पाकिस्तान की मियाँवाली जेल में डाल दिया गया, जहाँ उन पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया गया और फाँसी की धमकी दी गई।

    इंदिरा गांधी की कूटनीति

    इस संकट में इंदिरा गांधी ने न केवल क्षेत्रीय, बल्कि वैश्विक स्तर पर कदम उठाये। उन्होंने शरणार्थी संकट को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया और युद्ध की तैयारी शुरू की। इंदिरा ने वैश्विक समर्थन जुटाने के लिए कई देशों का दौरा किया, लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके सलाहकार हेनरी किसिंजर ने पाकिस्तान का खुला समर्थन किया। निक्सन भारत को ‘सोवियत संघ का पिट्ठू’ कहते थे और इंदिरा को व्यक्तिगत रूप से नापसंद करते थे। 

    4-5 नवंबर 1971 को व्हाइट हाउस में इंदिरा और निक्सन की मुलाकात तनावपूर्ण रही। निक्सन ने शरणार्थी संकट को गंभीरता से नहीं लिया और भारत को ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की। इंदिरा ने स्पष्ट रूप से अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग की, लेकिन निक्सन ने कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया। इंदिरा ने महसूस किया कि निक्सन के साथ और समय बर्बाद करने का कोई मतलब नहीं है। उन्होंने अपनी यात्रा छोटी की और बिना साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस के भारत लौट आईं। यह कदम एक कूटनीतिक संदेश था कि भारत अमेरिकी दबाव में नहीं झुकेगा।

    इंदिरा ने पहले ही अगस्त 1971 में सोवियत संघ के साथ मैत्री और सहयोग संधि कर ली थी, यानी युद्ध शुरू होने के चार महीने पहले। इस संधि में कहा गया था कि दोनों में किसी पर हमला होगा तो दूसरा उसके पक्ष में सैनिक हस्तक्षेप करेगा। इस संधि ने अमेरिका और चीन के दबाव को बेअसर कर दिया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में भी शरणार्थी समस्या को उठाया और पश्चिमी देशों का नैतिक समर्थन हासिल किया।

    बाँग्लादेश की आज़ादी

    3 दिसंबर 1971 को युद्ध शुरू हुआ। भारतीय सेना और मुक्तिबाहिनी ने पूर्वी पाकिस्तान में तेजी से कब्जा जमाया। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने दबाव बनाने के लिए अमेरिका का सातवाँ बेड़ा (USS Enterprise) बंगाल की खाड़ी में भेजा, जो उस समय का सबसे शक्तिशाली नौसैनिक बेड़ा था। लेकिन इंदिरा ने इस धमकी को नजरअंदाज किया। उन्होंने सोवियत संघ से संपर्क किया, जिसने अपनी पनडुब्बियों और युद्धपोतों को बंगाल की खाड़ी में तैनात किया। सोवियत नौसेना ने सातवें बेड़े की हर गतिविधि पर नजर रखी, जिससे अमेरिका को पीछे हटना पड़ा।

    इंदिरा ने न केवल निक्सन की धमकी को नाकाम किया, बल्कि 93,000 युद्धबंदियों को हिरासत में लिया, जिनमें आधे से ज़्यादा सैनिक थे। इस जीत ने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद को दफन कर दिया, क्योंकि बांग्लादेश ने भाषा और संस्कृति को आधार बनाकर एक नए राष्ट्र का गठन किया।

    शिमला समझौता और पीओके 

    2 जुलाई 1972 को भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हुआ, जिसमें नियंत्रण रेखा (एलओसी) को मान्यता दी गई और यह तय हुआ कि दोनों देश बिना तीसरे पक्ष के मध्यस्थता के मुद्दों को हल करेंगे। लेकिन कुछ लोग आज दावा करते हैं कि इंदिरा 93,000 युद्धबंदियों के बदले पाक अधिकृत कश्मीर यानी पीओके को भारत में मिला सकती थीं। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। पर क्या यह वाक़ई संभव था, ख़ासतौर पर जब इससे अंतरराष्ट्रीय और कूटनीतिक परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो सकती थीं:

    अंतरराष्ट्रीय दबाव: अमेरिका और चीन ने युद्ध के बाद भारत पर दबाव डाला कि वह आक्रामक रुख न अपनाए। संयुक्त राष्ट्र ने भी युद्धविराम की मांग की थी।

    सोवियत समर्थन की सीमा: सोवियत संघ ने युद्ध में भारत का साथ दिया, लेकिन पीओके पर स्थायी कब्जे का समर्थन करना उनके लिए मुश्किल था, क्योंकि यह तीसरे विश्व युद्ध को भड़का सकता था।

    आर्थिक स्थिति: शरणार्थी संकट और युद्ध ने भारत को आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया था। पीओके पर कब्जा बनाए रखने के लिए लंबा सैन्य और आर्थिक खर्च असंभव था।

    कश्मीर का मुद्दा: इंदिरा नहीं चाहती थीं कि पीओके पर कब्जा कश्मीर मुद्दे को और जटिल करे। वह इसे कूटनीति से हल करना चाहती थीं।

    मुजीब की रिहाई: शेख मुजीबुर रहमान, जो बांग्लादेश के लिए जरूरी थे, पाकिस्तानी जेल में थे। पाकिस्तान उनकी जान को तुरुप का पत्ता बनाकर इस्तेमाल कर रहा था। उनकी रिहाई के लिए युद्धबंदियों को छोड़ना जरूरी था, वरना बांग्लादेश अस्थिर हो सकता था।

    8 जनवरी 1972 को मुजीब को रिहा किया गया। वे लंदन होकर 10 जनवरी को दिल्ली पहुंचे, जहां उनका जोरदार स्वागत हुआ। इसके बाद उन्होंने बांग्लादेश में नेतृत्व संभाला। अगर भारत ने युद्धबंदियों को न छोड़ा होता, तो मुजीब की जान ख़तरे में पड़ सकती थी, जिससे बांग्लादेश का भविष्य अधर में लटक जाता।

    उस समय भारत आज जितना शक्तिशाली नहीं था। आजादी के मात्र 25 साल बाद, भारत का खजाना खाली था। 93,000 युद्धबंदियों को खिलाने और 1 करोड़ शरणार्थियों को संभालने में रोज लाखों रुपये खर्च हो रहे थे। युद्धबंदियों को हमेशा रखना भारत को दिवालिया कर सकता था।

    इंदिरा की विरासत

    1971 में इंदिरा गांधी ने अपनी कूटनीति और साहस से इतिहास रचा। उन्होंने निक्सन की धमकियों को नज़रअंदाज किया, सातवें बेड़े को नाकाम किया, और बांग्लादेश को आजाद करा के न केवल इतिहास, बल्कि उपमहाद्वीप का भूगोल भी बदला। जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद दफन हो गया। आज जो लोग इंदिरा को पीओके न लेने के लिए कोस रहे हैं, वे उस समय की जटिल परिस्थितियों को नजरअंदाज कर रहे हैं। इंदिरा ने चतुराई से भारत की पूर्वी सीमा को सुरक्षित किया और एक नए राष्ट्र को जन्म दिया। 

    यानी आज की तुलना उस दौर से करना अनुचित है। 1971 में भारत ने सीमित संसाधनों के बावजूद अभूतपूर्व जीत हासिल की, जबकि आज भारत चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सैन्य शक्ति है। इंदिरा गांधी की नीतियां कमजोरी नहीं, बल्कि दूरदर्शिता का परिचय देती हैं। उनकी विरासत को गलत संदर्भ में प्रस्तुत करना न केवल ऐतिहासिक तथ्यों का अपमान है, बल्कि इंदिरा के साहस और कूटनीति को कमतर आँकना भी है, जिसने भारत को विश्व मंच पर एक मजबूत स्थान दिलाया।

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