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    Home » नंदकिशोर आचार्य के सृजन का समावलोकन
    भारत

    नंदकिशोर आचार्य के सृजन का समावलोकन

    By February 2, 2025No Comments15 Mins Read
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    हिंदी समाज में ऐसे लेखक और विचारक कम हैं जिनका सृजन और चिंतन सभ्यतामूलक है। नंदकिशोर आचार्य उन बिरले लोगों में से एक हैं। गांधीवाद और समाजवाद की चिंतनधारा से जुड़ा फिलहाल इस समय एक ही लेखक-विचारक है जिसे उनका सानी कहा जा सकता है और वह हैं सच्चिदानंद सिन्हा। लेकिन सच्चिदानंद सिन्हा का कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश लेखन मूलतः अंग्रेजी में है। हालाँकि अरविंद मोहन ने उनकी रचनावली संपादित करके उसे हिंदी में सुलभ करा दिया है। जबकि नंदकिशोर आचार्य का अधिकतम लेखन हिंदी में है और अंग्रेजी में अपवादस्वरूप है। जो कि यह साबित करने के लिए है कि वे चाहते तो अंग्रेजी में ही लिखते रहते। आचार्य जी एक और मायने में सच्चिदानंद जी से अलग हैं और वो यह कि वे सिर्फ राजनीतिक, सामाजिक और दार्शनिक लेखन ही नहीं करते बल्कि उनकी गति साहित्य में भी है। बल्कि वे अपनी कविताओं और नाटकों के माध्यम से उच्चकोटि के साहित्यकार भी हैं।

    उन्हीं के लेखन का एक संक्षिप्त परिचय देते हुए छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित साहित्यकार प्रभात त्रिपाठी ने ‘शाश्वत समकालीनः नंदकिशोर आचार्य के सृजन पर एकाग्र’ शीर्षक से एक पुस्तक तैयार की है। हालाँकि 130 पृष्ठों की इस पुस्तक को लेकर यह दावा तो नहीं किया जा सकता है कि इसमें आचार्य जी के संपूर्ण लेखन का परिचय समा गया है, उसकी समीक्षा और मूल्यांकन की तो बात ही अलग है। लेकिन उनके साहित्यिक और राजनीतिक लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियों की झलक इसमें मिल सकती है। नंदकिशोर आचार्य के लेखन के केंद्र में है स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की मूल्य त्रयी की रक्षा और उनका संवर्धन। वे अपनी कविता, नाटक, आलोचना और राजनीतिक, दार्शनिक विमर्शों का ताना-बाना इन्हीं मूल्यों के इर्दगिर्द बुनते हैं। शिल्प और शैली पर तो उन्हें महारत हासिल ही है।

    गांधी और लोहिया उनके चिंतन में ऊर्जा के गहरे स्रोत के रूप में उपस्थित हैं लेकिन समय-समय पर वे जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव और मानवेंद्रनाथ राय से भी प्रेरणा ग्रहण करने में कोई संकोच नहीं करते। नेहरू और डॉ. आंबेडकर उनके चिंतन को प्रभावित नहीं करते और इसे वे बिना किसी लाग लपेट के कहते भी हैं। पर पूरब और पश्चिम की दार्शनिक धाराएँ उनके सृजन में अंतःसलिला की तरह प्रवाहित होती हैं जिसे आप कभी प्रकट उद्धरणों से और कभी परोक्ष रूप से दिए जाने वाले तर्कों के माध्यम से ग्रहण कर सकते हैं। फिर समाज का कल्याण और जनांदोलन तो उनकी चिंताओं के केंद्र में है ही। इन्हीं दार्शनिक धाराओं से मिट्टी और पानी ग्रहण करने के कारण नंदकिशोर आचार्य की सृजनशीलता कभी रुकने वाली लगती नहीं।

    प्रभात त्रिपाठी ने आचार्य जी के चिंतन का परिचय देने के लिए अपनी पुस्तक में जो श्रेणियाँ निर्मित की हैं उनकी संख्या सात है। अपने आरंभिक बयान में यह स्वीकार करने के बाद कि वे नंदकिशोर के संपूर्ण लेखन पर टिप्पणी करने में सक्षम नहीं है उन्होंने जो श्रेणियां बनाई हैं वे इस प्रकार हैः– सर्जक की अनुभवदीप्त सैद्धांतिकी, साभ्यतिक संकट का आनुभाविक आत्मसातीकरण, सर्जक का मन, अस्तिचिन्ता से जुड़ी वेदनाशिक्त कविता, प्रार्थना और प्रेम की कविता, शास्वत समकालीन, अंतःसलिल मूल्य चेतना की तलाश।

    नंदकिशोर आचार्य से उम्र में लगभग चार साल बड़े प्रभात त्रिपाठी ने वर्धा विश्वविद्यालय में बनी सन्निकटता के आधार पर उनके रचनात्मक व्यक्तित्व को कुछ इस तरह समेटने की कोशिश की है, “वह सिर्फ साहित्यिक ही नहीं, एक प्यारा इंसान भी है जो अपने कर्म के प्रति गहरी अंतर्निष्ठा से प्रेरित है। उनकी बात में इतनी कन्विंसिंग तार्किकता होती थी कि उनके विश्लेषण और निष्कर्ष को स्वीकार करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होता था।’’

    आचार्य जी अपने राजनीतिक चिंतन में गांधीवादी समाजवादी हैं तो साहित्यिक चिंतन में रूपवादी हैं। उनके निबंधों में यह सोच एकदम स्पष्ट है जिसे प्रभात त्रिपाठी ने कई स्थानों पर उद्धृत किया है। आचार्य जी लिखते हैं,

    “

    साहित्य का महत्त्व उसकी प्रक्रिया में है, उसके निष्कर्षों में नहीं। वह प्रक्रिया रूपानुभूति की प्रक्रिया है। साहित्य में व्यक्त यथार्थ का उसके रूप से अलग कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए साहित्य रूप और ज्ञान-मीमांसा तो है ही, वह एक सीमा तक तत्वमीमांसा और मूल्यमीमांसा भी है।


    नंदकिशोर आचार्य

    अपनी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं, “पॉल वैलेरी मानते हैं कि लेखक का दर्शन सोच के विषयों में नहीं, स्वयं सोच की प्रक्रिया या उसके व्यवहार में निहित होता है। …हम चाहें तो रूप को लेखक के देखने की प्रक्रिया और व्यवहार कह सकते हैं, क्योंकि साहित्य, इसलिए कोई भी साहित्यिक कृति सर्वप्रथम देखने अर्थात अनुभव करने का एक ढंग है। …रूप अनुभूति का माध्यम नहीं, अनुभूति की प्रक्रिया होने के कारण स्वयं अनुभूति है।’’ 

    विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने सभ्यता के समक्ष जो चुनौतियां प्रस्तुत की हैं उसका असर साहित्य पर भी पड़ेगा। इसकी गंभीर चिंताएं हैं आचार्य के पास। वे ‘आसन्न चुनौतियां और काव्य’ निबंध में लिखते हैः— इक्कीसवीं शताब्दी के संदर्भ में तकनीकी का यह जिक्र इसलिए जरूरी है कि इस शताब्दी में तकनीकी विकास केवल तकनीकी नहीं रह पाएगा, बल्कि जैविक विकास में उसकी निर्णायक सहभागिता की अपार संभावना है… मेरा इशारा केवल वैतानिकी (साइबरेटिक्स) की ओर नहीं, जैविक तकनीकी (बायो टेक्नोलॉजी) और आनुवंशिकी की तरफ भी है।’’

    तकनीक का यह विकास कैसा मनुष्य निर्मित करेगा इस बारे में उनके सवाल हमारे समय के चिंतकों को गहराई में मथ रहे हैं। इतिहासकार युआल नोवा हरारी तो अपने लेखन में इन्हीं सवालों से जूझते नजर आते हैं। आचार्य उत्तर मानव के स्वरूप का अनुमान लगाते हुए लिखते हैं, “लेकिन इस उत्तर मानव की अनुभूति प्रक्रिया क्या होगी क्या वह उसी ऐंद्रिक संवेदनों के माध्यम से अनुभूत और रूपायित होगी, जैसा कि अब तक होता रहा है, अथवा वह क्रमशः अधिक बौद्धिक होती जाएगी।’’

    प्रभात त्रिपाठी ने नंदकिशोर आचार्य के गद्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि उनका गद्य पारदर्शी, निर्मल और मूल्यतेजस गद्य का आत्मीय उदाहरण है। उनकी भाषा विम्बविहीन है, लय प्राकृतिक है और एक ज़रूरी सांस्कृतिक समन्वय है। वे आचार्य के वेदनासिक्त अंतर्निष्ठ व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनके लिए अनुभव तभी महत्त्वपूर्ण है जब वह अनुभूति हमारे यथार्थ और हमारे आत्म की पहचान में कुछ नया जोड़ती है।

    आचार्य की कविताएं प्रार्थना और प्रेम की कविताएं हैं, ऐसा कवि प्रभात त्रिपाठी ने कई आलोचकों के माध्यम से कहा है। आचार्य की कविताओं में प्रकृति प्राणता है। ऐसी उनकी एक कविता हैः– 

    झर आता है दूध

    पहाड़ों की छाती से

    चिपटी हुई घास

    पीती है आंखें मूंदे

    कोरों से बह आती हैं बूंदें

    इस कविता में प्रकृति की विम्बधर्मिता नहीं, बल्कि उसमें रची मानवीय स्मृति और मातृस्मृति है। क्योंकि आचार्य न तो प्रकृति की दिव्यता को ओझल होने देते हैं और न ही उसे महिमामंडित करते हैं। रमेशचंद्र शाह ने आचार्य की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा है— आचार्य की कविताओं में जल और मरुस्थल के अनेक विम्ब हैं और यह विम्ब जैसे उस अंतःसमय को सहज भाव से लिखते हैं।

    जैसा कि प्रभात त्रिपाठी लिखते हैं कि उनकी कविताओं में ईश्वर एक प्रमुख कन्सर्न है। वे धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना के संदर्भ में स्थित ईश्वर नाम के प्रत्यय के साथ एक नए और आत्मसजग संबंध की कोशिश करते हैं। ईश्वर केंद्रित एक कविता में वे कहते हैं:— 

    दरअसल ईश्वर एक अंधी गली है

    जहां प्रत्येक रास्ता चुक जाता है

    और मेरे लिए रह जाता है

    कि उनके किसी अच्छे 

    कोने में अपनी गुदड़ी 

    बिछा लूं

    पर नहीं होता, मुझसे यह नहीं होता

    और बाल नोचता 

    लौट पड़ता हूं

    यह जानता हुआ भी कि

    अब अंधे सांप की तरह

     निरंतर भटकते रहना ही

    मेरी नियति रह गया है

    आज जब इक्कीसवीं सदी में ईश्वर दुनिया में नए सिरे से धार्मिक कट्टरता और जातीय संघर्षों के मूल में प्रेरणा बन कर जीवित हो उठा है तब एक कवि की इस कविता को साहसिक ही कहा जा सकता है।

    आचार्य में सिर्फ ईश्वर पर प्रश्न करने की आकुलता ही नहीं प्रेम की गहरी उत्कंठा भी है। उनकी एक प्रेम कविता यहां पर पाठक के हृदय को सहज स्पंदित करती हैः—

    यों ही आ गई थीं तुम

    खंडहर पर हरियाली

    आ जाए 

    बरसात में जैसे

    इसलिए लौट ही जाना

    था तुमको

    और खंडहर करती हुई

    मुझको

    आचार्य ने कविता के अलावा साहित्य की जिस विधा को अपनी अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सार्थक माध्यम माना है वह है नाटक। उनके पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक राजनीतिक नाटक उन्हीं मूल्यों को प्रतिस्थापित करने के लिए बेचैन दिखते हैं जिन्हें वे शास्वत वैश्विक मानवीय मूल्यों की श्रेणी में रखते हैं।

    गांधी और लोहिया से प्रेरित आचार्य के नाटकों में भी नर नारी समता और वर्ण-व्यवस्था विरोध के स्वर गूंजते हैं और गूंजते हैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाली राज्य व्यवस्था के विरोध में प्रतिरोध और उपहास के उद्घोष। वे नाटक जितने पौराणिक और ऐतिहासिक हैं उतने ही आधुनिक। उनमें मानव मनोभावों को व्यक्त करने की समझ और कौशल भी विद्यमान हैं। संयोग से उनके सारे नाटक मंचित भी हुए हैं और सराहे भी गए। हालाँकि वे मानते हैं कि कुछ नाटक पढ़ने में अच्छे लगते हैं तो कुछ खेलने में। कुछ में मंच के कलाकारों और निर्देशक के प्रयासों से प्रभाव उत्पन्न होता है।

    इसीलिए प्रभात त्रिपाठी लिखते हैं कि नाट्यवस्तु और विषयों के चयन में एक अकल्पनीय साहसिकता है। किस तरह से पुरुष स्त्री की देह पर अपना अधिकार मानता है और दूसरी ओर ऐसी स्त्रियां भी हैं जिनके लिए ऐंद्रिक आनंद ही सब कुछ है इन दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों को समेटता है उनका पौराणिक नाटक ‘देहांतर’। ययाति, पुरु, शर्मिष्ठा और देवयानी की कथा को केंद्र में रखकर रचा गया है यह नाटक जो काम मनोविज्ञान और स्त्री पुरुष संबंधों की शाश्वत विवेचना प्रस्तुत करता है। शर्मिष्ठा की दासी मंगला कहती है, “लेकिन यह तो स्वाभाविक है देवी। वे आप के पति हैं।’’

    तभी तो आलोचक कहते हैं कि शर्मिष्ठा की वेदना, दुनिया भर की स्त्रियों की वेदना है कि वह स्वयं अपनी इच्छा की स्वामिनी नहीं बल्कि पुरुष की कामजता को शांत करने वाली एक यंत्र मात्र है।

    इस नाटक में महज काम तृप्ति की इच्छा के लिए भटकने वाली देवलोकवासिनी विंदुमती की निराशा भी वासनामयी नारियों के लिए भी एक चेतावनी है। वह पुरु को पाने के लिए उसके यौवन को दान में हासिल कर चुके ययाति का सानिध्य पाकर निराशा में कहती हैः—

    ‘मैंने समझा था यही तो है पुरु जिसे मुझे पाना है। मेरा भ्रम था लेकिन। यह सब पुरु का था, पुरु नहीं था। लेकिन उसे नहीं पा सकी मैं।’

    उनका नाटक ‘हस्तिनापुर’ राजनीति में वंशवाद और वर्णव्यवस्था पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है। नाटककार विदुर की मां शुभा के प्रश्नों के माध्यम से भीष्म और सत्यवती के चरित्र को कठघरे में खड़ा कर देता है। महाभारत की कथा के लिहाज से यह प्रसंग काल्पनिक है लेकिन कथा में नया दृष्टिकोण उत्पन्न कर देता है। भीष्म और सत्यवती के समक्ष शुभा सवाल करती है कि विदुर राजा क्यों नहीं हो सकते। भीष्म और सत्यवती उनके शूद्र होने का हवाला देते हैं। उसके प्रतिप्रश्न पर भीष्म उसे डाँटते हुए मर्यादा का हवाला देते हैं। तब शुभा भीष्म से कहती है, “मर्यादा को ही तो स्पष्ट कर लेना चाहती हूं। आप तो धर्मज्ञ हैं। महामुनि व्यास ऋषि पराशर का पुत्र होने के नाते द्विज हैं तो विदुर भी महामुनि का पुत्र होने नाते द्विज हैं। विदुर दासी का पुत्र होने के नाते शूद्र हैं तो महामुनि व्यास भी शूद्र हैं क्योंकि उनका माता निषाद कन्या थीं शूद्र थीं।’’

    उनके दो नाटक ‘जिल्ले सुब्हानी’ और ‘गुलाम बादशाह’ दो बादशाहों के चारित्रिक पतन की कथा के माध्यम से अय्याश, क्रूर और जनविमुख सत्ता के चरित्र और उसके टिके रहने के कारणों पर प्रकाश डालते हैं। समीक्षक के शब्दों में जिल्ले सुब्हानी उर्दू में लिखा गया नाटक लगता है और यह साबित करता है कि नाटककार का उर्दू पर कितना अधिकार है। नाटक का संदेश है कि अमीर उमरा की जी हुजूरी और खुशामदखोरी और अन्याय तथा कुशासन को लेकर स्वार्थपरक खामोशी ही किसी के अय्याश, क्रूर और जनविमुख सत्ता के जारी रहने का कारण बनती हैं। ‘गुलाम बादशाह’ बलबन की कहानी है जो दर्शाती है कि बलबन के निरंकुश शासन के चलते उसके परिवार के लोग ही उसके खिलाफ हो गए हैं। इस नाटक में खुसरो और बलबन के बेटे के बीच होने वाले माध्यम से हिंदवी और फारसी का विवाद उठता है। इसमें खुसरो का डॉयलाग हैः—अवाम की जबान से नफरत करना अवाम से नफरत करना है। क्योंकि हुकूमत सियासी साजिशों पर टिकी होती है।

    उनका चर्चित नाटक ‘बापू’ विभाजन की त्रासदी और महात्मा गांधी के अकेलेपन की वेदना को व्यक्त करता है। गांधी कहते हैं, “ये मैं पूरी तरह समझा जब मेरे अजीज दोस्त मौलाना तक ने मुझसे झूठ बोला। लेकिन अपनी राय मुझसे ही नहीं, कांग्रेस के अपने साथियों से भी छुपाकर ब्रिटिश सरकार और कैबिनेट मिशन को चिट्ठी लिखने की क्या जरूरत आ पड़ी थी। यदि तुम खुद कैबिनेट मिशन के उस प्रस्ताव से इत्तेफाक रखते थे जिसमें बंटवारे के बीज छुपे थे तो कम से कम कांग्रेस के साथियों को तो बता देना चाहिए था।’’

    नाटक ‘पागलघर’ जनतंत्र की दमनकारी संरचना को उजागर करता है। जहां राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अफसर, नेता, डॉक्टर और पुलिस अफसर मिलकर एक लेखक को राष्ट्रविरोधी करार देते हैं और फिर उसे पागल बताकर जेल में डाल देते हैं। हास्य व्यंग्य से परिपूर्ण यह नाटक मौजूदा दौर पर मर्मभेदी टिप्पणी करता हुआ लगता है।

    आखिर में प्रभात त्रिपाठी आचार्य के राजनीतिक, सामाजिक और दार्शनिक विमर्श संबंधी लेखन पर टिप्पणी करते हैं जो उन्हें एक चिंतक के रूप में स्थापित करती है। इस विषय में आचार्य ने किसी पत्रकार, किसी राजनीतिशास्त्री और किसी दार्शनिक से कहीं गंभीर टिप्पणियां की हैं। उनकी ये टिप्पणियां उन्हें यूआर अनंतमूर्ति, किशन पटनायक, यशदेव शल्य जैसे चिंतकों की श्रेणी में खड़ा कर देती हैं। प्रभात कहते हैं, 

    “

    आज की सभ्यता में फंसते धंसते जाते भारतीय समाज के अहम और प्रासंगिक जरूरी सवालों को आचार्य भाषा की प्रांजलता में विन्यस्त करते हैं।


    प्रभात त्रिपाठी

    इस सिलसिले में आचार्य ने ढाई दर्जन से ज्यादा पुस्तकों का लेखन, संपादन और अनुवाद किया है। उनमें पश्चिमी सभ्यता का विकल्प ढूंढने और साथ में गांधी के चिंतन को उसके विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास दिखता है। सभ्यता के विकल्प में वे लिखते हैं, “हिंदुस्तान की आजादी के संघर्ष में सीधे सक्रिय होने से पूर्व ही गांधीजी इस बात को भली प्रकार समझ चुके थे कि असली संघर्ष, उनकी अपनी भाषा में कहें तो असली सत्याग्रह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध नहीं बल्कि उस आधुनिकतावादी सभ्यता के विरुद्ध है जो हिन्दुस्तान को धर्मभ्रष्ट कर रही है। ब्रिटिश साम्राज्य तो उस आधुनिकतावादी सभ्यता का एक प्रमाण और दलाल था। गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्य की उपस्थिति को इसलिए पाप मानते थे क्योंकि वह पाप का माध्यम था।’’

    इसी पुस्तक में वे लिखते हैं, “ सन 1909 ईस्वी में जो बात गांधीजी यूरोप के बारे में लिख रहे हैं वह काफी हद तक सारी आधुनिक दुनिया में देखी जा सकती है। एक कोण से यही बात नववामपंथी विचारक हर्बर्ट मारक्यूज भी कहता है जो अपनी ज्ञानमीमांसा और तत्वमीमांसा में गांधी से बिलकुल विपरीत छोर पर खड़ा है। मारक्यूज आधुनिक तकनीकी क्रांति के कारण बढ़े हुए उत्पादन से प्रेरित उपभोक्तावाद को ही मनुष्य की आत्मा के अनंत आयामों के खो जाने और उसके एकायामी या इकहरा हो जाने के लिए उत्तरदायी भी ठहराते हुए पश्चिम के संपन्न समाजों को समृद्धि के नरक की संज्ञा देता है।” ‘विद्रोही महात्मा’ में गांधी पर की गई उनकी टिप्पणी उन्हें समझने की गहरी दृष्टि प्रदान करती है।

    लेकिन उनकी पुस्तक ‘संस्कृति का व्याकरण’ उन लोगों के लिए करारा जवाब है जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर संकीर्णता फैला रहे हैं।

    संस्कृति की उनकी व्यापक परिभाषा उन लोगों को भी सीख देती है जो संस्कृति और सभ्यता को मूल्य केंद्रित मानने के बजाय स्थान केंद्रित मानते हुए सभ्यताओं के संघर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। 

    “यदि संस्कृति एक मूल्यगत प्रक्रिया है तो वह एक सार्वभौम और सनातन प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया का बुनियादी प्रयोजन और लक्ष्य एक ही है। उसकी मूल प्रवृत्ति और आकांक्षा एक ही होनी चाहिए। यदि उसके बाह्य स्वरूप में कोई परिवर्तन दिखाई भी देते हैं तो वे संदर्भगत परिवर्तन है जिनसे मूल आधार पर असर नहीं पड़ना चाहिए। ऐसी स्थिति में संस्कृति के देशबद्ध रूप पर अधिक जोर देना या उसी को किसी के लिए अनिवार्य मान लेना क्या प्रकारांतर से संस्कृति की मूल अवधारणा का ही विरोध करना नहीं है”

    संस्कृति की संकीर्ण व्याख्या करने वालों के विरुद्ध उनका यह तर्क उन्हें मजबूत अस्त्र प्रदान करता है जो ऐसे लोगों से समाज को उबारने में लगे हैं। आचार्य लिखते हैं, “ किसी जमाने में संस्कृति की चर्चा धर्म से जोड़कर की जाती थी फिर यह चर्चा राष्ट्र के साथ जोड़कर की जाने लगी। अब लगता है कि यदि संस्कृति की बात पूरी मानवजाति के संदर्भ में नहीं की जाती है और हमारा ध्यान स्वरूपगत भिन्नताओं के कारण अलगाव को पुष्ट करने की ओर जाता है तो यह सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया में एक ऐतिहासिक विसंगति से आंख मूंद लेना होगा जिसके परिणाम पूरी मानवजाति को और इसीलिए हमें भी भुगतने होंगे।”

    एक स्थान पर वे लिखते हैं, “दरअसल धार्मिक संप्रदाय के आधार पर किसी बिरादरी की कल्पना और अन्य को अपने से अलग मानने की धारणा असंगत ही नहीं अधार्मिक भी है।”

    नंदकिशोर आचार्य सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए निरंतर चिंतन करने वाले विचारक ही नहीं उसकी रक्षा में सदैव तत्पर रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे हैं। वे अज्ञेय के संपादन में निकलने वाले जेपी के एवरीमैन्स के संपादकीय टीम का हिस्सा भी रहे हैं। प्रभात त्रिपाठी ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य के लेखन का संक्षिप्त और आत्मीय परिचय देकर हिंदी समाज का उपकार किया है। लेकिन वे उनके संपूर्ण लेखन को अपनी इस पुस्तक में समेट नहीं सके हैं। आचार्य ने ‘अहिंसा विश्व कोष’ नाम से जो रत्न इस समाज को दिया है वह बहुमूल्य है। उन्होंने अहिंसा शांति ग्रंथ माला के माध्यम से बहुत ज़रूरी पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। वे साहित्य के साथ निरंतर ज्ञान का सृजन कर रहे हैं। जो हिंदी समाज गंभीर रूप से सांप्रदायिकता से ग्रसित है और जिस पर निरंतर संस्कृति के बहाने धार्मिक कट्टरता थोपी जा रही है उसके लिए आचार्य का चिंतन न सिर्फ शाश्वत है बल्कि समकालीन भी है। भले ही आचार्य की भाषा कठिन और संयत है और उसमें नेहरू और आंबेडकर जैसे विचारकों के लिए स्थान नहीं है, इसके बावजूद वह एक ऐसी औषधि है जिसे हिंदी समाज के लिए अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। इस पुस्तक के लिए प्रभात त्रिपाठी को साधुवाद।

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