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    Home » बजट 2025ः बेरोजगारी से निजात ही है लोक समृद्धि की कुंजी
    भारत

    बजट 2025ः बेरोजगारी से निजात ही है लोक समृद्धि की कुंजी

    By January 31, 2025No Comments6 Mins Read
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    सालाना दो करोड़ रोजगार दिलाने के वायदे पर साढ़े दस साल पहले सत्तारूढ़ हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं बीजेपी की केंद्र सरकार का बेरोजगारी से मानो चोली-दामन का साथ बन गया है। साल 2020 में युवाओं के ऐतिहासिक 22 फीसद बेरोजगारी की मार झेलने के बावजूद मोदी सरकार कोई ठोस रोजगार नीति बनाने में नाकाम रही है। जुलाई 2024 में पेष बजट में मोदी सरकार ने अप्रेंटिसशिप और कौशल विकास के लंबे-चैड़े कार्यक्रमों की घोषणा की मगर दिसंबर  2024 में भी बेरोजगारी दर सीएमआईई के मुताबिक 8.2 फीसद है।

     भारत जैसे 65 फीसद युवा आबादी वाले देश में यह दर अत्यधिक संवेदनशील है। बिहार में हालिया बीपीएससी पेपर लीक कांड के विरूद्ध युवाओं का उग्र प्रतिरोध इसकी बानगी है। इससे पहले उत्तर प्रदेष और दूसरे राज्यों में सरकारी एवं रेलवे की नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षाओं के पेपर लीक होने के खिलाफ युवाओं के उग्र प्रर्दशन हुए हैं।

    इसके बावजूद मोदी सरकार युवाओं को लाभप्रद रोजगार देने का कोई भी ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं कर पाई। अप्रेंटिसशिप और कौशल विकास का माॅडल भी मोदी सरकार ने जून 2024 में बीजेपी के लोकसभा सदस्यों की संख्या 240 पर सिमट जाने और एनडीए की कृपा से सत्ता मिलने के बाद कांग्रेस के घोषणापत्र से चुराया है। इसके तहत एक करोड़ युवाओं को पांच साल में 500 प्रमुख कंपनियों में इंटर्नशिप देंगी। इसका लाभ पिछले छह महीने में कितने युवाओं को मिला इसका लेखाजोखा तो वित्तमंत्री को बजट में अब देना ही है। हालांकि इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी पकोड़े तलने को भी लाभप्रद रोजगार बता रहे थे। 

    जून 2024 में देश में बेरोजगारी दर सीएमआईई द्वारा 9.2 फीसद दर्ज करने के बावजूद आम चुनाव के प्रचार में प्रधानमंत्री मोदी सहित बीजेपी बेरोजगारी की समस्या को सिरे से नकारती रही। चुनाव में मुंह की खाने के बाद रोजगार बढ़ाने के लिए सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योगों को रियायती दर पर प्राथमिकता से कर्ज देने का एलान बजट में किया गया। हालांकि नोटबंदी एवं अंधाधुंध जीएसटी से तबाह इस असंगठित मगर रोजगार उत्पादक क्षेत्र में ही देश की 94 फीसद आबादी अधिकतर रोजगार पाती है।

    इसके बावजूद पिछले बजट में निर्गत 11.11 लाख करोड़ का समूचा सरकारी पूंजीगत खर्च संगठित क्षेत्र के लिए ही उपादेय था। ये सारी पूंजी बजट में सूचना प्रौद्योगिकी, उर्जा,रेलवे आदि संगठित क्षेत्र के लिए ही रही है। इससे साफ है कि मोदी सरकार अब भी असंगठित क्षेत्र को जिलाने के ठोस उपायों से कतरा रही है जबकि उसे 80 करोड़ लोगों को मासिक पांच किलाग्राम अनाज प्रति व्यक्ति देना पड़ रहा है। इसके बावजूद विडंबना ये कि हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था  होने और जल्द ही तीसरे नंबर की वैश्विक अर्थव्यवस्था बनने का दावा करते नहीं अघाते।

    असंगठित क्षेत्र की दुर्दशा और उसकी सरकारी दुर्दशा की तस्दीक ताजा सरकारी आंकड़ों से भी हो रही है। राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के अनुसार साल 2023-24 में असंगठित क्षेत्र में नौकरियां मिलने की दर उससे पिछले 14
    साल में न्यूनतम रही है। इसके लिए विशेषज्ञों के कारण नोटबंदी, असंगत जीएसटी और कोविड महामारी की आहट से घबरा कर मोदी सरकार द्वारा किए गए लाॅकडाउन जिम्मेदार हैं।

    साख्यिकीय सर्वेक्षण के अनुसार 2023-24 में जहां असंगठित क्षेत्र में करीब 3.37 करोड़ लोग रोजगाररत थे वहीं 2011-12 में इससे 3.49 करोड़ लोग रोजगार पा रहे थे। इससे साफ है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में रोजगार बढ़ने तमाम दावे खोखले हैं। क्योंकि करीब डेढ़ दशक में रोजगार बढ़ने के बजाए 12 लाख रोजगार घटे हैं। इससे साफ है कि आगामी बजट में रोजगार के नए मौके बड़े पैमाने पर पैदा करने की मोदी सरकार के सामने कितनी विकट चुनौती है। 

    प्रधानमंत्री मोदी ने बजट सत्र के मौके पर अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की मंशा जताई है मगर अर्थव्यवस्था का आकार बढ़े बिना ये कैसे संभव होगा। अर्थव्यवस्था में निजी पूंजी निवेश की रफ्तार बढ़े बिना रोजगार के मौके कैसे बढ़ेंगे उसके बिना न तो महिलाओं की आमदनी बढ़ेगी और न ही समाज में उन्हें बराबरी का दर्जा मिल पाएगा।

    निजी पूंजी निवेश का बढ़ना बाजार में खरीद क्षमता में ठहराव से मांग अटकने के कारण पिछले पांच साल से घिसट रहा है। जबकि पूंजीपतियों को कार्पोरेट करों की दर में कटौती करके उसे 22 फीसद तक महदूद करने के पीछेतर्क नए निवेश के लिए उनके हाथ में अतिरिक्त पूंजी उपलब्ध कराना था। इसके बावजूद निवेश बढ़ने की गति जहां सालाना 21 से 24 फीसद पर अटकी है वहीं उनका मुनाफा दिन दूना-रात चौगुना हो रहा है। कार्पोरेट का कुल मुनाफा साल 2022-23 में 10,88000 करोड़ रुपये से करीब 30 फीसद बढ़ कर अगले ही साल 2023-24 में 14,11000 करोड़ रूपए हो गया है।

    दो साल की इसी अवधि में व्यापारिक बैंकों ने काॅरपोरेट द्वारा लिए कर्ज के 3,79,144 करोड़ रूप्ए बट्टे खाते में डाले हैं। अर्थात जनता की जमा पूंजी से चलने बैंकों ने विभिन्न कंपनियों को पौने चार लाख करोड़ रुपये से अधिक कर्ज की माफी दे दी। दूसरी तरफ अपनी जायज मांगों के लिए ठिठुराती सर्दी और खाल बींधती गर्मी झेलते आंदोलनरत किसानों की जायज मांगों पर भी बैंक अथवा सरकार सुनवाई नहीं कर रहे।

    सरकार द्वारा किया जाने वाला सार्वजनिक निवेश भी मोदी सरकार के दस साला कार्यकाल में 6.7 से 7.0 फीसद सालाना दर पर अटका हुआ है। सरकारी पूजीगत निवेश में भी पिछले पांच साल में मोदी सरकार द्वारा नौ फीसद कटौती की गई है। साल 2019-20 में सरकारी पूंजीगत निवेश जहां जीडीपी का 4.7 फीसद था वहीं 2023-24 तक घटते-घटते 3.8 फीसद रह गया। निजी और सरकारी  पूंजी निवेश के ये आंकड़े साफ-साफ जता रहे हैं कि नए पूंजी निवेश की रफ्तार देश की अर्थव्यवस्था में 65 फीसद युवा आबादी के लिए नए रोजगार पैदा करने के लिए नाकाफी हैं। ऊपर से राजकोषीय घाटे और राजस्व घाटे की ऊंची दर भी सरकार पर कर्ज का बोझ बढ़ा रही हैं। 

    बढ़ते सरकारी कर्ज पर सरकार को अपने घाटाग्रस्त खजाने से ब्याज की रकम भी अधिक चुकानी पड़ रही है। ऐसे में सरकार को काॅरपोरेट टैक्स की दर बढ़ाकर अपना घाटा कम करना और सार्वजनिक निवेश बढ़ाना चाहिए। उससे जहां रोजगार सृजित होंगे वहीं बाजार में मांग बढ़ेगी जिससे उत्पादन का पहिया तेजी से घूमेगा।  इसके उलट अपने पूंजीपति प्रेम में फंसी मोदी सरकार काॅरपोरेट को दुहरा लाभ पहुंचा कर लोगों पर जीएसटी, आयात शुल्क और आयकर का बोझ बढ़ा रही है। ऐसे में बेरोजगारी कैसे घटेगी और जनता पांच किलोग्राम मासिक मुफ्त अनाज के भंवर से निकल कर रोजगार पाने और सम्मानजनक जीवन जीने का सुख कैसे पाएगी

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