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    बर्फ के पहाड़ बन चुके पानी से सोनम वांगचुक के आइस स्तूप प्रोजेक्ट ने कैसे बचाई लद्दाख की नदियां

    Janta YojanaBy Janta YojanaSeptember 30, 2025No Comments6 Mins Read
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    Sonam Wangchuk Ice Stupa (Image Credit-Social Media)

    Sonam Wangchuk Ice Stupa

    लेह की ठंडी हवाओं के बीच सफेद, चमकीली बर्फ से ढकी वादियों को देखना प्रकृति का अद्भुत नजारा पेश करता है। उसपर इन बर्फीले पहाड़ों पर पड़ने वाली चांद की रौशनी स्वर्ग लोक सा एहसास दिलाती है।

    लेह लद्दाख अपने मनमोहक प्राकृतिक दृश्यों, शांत मठों और हर मौसम में बेजोड़ सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन जब बर्फबारी की बात आती है, तो लेह लद्दाख पूरी तरह से सर्दियों के अजूबे में बदल जाता है। यहां ऊबड़-खाबड़ इलाके और दुर्गम स्थान ठंड के महीनों में आना मुश्किल बनाते हैं, वहीं इस दौरान बर्फ से ढके इस क्षेत्र की मनमोहक सुंदरता देखने लायक है।

    आप लद्दाख जाएंगे तो आपको एक बर्फ से ढका हुआ विशालकाय पहाड़ दिखाई देगा। ये पहाड़ किसी मंदिर या स्तूप जैसे दिखाई देता हैं। स्थानीय बच्चे उसे खेल-खेल में बर्फ का जादू कहते हैं, और बुजुर्ग इसे भगवान की देन मानते हैं। दरअसल यह किसी धार्मिक संरचना का नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक प्रयोग का नतीजा है, जिसे बनाया है लद्दाख के इंजीनियर और पर्यावरणविद सोनम वांगचुक ने। यही है आइस स्तूप प्रोजेक्ट। एक ऐसा समाधान जिसने पानी की कमी से जूझते किसानों की ज़िंदगी बदल दी। आइए जानते हैं सोनम वांगचुक के आइस स्तूप प्रोजेक्ट के बारे में विस्तार से –

    बर्फ के बीच भी प्यासे लोग

    लद्दाख का एक बड़ा संकट

    लद्दाख को अक्सर लोग ‘छोटा तिब्बत’ कहते हैं। यहां बर्फ से ढकी चोटियां हैं, सर्दियों में नदियां जम जाती हैं और गर्मियों में ठंडी हवाएं ताजगी बिखेरती हैं। लेकिन इस सुंदर तस्वीर के पीछे एक दर्दनाक सच्चाई है। पानी, जो जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत है। पानी यहां हमेशा दुर्लभ रहा है।

    सर्दियों में तापमान 20 डिग्री से नीचे चला जाता है और नदियां बर्फ बनकर बहने की बजाय जम जाती हैं। मार्च-अप्रैल में जब बर्फ पिघलती है, तब पानी प्रचुर मात्रा में बहता है, लेकिन उस समय खेतों को उतनी सिंचाई की जरूरत नहीं होती। इसके उलट, अप्रैल-मई में जब किसान अपनी फसल बोते हैं, तब पानी की भारी कमी हो जाती है। किसानों के सामने सबसे बड़ी विडंबना यही थी। जब पानी चाहिए होता था, तब वह गायब हो जाता था।

    सोनम वांगचुक – सपनों से हकीकत गढ़ने वाला इंजीनियर

    लद्दाख के इस संकट को हल करने के लिए सामने आए सोनम वांगचुक। वे केवल इंजीनियर ही नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक भी हैं। उनकी पहचान शिक्षा सुधार से शुरू हुई, जब उन्होंने SECMOL (Students’ Educational and Cultural Movement of Ladakh) की स्थापना की और सैकड़ों बच्चों के भविष्य को नया रास्ता दिखाया।

    लेकिन असली पहचान उन्हें तब मिली जब उन्होंने किसानों के जल संकट पर ध्यान दिया। उनके दिमाग में सवाल था कि ‘इतना पानी हमारी आंखों के सामने बेकार बहकर क्यों चला जाता है? क्यों न इसे बचाकर रखा जाए, ताकि जब जरूरत हो, तभी उपयोग किया जा सके?’ यही सवाल आइस स्तूप प्रोजेक्ट की नींव बना।

    आइस स्तूप क्या है?

    आइस स्तूप बर्फ का एक कृत्रिम ग्लेशियर है। जो यहां गांवों के बीचों-बीच खड़ा है, जो न तो प्राकृतिक रूप से बना है और न ही किसी मशीन से तैयार किया गया है। यह एक शंक्वाकार संरचना है, जो देखने में बौद्ध स्तूप जैसी लगती है। इसे बनाने की प्रक्रिया बेहद सरल है। सर्दियों में जब नदियों और झरनों में पानी प्रचुर मात्रा में बहता है, तब उस पानी को पाइपलाइन के जरिए ऊंचाई से नीचे लाया जाता है। गुरुत्वाकर्षण के कारण पानी स्प्रे की तरह नीचे गिरता है और ठंडी हवा से टकराते ही तुरंत जम जाता है। धीरे-धीरे यह बर्फ का ढेर आकार लेकर एक विशाल स्तूप बन जाता है। खास बात यह है कि शंक्वाकार आकार की वजह से सूरज की रोशनी का असर कम पड़ता है और बर्फ महीनों तक पिघलने से बची रहती है।

    किसानों के लिए वरदान साबित हुआ स्तूप से निकला जीवन

    लेह के पास स्थित गांव के किसान त्सेरिंग कहते हैं, की पहले अप्रैल में जब फसल बोते थे, तो नहरें सूखी रहती थीं। हमें डर होता था कि बीज अंकुरित ही नहीं होंगे। लेकिन जब आइस स्तूप से पानी मिलने लगा, तो हमारी जमीन हरी-भरी हो गई।

    उनकी बात से साफ है कि आइस स्तूप ने किसानों की चिंताओं को कम कर दिया। एक बड़े आइस स्तूप से लगभग 100 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हो सकती है। धीरे-धीरे पिघलते हुए यह पानी खेतों तक पहुंचता है और फसलों को समय पर पोषण देता है। यही वजह है कि जहां पहले खेत सूखे रहते थे, वहीं अब सरसों और जौ की फसलें लहलहाती हैं।

    क्यों स्तूप का आकार ही चुना गया?

    सोनम वांगचुक के अनुसार, स्तूप का शंक्वाकार आकार एक वैज्ञानिक सोच का नतीजा है। अगर बर्फ को सपाट सतह पर जमाया जाए तो वह जल्दी पिघल जाती है क्योंकि सूरज की किरणें सीधे और ज्यादा क्षेत्र पर पड़ती हैं। लेकिन जब उसे पिरामिड की तरह खड़ा किया जाता है, तो सतह क्षेत्र कम हो जाता है और रोशनी का असर घट जाता है। यही कारण है कि आइस स्तूप कई महीनों तक सुरक्षित रहते हैं और धीरे-धीरे पानी छोड़ते हैं।

    स्तूप तकनीक सरल भी है और बेहद टिकाऊ भी

    इस प्रोजेक्ट की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इसमें किसी भारी मशीन, पंप या बिजली की जरूरत नहीं पड़ती। केवल गुरुत्वाकर्षण और लद्दाख की प्राकृतिक ठंड ही इसे सफल बनाने के लिए पर्याप्त हैं। यही कारण है कि यह तकनीक बेहद सस्ती और टिकाऊ है। इसे स्थानीय लोग आसानी से सीख सकते हैं और बिना ज्यादा खर्च किए अपने गांव में लागू कर सकते हैं।

    लद्दाख से लेकर दुनिया तक

    जब पहली बार आइस स्तूप सफल हुआ, तो इसकी चर्चा लद्दाख की सीमाओं से निकलकर दुनिया तक पहुंच गई। स्विट्ज़रलैंड, पेरू, नेपाल और आर्कटिक क्षेत्रों में इसे लेकर शोध और प्रयोग शुरू हुए। कई देशों ने इसे जलवायु परिवर्तन के दौर में पानी की समस्या का स्थानीय समाधान माना। सोनम वांगचुक को इसके लिए अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले और वे वैश्विक मंचों पर जलवायु योद्धा के रूप में पहचाने जाने लगे।

    क्यों है यह परियोजना खास? 

    आइस स्तूप केवल तकनीक नहीं, बल्कि उम्मीद का प्रतीक है। यह कम खर्च में, बिना प्रदूषण फैलाए और पूरी तरह सस्टेनेबल तरीके से पानी की कमी का हल देता है। किसानों की फसलों को समय पर पानी मिलता है, उनकी आमदनी बढ़ती है और गांवों में पलायन रुकता है। साथ ही यह हमें यह भी सिखाता है कि प्रकृति के साथ मिलकर ही हम जलवायु संकट से लड़ सकते हैं। लद्दाख के बर्फीले रेगिस्तान में खड़े ये आइस स्तूप केवल पानी का स्रोत नहीं, बल्कि जीवन की डोर हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि जटिल समस्याओं का हल हमेशा महंगी तकनीकों या बड़े निवेश से नहीं निकलता, बल्कि कभी-कभी सबसे साधारण और प्रकृति-आधारित सोच ही चमत्कार कर देती है।

    आज आइस स्तूप लद्दाख वासियों के लिए एक सामान्य और खुशहाल जीवन जीने का सहारा बन चुका है।

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